इनदिनों किसी भी अखबार को गोलिये और दो ही खबरें प्रमुख दिखायी देंगी एक कश्मीर से जुड़ी और दूसरी दलितों से जुड़ी। खैर कश्मीर पर बहुत विमर्श हो चुका पर दलितों पर केवल दो इरादे से लिखा जा रहा है, पहला कि फैशन के कारण और दूसरा व्यवस्था को कोसने के लिये। अतएव दोनो में वस्तुनिष्ठता का अभाव खटकता है। यहां एकमात्र सवाल है कि क्या ‘क्या दलितों के लिये भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है?’ यहां एक बात का जिक्र कर देना जरूरी है कि जब भी इस तरह का कोई सवाल देश की सीमा से बाहर उठता है तो सरकार का उत्तर होता है कि यह हमारा आंतरिक मामला है और इसमें किसी भी अन्य राष्ट्र को टांग अड़ाने की जरूरत नहीं है। यही नही देश में भी पक्षपात इनदिनों एक बड़ी बिमारी बन गयी है। पूरा समाज यातो इस तरफ या उस तरफ , निष्पक्ष कोई नहीं है। इसी कारण दलित या उन परजिल्म ढाने वाले दोनों खुद को पूरी तरह सही बताते हैं। इस नजरिये के प्रति समस्या यह है कि इसमें हकीकत थोड़ी कम है और कोई कुछ नहीं कर सकता। अब मायावती ने जब संसद में कहा कि ‘दलित मसले को जातिवादी माइंडसेट से देखा जा रहा है’, तो वह बिल्कुल सही थीं लेकिन उन्होंने इस समस्या के लिये किसी प्रकार के अंतरदृष्टिपूर्ण समाधान नही प्रस्तुत किया। यह आज के सियासी मुबाहिसे की सबसे बड़ी कमी है। शब्द अपने ऐतिहासिक संदर्भ से उभरते हैं और एक नारे के रूप में फिजां में फैल जाते हैं। दलितों और गोरक्षकों में इक बात कॉमन है कि वे दोनो वह मनोविज्ञान नहीं समझते जिसके कारण दलित का होना महसूस होता है और फिर उन पर जुल्म करने वाले गोरक्षक अपने किये को जायज ठहराते हैं। जबकि इसे समझना गो रक्षकों के लिये एक सार्थक विकल्प है और दलितों के लिये तो यह उस कील की मानिंद है जिस पर उनका मुकद्दर झूर रहा है। सदियों से हमारे देश में कुछ कामों को छोटा समझा जाता है और कुछ को बड़ा। मसलन, रसोई का काम या घरेलू काम अक्सर औरतें करती हैं या नौकर चाकर करते हैं अगर घर का कोई पुरूष करता दिखे तो असामान्य सा लगता है। यही बात द्विजो के साथ् लागू होती है कि वे शारीरिक श्रम नहीं करते। आधुनिक युग के उषाकाल तक आदमी की कीमत उसके द्वारा किये जाने वाले काम से होता था। यह मान्यता थी कि छोटा काम अक्सर छोटे लोग ही करते हैं इस बात को अम्बडकर ने अच्छी तरह समझा था। इसलिये उन्होंने समानता या बराबरी को सामाजिक डायनामिक्स का कारक तत्व कभी नहीं माना। इसी बीच हमारी व्यवस्था लोकतांत्रिक हो गयी जिसने मसले को और उलझा दिया। लोकतंत्र की तामीर बनाने वालों ने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया। स्थिति यह हुई कि बेशक हम लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश हो गये लेकिन सामाजिक संघटन में वही पूर्व आधुनिक विचार था जिसमें आदमी का मूल्य उसके द्वारा किये जा रहे कामों से आंका जाता था। अब सदियों से यह माना जाता रहा है कि जो ऊंची जाति का है वह गुणों की खान है और जो नीची जाति का है वह गंदा है। यही माइंडसेट या मनोविज्ञान गो रक्षकों के साथ है। यहां गायों की रक्षा प्रमुख नहीं है बल्कि दलितों को उनके जीवन की तुच्छता प्रदर्शित करनी है। लोकतंत्र इस असमानता समर्थक विचारों के मुकाबले समानता का मैदान तैयार करत हे। हमें गो रक्षकों से भी सहानुभूति है क्योंकि कभी किसी ने उन्हे यह बताने की तकलीफ नहींकि एक दलित का जीवन कम से कम उस मृत गाय के चमड़े से ज्यादा कीमती है जिसके लिये वे(गो रक्षक ) इतने जघन्य कृत्य कर रहे हैं। मूल मसला है दलितों की मूल्यहीनता। गो रक्षा तो केवल दिखावा है। आज उद्देश्य केवल यह नहीं होना चाहिये कि दलितों को जुल्म से बचाया जाय। उद्देश्य तो यह हा कि वे अपने दलित होने के हीन भाव से बाहर निकलें। वे मृत पशु के चमड़े को ही रोजगार क्यों बनायें। अगर हमारा लोकतंत्र सही अर्थों में लोकतंत्र है तो दलितों की हिफाजत से जरूरी है उनका दलित होने का भाव खत्म करना। जिसे अम्बेडकर ‘जाति का खात्मा’ कहते थे। मृत पशुओं का चमड़ा निकालने का काम दलित गोरक्षकों पर ही छोड़ दें। उन्हें यह सीखने दें। आज की जो सबसे बड़ी गड़बड़ी है वह आर्थिक विपन्नता। दलितों का विकास मूलक रोजगार के माध्यम से सशक्तिकरण जरूरी है। दलितों की सबसे बड़ी विपदा है कि वे राष्ट्र के सौतेले बच्चों की तरह हैं ओर उनहें जो आरक्षण इतयादि की सुविदाएं मिलती हैं वह समाज के क्रोध में आग मे घी का काम करतीं हैं। इससे उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती। दलितों के लिये जरूरी है कि वे दलित होने के भाव से मुक्ति पाएं और समाज के समक्ष प्रमाणित कर दें कि वे किसी से कम नहीं हैं। आज यह प्रमाणित हो चुका है कि इंसानी हुनर और मेधा किसी की बपौती नहीं है यह किसी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बंधन में नहीं है। शिक्षा सुनहरे भविष्य की कुंजी है और एक शिक्षित दलित एक मूढ़ गौरक्षक को उसकी मूर्खताओं से मुक्त करा सकता है। जो पीड़ित रहे हैं उन्होंने हरदम इतिहास बदला है। इससे बुरी मानसिक गुलामी हो ही नहीं जो यह समझे कि हमारे ही समाज के एक इंसान का जीवन मरी गाय की खाल से भी सस्ता है। केवल विकास ही इस गुलामी को दूर कर सकता है।
Friday, August 12, 2016
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