71 बरस से हर कदम पर साथ
आज राम नवमी है , हमारे शास्त्रों के मुताबिक भगवान श्री राम का जन्मदिन। संयोग कुछ ऐसा ही कि इसी दिन सन्मार्ग ने सबके सुख दुख में साथ चलने का वादा कर कोलकाता की वीथियों में आपके दरवाजे पर दस्तक देना आरम्भ किया। वादा था कि सूचना के आधुनिक तिलिस्म के मायावी धुंध को परंपरा के ज्ञान और आलोक से हटाकर उसका सही और स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत किया जाय। 71 वर्ष पूर्व की उस रामनवमी से आज तक हमारी यही कोशिश रही कि वर्तमान के सोपान पर खड़े होकर हम अतीत और भविष्य की जीवंत धड़कन को समाहित करें। आज हम सूचना के गहरे धुंध की भयावहता से गुजर रहे हैं। हमसे अक्सर पूछा जाता है कि आज के ही दिन हमारे पूर्वजों ने " सन्मार्ग " का शंख क्यों फूंका? क्यों सन्मार्ग पर चलने की शपथ ली उन्होंने? असल में हम अपने अतीत के फैसलों को अपने समय में निपटाते हैं। हमारे पूर्वजों का जो भविष्य रहा होगा वह आज हमारा वर्तमान है। उन्होंने अपने भविष्य के बारे में जो सपने देखे होंगे हम आज उनके भोक्ता हैं या उनके शिकार हैं , हम उन्हें स्वीकार करते हैं या उनसे जूझते हैं। सही आत्म मंथन सदा अतीत में लिए गए फैसलों के आस पास ही होता है। त्रेता का एक प्रश्न था राम का जन्म क्यों हुआ था और अबसे 71 साल पहले का सवाल है कि सन्मार्ग का आविर्भाव आज के ही दिन क्यों हुआ? त्रेता के उस सवाल का उत्तर द्वापर में मिला " परित्राणाय च साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम। " उसी प्रवाह में अगर आप आज की स्थिति का मूल्यांकन करें तो लगेगा कि हम एक भयावह संकट के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें हमारी परंपरा पर प्रश्न उठ रहे हैं।उस परंपरा की रक्षा ही " परित्राणाय च साधूनां " है। आज सबसे ज्यादा आघात हमारी परंपरा और हमारी भारतीयता पर है। एक प्रश्न उठता है कि हम कौन हैं। इस प्रश्न की निरंतरता त्रेता से ही कायम थी और इसका भी उत्तर द्वापर में ही मिला जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्न्वी।’ आज हजारों वर्ष बाद वैसी ही संकट की घड़ी आ खड़ी है जब हमसे पूछा जा रहा है कि हम कौन है, परंपरा का अस्तित्व क्यों है और सन्मार्ग इस परंपरा को कायम रखने में क्यों जुटा है? ऐसी संकट की घड़ी में अपनी परंपरा का मूल्यांकन करना एक तरह से खुद अपना मूल्यांकन करना है।अपनी अस्मिता की जड़ों को खोजना है। हम कौन हैं यह एक दार्शनिक प्रश्न ना रहकर खुद अपनी नियति से मुठभेड़ करने का एक तात्कालिक प्रश्न बन जाता है । यहीं परंपरा अपने भीतर की निरंतरता का बोध बन जाती है। वह अपनी तात्कालिकता में शाश्वत है इसलिए इतिहास से संत्रस्त ना होकर स्वयं हर ऐतिहासिक घटना का मूल्यांकन करने का साहस और सामर्थ्य रखती है। हम उसकी सम्पूर्णता में सम्पूर्ण हैं। सन्मार्ग की स्थापना के उद्देश्य को समझने के लिए हमे संस्कृति के प्रश्न पर पुनर्विचार करना होगा।हम संस्कृति को उन बिम्बों , प्रतीकों और मिथकों से अलग कर के नहीं देख सकते जो हमारे जीवन के साथ अंतरंग रूप से जुड़े हैं। इसी जुड़ाव से उद्भूत होते हैं सन्मार्ग के मिथक और बिम्ब। ये बिम्ब और मिथक एक अदृश्य कसौटी हैं। इस कसौटी से हम धर्म- अधर्म, नैतिकता- अनैतिकता के बीच भेद करते हैं। यह जानना बहुत दिलचस्प होगा कि मिथक और बिम्ब कैसे सन्मार्ग के अर्थ को खोलते हैं और उसके उद्देश्यों की व्याख्या करते हैं। सन्मार्ग का आप्त वाक्य है " नमोस्तु रामाय सलक्ष्मनाय......." और इसमें एक वर्जना है " सन्मार्ग एव सर्वत्र पूज्यते ....." संधान के अधिकार और क्षमता के दुरुपयोग पर अंकुश। यानी फल की पवित्रता के लिए साधन की शुचिता आवश्यक है। यह स्वयं में एक दर्शन सृजित करता है। एक ऐसा दर्शन जिसकी जड़ें व्यक्तिगत अनुभवों में निहित हैं।