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Wednesday, April 12, 2017

भाई! दोष तो केवल खंभे में ही नहीं है!!

भाई! दोष तो केवल खंभे में ही नहीं है!!
- हरिराम पाण्डेय
2014 की सर्दियों में नेपाल की राजधानी काठमांडू में  नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी और न्यूयार्क टाइम्स के जॉन फ्रीडमन से बातचीत के दौरान ‘फ्रब्रिकेटेड न्यूज ’ पर चर्चा होने लगी और हैरत हुई कि सत्यार्थी जैसे बड़े दिलवाले भी एक न्यूजमैन या यों कहें पत्रकार पर भरोसा नहीं करते। उनका अविश्वास जायज था। यह इन दिनों एक धारा सी चल निकली है। ऐसा लगता है कि जैसे मीडिया की आलोचना का कोई मौसम चल रहा हो। केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने पत्रकारों को ‘प्रेस्टीट्यूट’ कहा। 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव अभियान में उनकी थोड़ी भी आलोचना करने वाले पत्रकारों को क्या नरेंद्र मोदी बार-बार ‘खबरों के व्यापारी’ नहीं कहा करते थे? दिल्ली के चुनाव में भी जनमत संग्रहों में भाजपा को ‘आप’ से हारता दिखाने पर क्या उन्होंने इसे ‘बाजारू’ मीडिया का उदाहरण नहीं बताया था? व्यक्तिगत द्वेष के कारण संपूर्ण पेशे को अपमानजनक ढंग से संबोधित करना खतरनाक है। यह किसी संस्थान के प्रति ठीक उसी प्रकार अनादर व्यक्त करता है, जैसे कुछ लोग ‘सब नेता चोर है’ चिल्लाकर सारे ही नेताओं के प्रति तिरस्कार व्यक्त करते हैं। यह दोष इस पेशे का नहीं है बल्कि बदलती सामाजिक ​िस्थति का है और समाज की अपेक्षाओं का है। हमारे समाज का हर आदमी काफी इन्फार्म्ड हैं और वह सूचनाओं को अपने ढंग से देखता है तथा उनकी व्याख्या भी चाहता है कि उनकी स्वार्थ लिप्सा के अनुरूप हो। वस्तुतः आज की पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन मात्र न होकर मानव जीवन के व्यापक परिदृश्य को अपने आप में समाहित किए हुए है । यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र की कसौटी पर कसने का साधन बन गई है । वास्तव में पत्रकारिता जन-भावना की अभिव्यक्ति, सद्भावों की अनुभूति और नैतिकता की पीठिका है । संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी होने के साथ ही यह जीवन अभूतपूर्व क्रांति की अग्रदूत  है । ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, आशा-निराशा, संघर्ष-क्रांति, जय-पराजय, उत्थान-पतन आदि जीवन की विविध भावभूमियों की मनोहारी एवं यथार्थ छवि हम आज पत्रकारिता के दर्पण में कर सकते हैं । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष प्रो. अंजन कुमार बनर्जी के शब्दों में ‘पत्रकारिता पूरे विश्व की ऐसी देन है जो सबमें दूर दृष्टि प्रदान करती है।’ 
मुझसे कहा गया कि ‘पत्रकारिता तब और अब’ विषय पर बात करने को। डोर का जो सिरा आज मेरे हाथ में हैं मैं उसी को पकड़ कर अतीत की और बढ़ना चाहता हूं, इससे आज को लोगों को यह एलियन की भांति नहीं लगेगी। पत्रकारिता की आवश्यकता एवं उद्भव पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि  समाज में एक दूसरे का कुशल-क्षेम जानने की प्रबल इच्छा-शक्ति ने पत्रों के प्रकाशन को बढ़ावा दिया। पहले ज्ञान एवं सूचना की जो थाती मुट्ठी भर लोगों के पास कैद थी, वह आज पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंच रही है। इस प्रकार पत्रकारिता हमारे समाज-जीवन में आज एक अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार्य है । उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता किसी अन्य व्यवसाय से ज्यादा है । शायद इसीलिए इस कार्य को कठिनतम कार्य माना गया । इस कार्य की चुनौती का अहसास प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी को था, तभी वे लिखते हैं –
खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
