चुप्पी जवाब नहीं है
आपको याद है कि हम हिंदुओं ने पिछली बार कब पूछा था कि
हम कौन थे क्या हो गये हैं, और
क्या होंगे अभी
आओ विचारें मिलकर ,
यह समस्याएं सभी
शायद नहीं। पिछली बार यह बात डा. बी आर अम्बेडकर ने पूछा था। हिंदू समाज की अनेक कुरीतियों, रस्मों -रिवाजों, मान्यताओं से उत्पीड़ीत समाज के कुछ अंगों की वेदना से उन्होंने देश के चैतन्य और बुद्धिजीवी समाज को अवगत कराया और इस पर विचार करने के लिये उनहें बाध्य कर दिया कि वे परम्पराओं की गहन जांच करें। उनके बाद किसी ने भी सामूहिक स्वार्थ की ओर नहीं देखा। यह निहायत दुखद विषय है क्योंकि जब एक समाज खुद अपने बारे में बुनियादी सवाल नहीं उठायेगा तो उसका विकाग्स रुक जायेगा। सामूहिक अहं की बौद्धिक समीक्षा निरुत्साहित कर हमने अपनी कमियों को छुपाने की कोशिश शुरू की ओर बाद में यह एक मानसिक रोग बन गया। गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं या नवीन भारत या डिजीटल भारत जैसे निर्रथक नारों से आवेशित हमारे समाज यह पूछने की हिम्मत खत्म जा रही है कि ‘हम क्यों जाति पांति में उलझे हैं? या, एक समुदाय किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति क्रोधित क्यों रहता है?’
पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को कूच बिहार में एक जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि धर्म के नाम पर लोगों को बांटना बंगाल में नहीं चलेगा। गनीमत है कि बंगाल में कोई तो बोल रहा है पर देश भर में चुप्पी है।
एक लोकतांत्रिक समाज में जनता को अपने साथ रहनेवाले लोगों की हिफाजत की जिम्मेदारी भी होती है। अगर साथ रहने वाले लोगों के हकूक को लगातार मारा जाता रहेगा, उनसे दुराव रहेगा और उनसे बुनियादी मुखालफत पैदा करने कोशिश दिखती रहेगी तो तय है कि उनमें भी विरोध भाव बढ़ेगा और नतीजा आपसी दुश्मनी के रूप में सामने आने लगेगा। अगर गौर करें तो आज हमारा समाज अपनी एकजुटता खोता जा रहा है। यह एक अीति दुखद तथ्य है क्योंकि हम एक अति गौरवशाली इतिहास तथा दर्शन के वारिस हैं।
संतान उनकी आज यद्यपि
हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के
आज भी कुछ हैं खड़े
हम यह नहीं देख रहे। हमारे नेता 19 शताब्दी से पीछे की ओर नहीं जा पा रहे हैं। यह सदी भारतीय नवजागरण की शुरूआत की सदी थी। हमारे नेता यहीं से सवाल उठा रयहे हैं जो 20वीं सदी के मध्य तक आकर खत्म हो जाते हैं। इसके बाद एक मौन है। आज का हिंदू समाज दलितों, महिलाओं ओर अल्पसंख्यकों के विरूद्ध कई संगीन मामलों में सह अपराधी है। सहअपराधी इसलिये कि पूरा समाज उन स्वघोषित ‘रक्षकों’ के उन्मादपूर्ण कार्यों पर चुप है। ये ‘रक्षक’ ही तय कर रहे हैं कि हिंदू धर्म का कानून क्या है , नैतिकता और इसके तहत किसे दंड दिया जाय। इन्हें शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षक मिल जाते हैं ओर उनसे मिली या उनकी भगत पुलिस की मदद मिल जाती है। ये ‘रक्षक’ खुद ही कानून बनाते हैं , खुद ही उसके आधार पर फैसला करते हैं और उसी के आधार पर दंड भी दे देते हैं।
बहते हुये खून की व्याख्या
कानून से परे कहा जायेगा
देखते देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बन कर समा जायेगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
देश बेच देगा
इन रक्षकों के क्रिया कलापों की खबरें रोज अखबारों में देखने को मिल जातीं हैं। हमारे राजनीतिक जीवन में जो असमान्यता थी वह सियासत की राह बन गयी है। लोकतंत्र अपने उद्देश्यों से भटकता दिख रहा है। कानून का भय खत्म होता जा रहा है ओर इसके लिये बहुत हद तक हमारे राजनीतिज्ञ दोषी हैं तथा जनता चुप है। चालू महीने में अलवर में कथित गौ रक्षकों ने 15 अल्प संख्यकों पर हमले किये। ये हमले केवल इसलिये किये गये कि वे गायों को बाहर भेजते थे। जिनलोगों पर हमले किये गये उनमें एक मारा गया और इक अस्पताल में है। राजस्थान के गृहमंत्री इन हमलों की निंदा करने की बजाय यह कहते सुने गये कि चूंकि राजस्थान में गायों की तस्करी पर रोक है इसलिये कनफ्यूजन में ये हमले हुये। जब कि हकीकत यह थी कि जिनपर हमले किये गये उनके पास गायों को राज्य से बाहर भेजने के कागजात थे। अब मंत्री महोदय की बात से अदालत की भी हेठी हो रही है क्योंकि कानून सम्मत काम नहीं करने दिया गया। क्योंकि अगर कोई आदमी कानून तोड़ता है तो उसे अदालत के सामने पेश किया जाना चाहिये ताकि अदालत कानून की राह अख्तियार कर सके। लेकिन कानून को ताक पर रख दिया गया। इन दिनों समाज के दो अतिसंवेदनशील वर्गों पर हमले हो रहे हैं … और हम चुपचाप देख रहे हैं। ये रक्षक हमारी सभ्यता, संस्कृति ओर कला पर हमले कर रहे हैं ओर चुप हैं। विख्यात जर्मन दार्शनिक एवं मार्टिन निमोलर ने पहले नाजियों का समर्थन किया ओर जब उनहें लगा कि वे गलत हैं तब विरोध करने लगे तथा जीवन के अंतिम दिन उन्हें यातना गृहों में गुजारने पड़े। सामाजिक पीड़ा पर उन्होंने लिखा,
पहले वे कम्युनिस्टों के लिये आये
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे ट्रेड यूनियनों के लिये आये
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
फिर वे आये यहूदियों के लिये
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वे मेरे लिये आये
तबतक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिये बोलता।
बोलना जरूरी है इसलिये कि ये स्वयंभू रक्षक आम आदमी की जिंदगी की जद में घुसने लगे हैं। हमें अपने समाज के बारे में सवाल करने होंगे हमें अपने साथी के बारे में बात करनी होगी।
0 comments:
Post a Comment