यह अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसा कि देह। सोचिए कि यह कितना दिलचस्प सह संबंध है कि " देह अंगों को ढोती है या अंग देह को।" ऊपर परंपरा के निरंतरता की बात कही गयी है और सन्मार्ग उसी निरंतरता का प्रतीक है। यहां जब परंपरा और सन्मार्ग की बात हुई तो यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि परंपरा का मूल मर्म उसके शब्द में नही बल्कि शब्द और कर्म के बीच अखंडित संबंध में निहित होता है। राम का सत्य वह नहीं है जो उनके बारे में कहा गया बल्कि उसमें है जो उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया। राम का कर्म ही राम शब्द को पवित्र बनाता है। हमारे पूर्वजों ने इसी कर्म और अर्थ को समाहित करने के लिए आज का दिन चुना। सन्मार्ग की स्थापना उस काल में कई गई थी जब आम आदमी को उसके सहज स्वभाव से हटा कर एक छद्म लक्ष्य की ओर मोड़ा जा रहा था। ... और सन्मार्ग का प्रयास था उस छद्म लक्ष्य की ओर बढ़ रहे समाज की दिशा को बदल कर रचनात्मक यथार्थ की ओर ले जाया जाए। इसके लिए चिंतन, कर्म और व्यवस्थाओं को जातीय मर्यादाओं से जोड़ना लक्ष्य रखा गया था। चिंतन , कर्म और व्यवस्था ये मानव जीवन के तीन पहलू हैं जो जिनका" सत " की शुचिता की सीमा में आबद्ध रहना जरूरी है। यहीं बात उठती है सन्मार्ग के आप्त वाक्य , उसके नाम और उसकी वर्जनाओं की । यह भौतिकता का मूलभूत तत्व है यानी " सत" है। वह सत जो सच्चिदानंद का सृजन करता है।
'सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।।
ईसभजनु सारथी सुजाना । बिरति धर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा । बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।।
अगम अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
' कवच अभेद्य बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।'
सन्मार्ग अपनी 71 वर्ष लंबी यात्रा के जिस मील पत्थर पर खड़ा है वहां भी हमसे एक ही सवाल पूछा जाता है कि हमने अपना लक्ष्य कहां तक पूरा किया? कुछ लोग परंपरा तथा धर्म रक्षा के हमारे लक्ष्य पर ताने भी देते हैं, आधुनिकता का हवाला देते हैं। वैसे लोगों से एक निर्मम सवाल है कि क्या भारतीय होने के नाते हमारे भीतर देश से कोई लगाव बाकी राह गया है? एक ही उत्तर मिलता है कि नहीं। क्योंकि हम अबतक यह साहस नही जुटा पाए कि पश्चिमी बौद्धिक दस्ता से मुक्त होकर सोचने समझने के अपने औजार विकसित कर सकें। नौजवानों अपनी आद्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप दीक्षित कर सकें। पश्चिमी बौद्धिक दस्ता ने हमारे भीतर संस्कृति और सभ्यता के अर्थों में कन्फ्यूजन पैदा कर दिया है। अंस्कृति कि धर्म संस्थानों से जोड़ दिरा गया है और सभ्यता को बाह्य आवरण से। सन्मार्ग की सदा से यह बताने की कोशिश रही है कि " एक भारतीय का धर्म उसके ' आत्मन ' में रहता धर्म संस्थानों में नहीं। " यही कारण है कि एक भगौलिक क्षेत्र में हजारों साल से एक बहु संख्यक और सैकड़ों अल्पसंख्यक समुदाय रहते आये हैं। सबने मिल कर भारतीय सभ्यता को अमीर तथा दीर्घजीवी बनाया है। इसके मूल में भारत की संस्कृति ही है और इसी लिए इसे बचाये रखने ज़रूरी है।अब यहां यह पूछा जाता है कि सन्मार्ग का यह लक्ष्य कहां तक पूरा हुआ है? यहां यह बता देना ज़रूरी है कि यह लक्ष्य व्यापक सभ्यता बोध के भीतर ही पूरा हो सकता है। गौर करेंगे कि भारत की भगौलिक एकता अब तक केवल ऐसे परंपरा बोध में ही स्वरूप ग्रहण कर सकी है जहां व्यापक सभ्यता बोध हो , जहां अनेक संस्कृतियां और धर्म सम्प्रदाय एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे हैं। कजब जब इस प्रेरणा का स्रोत अवरुद्ध हुआ है तब तब भारतीयता पर आघात लगा है।देश का विभाजन इसका भौतिक उदाहरण है। भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी राष्ट्रीय अस्मिता दूसरों के विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी है । सन्मार्ग विगत 71 वर्षों से अडिग इसी परंपरा को कायम रखने के प्रयास में लगा है।
71 वर्ष पहले जो दीपशिखा प्रज्वलित हुई थी वह आज भी प्रकाश दे रही है क्योंकि उसमें हमारे सुधि पाठक , विज्ञापनदाता और हितैषी अनवरत अपना " स्नेह" प्रदान करते रहे हैं ।हम इस दीपक को प्रकाशमान रखने के लिए उनके अत्यंत आभारी हैं।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।।
0 comments:
Post a Comment