यह शेर उस समय के पत्रकार और पत्रकारिता के जुझारुपन की बानगी पेश करता था। मगर आज के दौर की पत्रकारिता में यह सब नदारत है। इस बदलाव के कई कारण है जिन पर गंभीरता से बहस होनी चाहिए। मगर आज के दौर में ‘चलने दो’ वाला रवैया सुधार की हर गुंजाइश पर विराम लगाता दिखाई देता है।
पहले का पत्रकार और पत्रकारिता मिशन थी। अपने हक को पाने की संघर्षपूर्ण लड़ाई थी। जो कलम के बल पर जीती जाती थी। तब के पत्रकार की कलम में वो ताकत थी कि जो काफी कुछ बदलने का माद्दा रखती थी। काफी बदलाव के साथ पत्रकारिता एक नए रुप में हम सबके सामने है। पत्रकार बदला, पत्रकारिता बदली, पत्रकारिता के मायने बदले कुछ ऐसा भी हुआ इस लोकतंत्र के चौथे खंबे के साथ जो नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बन गई इसमें किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए लेकिन पत्रकारिता जिस रुप और ढंग में हमारे सामने है उस पर थोड़ी बहुत आपत्ति जरुर होनी चाहिए। ग्लैमर और तड़क भड़क देखकर आज की पीढ़ी जिस कदर पत्रकारिता की ओर लालायित हुई है वह काफी दुखद है। एक जमाने में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता था। बेशक यह खंभा था। आप सबने भक्त प्रह्लाद की कथा सुनी होगी उसमें एक खंभे से नृसिंह अवतार हुआ था जिसने हिरणकश्यप का वध किया था। यानी अत्याचार को मिटाने में खंभे की भी भूमिका थी। और हमारे पूर्वज पत्रकारों ने इस भूमिका को बखूबी निभाया है। आज वैसा नहीं हो पा रहा है तो बेशक खंभे का भी कहीं ना कहीं दोष है। आज की पत्रकारिता लोकतंत्र के तीनों  खंभों  की निगरानी करता नहीं पाया जाता। लोकतंत्र का यह चौथा खंभा बाकी तीनों खंबो से भी बुरी स्थिति में नजर आता है। इसके बावजूद पत्रकारिता का असर है पत्र्कारिता  जनित पारदर्शिता का नया दबाव है या कि जनता को हर समय अपने किए धरे को बताने का बढ़ता आग्रह है कि आजकल हर सरकार दिनों के हिसाब अपने किए के बारे में बताने लगी है। पत्रकारिता या यूं कहें मीडिया ने हर चीज को एक ‘‘बाइट’ एक सूचना, एक चिह्न, एक दृश्य में ढालने की सुविधा दी है। ऊपर मैंने कहा है कि पत्रकारिता का वर्तमान स्वरूप समाज के नये स्वरूप का दर्पण है। यहां एक बात बताना उचित महसूस होता है कि आधुनिक युग को हिटलर ने एक शब्द दिया था ‘‘ब्लिट्जकीग’। यह शब्द हिटलर द्वारा शुरू की गई एकदम नई ‘‘रणनीति’ के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है जिसके अंतर्गत हिटलर जल, थल, नभ, कूटनीति और सूचना संजाल से एक साथ दुश्मन पर हमला करता था और दुश्मन हक्का-बक्का रह जाता था। जब तक वह होश संभालता था तब तक हिटलर की सेनाएं आगे बढ़ कर उसके राज्य को जीत लेती थीं। आज हमारे नेता जो समाज पर या उसकी सोच पर शासन करना चाहते हैं वे  ‘‘मीडिया ब्लिट्जकीग’ की ताकत और महत्व को  समझते हैं। मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया ने मिलजुल कर ऐसा वातावरण बना डाला है कि अब हर चीज ‘‘प्रदर्शनीय’ और ‘‘रूपंकरी’;परफारमेटि यानी ‘‘लीला’ बन गई है,‘‘तमाशा’ बन गई है। यह लीला भी नित्य की लीला है। रीयल टाइम की लीला है। पहले की पत्रकारिता उएस सामाजिक आदर्श का प्रतीक थी जो स्वार्थों से उपर नैतिक 
मूल्यों को तरजीह देता था , आज का समाज नैतिक मूल्यों को ब्दल कर कुछ हासिल करने को प्राथ्मिकता देता है और एस हासिल करने की होड़ में अपनाये जाने वाले मार्गो को हम भ्रष्टाचार या अनैतिकता कहते हैं। कुछ लोग लांछन लगाने की नीयत से ‘पीत पत्रकारिता’ या ‘पेड न्यूज ’ की बात भी करते हैं। हम जब तक ‘सोशल करेंट्स’ की मूल्यवत्ता नहीं परेखेंगे तब तक  इन आरोपों की व्याख्या नहीं कर पायेंगे। अब से कोई डेढ़ दशक पहले के आदर्श बेशक कीर्तन के लिये ठीक हैं पर आचरण समय सापेक्ष है और समय मनोभावों को प्रभावित करता है। ीफर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ ठीक है। गड़बड़ियां हैं जो पहले भी थीं और आज भी हैं। 

 

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