छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ पर हमला
आदिवासियों की रोटी से जुड़ा है हमले का कारण
हरिराम पाण्डेय
आदिवासी विद्रोह की जड़ें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध और आदिवासियों की रोजी से जुड़ी हैं। आज भी जब वैसे हालात होते दिखते हैं तो आदिवासियों में गुस्सा उफनने लगता है तथा निहित स्वार्थी तत्व इसी गुस्से का लाभ उठाते हैं। सोमवार को छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ की टुकड़ी पर जो आक्रमण हुआ उसकी जड़ें इतिहास में पेवस्त हैं। सरकार के खिलाफ या फौजी टुकड़ी के खिलाफ आदिवासियों के गुस्से की पहली घटना फरवरी 1910 में बस्तर रियासत में हुई थी। जब आदिवासियों ने वहां तैनात अंग्रेजी फौज पर औचक हमला कर दिया था। उस हमले को भूमकल यानी भूकम्प कहा गया था। उस घ्टना ने बस्तर को अंग्रेजही हुकूमत के खिलाफ रणक्षेत्र में बदल दिया। इसके लगबग 100 साल के बाद 2010 में दक्षिण बस्तर के छत्तीसगड़ के सुकमा जंगल में नक्सलियों ने सी आर पी एफ की टुकड़ी पर हमला कर 25 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और उनके असलहे लेकर फरार हो गये।
हालांकि गृहमंत्री ने आश्वासन दिया है कि हमले के कारणों की पड़ताल कर उन्हें खत्म करने की कोशिश की जायेगी पर ऐसे आश्वासन केवल देने के लिये होते हैं और अक्सर देते सुने जाते हैं।
बस्तर के बारे में जो सबसे उलझनभरी हकीकत है वह कि बस्तर कभी भी प्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में नहीं आया। पूर्ववर्ती बस्तर रियासत छत्तीसकगड़ राज्य के अंतर्गत था। लगभग 13000 हजार वर्गमुल की इस रियासत की आबादी 3 लाख 6 हजार 501 थी। यहां गोंड आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा थी और राजा आदिवासी नहीं थे , वे राजपूत हुआ करते थे। दंतकथाओं के अनुसार बस्तर रियासत की स्थापना करनेवाले राजपूत राजा 14 वीं सदी में वारांगल से मुसलमानों द्वारा खदेड़े गये थे। वे बस्तर आये आये ओर आदिवासियों की देवी दंतेश्वरी के मुख्य पुजारी हो गये। यहां दशहरा अजीब ढंग से मनाया जाता है। रिवाज है कि दशमी के दसरे दिन आदिवासी राजा को कैद कर लेते हैं ओर दूसरी सुबह उनहें आजाद कर देते हैं। यह आदिवासियों और राजा में एक खास सम्बंध भी दर्शाता है।
बिटिश हुकूमत के पहले यहां मुगलों ओर मराठों का आधिपतय था पर जंगल होने की वजह से हमेशा अलग थलग रहा। सेटृल प्रॉविंस के डेपुटी कमिश्नर विल्फ्रेड ग्रिगसन ने बस्तर को ‘भारतीय इतिहास का अवरुद्दा जलाशय कहा है।’ 1818 में जब अंग्रेजों पूरे मध्य बारत को मरालठों से मुक्त कराया तो वे बस्तर से राजनीतिक समझौते करने लगे ओर 1853 में बस्तर परोक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के तहत आ गया। अंग्रेजों ने बस्तर में तितयफा दखलंदाजी शुरू कर दी। पहला कि, उनहोंने नयी वनसम्पदा नीिति लागू कर दी। दूसरा कि, आदिवासियों को उनकी बूमि से हटाने लगे ओर तीसरा कि, राजा को हटाह कर अंग्रेज अफसरों या देसी अफसरों को राज्य का जिम्मा देने लगे। इसके लिये बहाना बनाया गया कि बस्तर में नरबलि रोकने के लिये यह सब किया जा रहा है। लेकिन कभी इसकी जांच नहीं हुई। महत्वपूर्ण वजह यह थी कि बस्तर में लौह अयस्क तथा अन्य अयस्क प्रचुर मात्रा में थे साथ ही बेशकीमती लकड़ियां थीं जिनपर कब्जा कर उनहें लूटना था। 1876 में अंग्रेजों ने बस्तर पर पूरी तरह कब्जा कर लिया और राजा नाम मात्र के लिये रह गये। इसके बाद आदिवासियांें का विद्रोह आरंभ हुआ। 1876 और 1910 में दो महत्वपूर्ण विद्रोह हुये। 1876 के विद्रोह का कारण था कि उस साल प्रिंस ऑफ वेल्स बारत आये थे आंेर उनकी बस्तर के राजा से मुलाकात होनी थी। आदिवहसियों को लगा कि यह राजा को कैद करने की साजिश है और उन्होंने विरोध में हथियार उठा लिये। राजा मिलने नहीं जा सके। लेकिन इसमें बहुत कम खून खराबा हुआ। इसके बाद 1910 में विद्रोह हुआ पर उसे कुचल दिया गया। इसके बाद जंगलों पर कब्जा शुरू हुआ ओर आदिवासियों की रोजी छिनी जाने लगी। लौह अयस्क के भंडारों की खुदायी होने लगी ओर उन्हें पट्टे पर उठाया जाने लगा। राजा को हटाया जाने लगा। राजा जो आदिवासियों के पूज्य थे उनहें हटाकर अफसरों को गद्दी सौंपी जाने लगी।
