विख्यात इतिहासकार डा. बी बी मिश्र ने भारतीय मध्य वर्ग का इतिहास लिखते हुये यह बताया है कि ‘अंग्रेजों द्वारा लागू नयी सामाजिक नीतियों और आर्थिक परिवर्तनों के कारण भारत में मध्य वर्ग का अभ्युदय हुआ।’ इसके पहले देश में दो ही वर्ग थे एक उच्च वर्ग और दूसरा निम्न वर्ग। आज लगभग एक शताब्दी के बाद देश में एक और नये मध्यवर्ग का विकास होता दिख रहा है। समाज विज्ञान में फिलहाल इस वर्ग की कोई परिभाषा नहीं अंकित की गयी है और संभवत: पहली बार यहां उसे रेखांकित करने का प्रयास हो रहा है। सुविधा के लिये उसे मध्यवर्ती मध्य वर्ग कहा जा सकता है। यह वर्ग उंची जायों में या सवर्णों में सुविधाविहीन वर्ग है। आरक्षण के बाद दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों में एक ऐसा वर्ग उभरा जो सुविधा प्राप्त था। समाजवैज्ञानिकों ने इसे क्रीमी लेयर की संज्ञा दी। पर उच्च वर्ग में कुछ ऐसी जातियां हैं जो अभी अभी सुविधाविहीन हैं और पिछड़ी हुई हैं, जबकि उन्हें कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। मसलन, गुजरात में पाटीदार, कर्नाटक में लिंगायत, आंध्र में कापुस , हरियाणा में जाट और सबके बाद लगभग सभी जगह गरीब ब्राह्मण। दलित और ओ बी सी के लोग राजनीति में निर्णायक भागीदारी के बल पर सत्ता की नजर में हैं और पिछड़े समुदाय के लोग कई मामलों में आर्थिक रूप से ताकत वर हैं फिर भी वे पिछड़ों की श्रेणी को मिलने वाला लाभ पा रहे हैं। जबकि सवर्णों में कई जातियां हैं खास कर ब्राह्मण जिनमें अधिकांश आर्थिक रूप में निहायत कमजोर हैं नतीजतन समाज में वर्चस्व हीन हैं और राजनीति में उनकी ताकतवर पहचान नहीं है। शासन और अन्यान्य क्षेत्रों में उनका समानुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन, सामाजिक तौर पर वे अभी भी ऊंचे माने जाते हैं । सवाल है कि ऐसे सामाजिक समूहों का कैसे वर्गीकरण हो और लोकतंत्रीकरण में उनके प्रभाव का आकलन कैसे हो। दलितों , ओ बी सी और तथाकथित सुविदाविहीन सवर्णों के ये लाग ऐतिसाहिक या समाजशास्त्रीय नजरिये से उच्चवर्गीय या इलीट नहीं कहे जा सकते हैं। सुविधा के लिये इन्हें मध्यवर्ती उच्चवर्ग कह लेते हैं ताकि उनके आंतरिक डायनामिक्स को समझने में सुविधा हो। देश के अधिकांश शहरी ब्राह्मण गावों से आये हैं। इनमें से अधिकांश आर्थिक दबावों से निपटने के लिये अपनी जमीन जायदाद इत्यादि बेच दी है। पूजा पाठ का उनका पारंपरिक रोजगार अब लाभदायी नहीं रहा और नगरों के अधिकांश ब्राह्मण रोजी रोटी का कोई मुकममल साधन नहीं खोजपाते और सरकारी नौकरी मिलती नहीं तथा निजी क्षेत्रों की नौकरी का कोई ठिकाना नहीं होता। इसके लिये वे दलितों या ओ बी सी को मिलने वाली सुविधाओं को जिम्मेदार बताते हैं। समाज में एक खास किस्म का तीखापन भरता जा रहा है। गौरक्षक समूहों का उभार और दलितों पर होने वाले हमलों का एक बहुत बड़ा कारण यह सामाजिक विपर्यय-परिवर्तन भी है। जरूरत है इस सुविधाविहीन सवर्ण वर्ग की पीड़ा और उसके मानस को समझने की जरूरत है। इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि यह नयी स्थिति दलित एवं औ बी सी के विकास की स्थिति से कैसे भिन्न है क्योंकि इसमें सामाजिक स्तर और उससे जुड़ी ऊंचाई का भी ख्याल रखना जरूरी है। समाजिक प्रक्रिया में यह नया विकास एक तरफ जहां सामाजिक परिवर्तन को इंगित करता है वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक सहिष्णुता के सवाल को सम्बोधित करता है। सरकार, सियासत और बुद्िध्जीवी वर्ग को इसपर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि यह भविष्य में एक विराट समस्या का स्वरूप ग्रहण कर सकता है।
Friday, August 26, 2016
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