विद्रोह बढ़ता गया पर जंगलों को लेकर ब्रिटिश नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया। जंगलों और खानों पर समझौते होते रहे उन्हें पट्टे पर दिया जाना जारी रहा। 1923,1924, 1929 और 1932 मे पुराने पट्टों का नवीकरण हुआ। उदाहरण के तोर पर बस्तर में लौह अयस्क निकालने के लिये टाटा को लाइसेंस दिये गये। जंगल की जमीन को भी आरक्षित किया जाने लगा। बस्तर के पॉलिटिकल एजेंट के प्रशासक ने 1940 में इस जंगल आरक्षण के खिलाफ रिपोर्ट भेजी थी जिसमें कहा गया था कि आदिवासी इसे पसंद नहीं करते हैं, पर कोई बदलाव नहीं आया। अंग्रेजों ने आदिवासियों की सबसे बड़ा रोजी रोटी का साधन बीड़ी पत्ता तोड़ने पर भी रोक लगा दी। वह रोक आज भी कायम है। यहां तक कि उन्होंने आदिवासियों से मवेशियों को चराने का भी शुल्क लेना शुरू कर दिया।
जिन्होंने ब्रिटिश भारत का इतिहास पढ़ा है उन्हें ज्ञात है कि ब्रिटिश शासन के दौरान कई भारतीय समूहों ने विद्रोह किया था। कई आदिवासी समूहों ने हथियार अठाये थे ओर इतिहासकारों ने उनके कारणों की समीक्षा भी लिखी है। आजादी के बाद ब्रिटिश शासन की कई नीतियां थीं जिन्हें ना संशोधित न रद्द किया गया ओर वे यथावत लागू रहीं। लिहाजा आदिवासियों का गुस्सा कायम रहा या भड़कता रहा। नक्सलपंथी या माओवादी उसी गुस्से का शोषण करते रहे। यहां दो सवाल सामने हैं, पहला कि , क्यों बस्तर रियासत आदिवासी संघर्ष का बारत में सबसे बड़ा केंद्र बना रहा और दूसरा कि क्यों इस छोटी सी रियासत में इतना खून खराबा हुआ?
इसके दो कारण हैं। पहला कि, बस्तर में अंग्रेजों ने सबसे ज्यादा हस्तक्षेप किया ओर असकी समपदा का शोषण किया तथा दूसरा कि आजादी के बाद सरकार ने नीतियों में कोई संशोधन नहीं किया ओर इससे वह आंदोलन तथा विद्रोह चेहरे बदल बदल कर उभरते रहे। आदिवासियों का विद्रोह इस समय माओवाद के नाम से दिख रहा है। इतिहास मे. इेसे कई अदाहरण देखने को मिलते हैं कि कैसे अंग्रजों ने ग्रामीण भारत में बेचौनी पैदा कर आतंकवाद की िच्ंगरी को हवा दी। 18वीं और 19 वीं शताब्दी में देश में सबसे ज्यादा आदिवासी आंदोलन हुये। इतिहासकार कैथलीन गोख का कहना है कि ‘ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय ग्रामीण जीवनशैली में सबसे ज्यादा अवरोध पैदा किया, यहां तक कि मुगलों से भी ज्यादा।’ इतिहासकारों ने तो यह भी बताने की कोशिश की है कि भारत सरकार ने औपनिवेशिक काल की नीतियों, खासकर , जंगल से सम्बंधित नीतियों, में संशोधन नहीं किया ओर आदिवासी संघर्ष कायम रहा खासकर के बंगाल, ब्गिहार , झारखंड ओर मध्यप्रदेश के वे इलाके जहां प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन था। बस्तर या छत्तीसगड़ में जो वर्तमान नक्सल आंदोलन या विद्रोह है वह भी इसी का कारण है। यह आदिवासी विद्रोह का ताजा अवतार है। इससे जाहिर होता है कि वर्तमान सरकार भी उन कारणों की पड़ताल कर उन्हें खत्म करने में सक्षम नहीं हो पा रही है। आज हमारीण् सबसे बड़ी मजबूरी है कि केंद्र सरकार या छत्तीसगड़ सरकार के पास कोई ऐसा नहीं है जो आदिवासियों को विश्वास में लेकर बात कर सके। जो उनके नेता बने बषैठे हैं वे बाहरी लोग हैं और वे लोग युन्नान, कम्बोडिया और नक्सलबाड़ी से दीक्षित लोग हैं जिनमें आदर्श कम और स्वार्थ ज्यादा है। जो लोग अमन की काहेशिश करते हैं उन्हे ‘चुप’ कर दिया जाता है। आज सरकार या तो ताकत दिखा रही है या राजनीतिक जोड़ तोड़ में लगी है।
यहां सबसे जरूरी है कि सरकार दूरदर्शिता दिखाये ओर पुराने राजप्रमुखों के वारिसों को सामने लाकर आदिवासियोंसे वार्ता शुरू करे। इससे माओवादी ततव अलग थलग पड़ने लगेंगेनितियों में सुधार हो और रोजी रोटी का मुकममल आश्वासन दिखायी पड़ने लगे। आंदोलन खुद खत्म हो जायेगे।
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