क्या पढें हमारे छात्र ?
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने शनिवार को यहां चिंता व्यक्त किया कि सरकार ने मानविकी के विषयों के अध्यापन को प्रोत्साहित करना लगभग छोड़ दिया है और विज्ञान और तकनीक के विषयों पर बहुत तेजही से प्रोत्साहित करना आरंभ किया है। उन्होंने कहा कि ‘समझ में नहीं आता कि इससे समाज और विचारों का विकास कैसे होगा?समाज और मानव जाति के लिये विरोधी विचार और विचारों का क्रिटिकल एनालिसिस जरूरी है।’ उनकी इस चिंता का प्रतिबिम्ब विख्यात मनोविज्ञानी अर्थर मार्कमैन के उस कथन में दिखता है कि ‘क्रिटिकल थिंकिंग को विकसित होने का अवसर देना ओर ओर उसे बढ़ावा देना समाज के विकास के लिये जरूरी है। आज हमारे नौजवानों की सबसे बड़ी मुश्किल है कि वे बिना शिक्षा और उम्मीद के व्यस्क हा जा रहे हैं , नतीजतन वे विपथगामी हो जा रहे हैं।’ समाज को चैतन्य बनाने के लिये इन विद्वानों की चिंता विचारणीय है। अभी हाल में केरेन कोहिन लोक और सारा बेन डेविड ने एक शोध में पाया है कि विज्ञान के छात्र आतंकवाद आहैर कट्टरवाद की ओर ज्यादा मुड़ रहे हैं। अमरीकी फेडरेल ब्यूरो की एक रपट में भी यह पाया गया है कि कट्टरपंथी संगठनों में ज्यादा नौजवान वही है जिनहोंने विज्ञान आाधारित विषय जैसे कम्प्यूटर साइंस, इंजीनियरिंग , मेडिसीन या भौतिकी पढ़ी है। मानविकी या साहित्य की पृष्ठभूमि वाले नौजवानों की संख्या नगण्य है।उक्त रपट में कहा गया है कि इन विषयों के छात्रों को आतंकी संगठन इसलिये निशाना बनाते हैं कि वे तकनीकी सम्पन्न कुशाग्र बुद्धि के युक्त होने के साथ साथ उनमें वैचारिक विवेचनात्मकता का अभाव रहता है। मशहूर समाजशास्त्री डा. एन करीम के मुताबिक ऐसे नौजवानों में तऋयों की विवेचना करने का हुनर नहीं होता और वे किसी बात को तर्कपूर्ण ढंग संे तौल नहीं सकते और उसे सही स्वीकार कर लेते हैं। पांगलादेश के रैपिड एक्शन बटालियन के ए डी जी कर्नल अनवर लतीफ के हाल में वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक बयान में कहा गया है कि ‘चाहे जो भी इस्लामिक आतंकी संगठन हो वे विज्ञान के छात्रों की ज्यादा भर्ती कर रहे हैं।’हिल में ब्रिटिश कौंसिल द्वारा प्रकाशित एक रपट ‘इम्मूनाइजिंग द माइंड’ में डियेगो गम्बेटा ने लिखा है कि यूरोप , मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अमरीका के 59 प्रतिशत आतकी इंजीनियरिंग, मडिसिन ओर विज्ञान की अन्य शाखाओं में तालीमयाफ्ता हैं। ट्यूनिशिया के आतंकियों पर किये गये एक अध्ययन में भी यही अनुपात पाया गया है।
इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि विज्ञान के छात्र बेशक कुशाग्र बुद्धिवाले होते हैं पर वे विचारवान नहीं होते। विज्ञान के सिशक्षण की संस्कृति ने सही और गलत की बाइनेरी में सबका समाधान कर दिया पर इसने किसी भी तथ्य को तर्कपूर्ण ढंग से विवेचित करने का हुनर समाप्त कर दिया। 2014 में आई इस के नेता अबू बकर अल बगदादी ने डाक्टरों और इंजीनियरों से अपील की थी कि वे उसकी नयी खिलफत में शामिल हों। उस समय इस बात पर चर्चा हुई थी और लोगों का निष्कर्ष था कि ‘यह अपील खिलाफत की जनता के कल्याण के लिये है। बाद में पाया गया कि इनका उपयोग आतंकवाद के लिये किया जा रहा है क्योंकि ये किसी बात पर मी मेख नहीं निकालते।’ मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के बिटिश सलाहकार मार्टिन रोज ने हाल में मध्यपूर्व में शिक्षा की विदा पर एक शोदा प्रस्तुत किया था जिसमें कहा गया था कि विगत दो तीन वर्षों से मध्य पूर्व में खास कर अरब विश्व में छात्र मानविकी पढ़ने पर जोर दे रहे हैं जबकि उन्हें मालूम है कि इससे रोजगार की संबावना ब्गहुत कम है और शिक्षण भी स्तरीय नहीं है। इस प्रवृति से मध्य पूर्व मे जेहादी गतिविधियों में गिरावट आ रही है और इस्लामिक कट्टरपंथी संगठनों को भर्ती में दिक्कतें आ रहीं हैं। यही कारण है कि वे अब इसके लिये दक्षिण एशिया की ओर रुख कर रहे हैं और भारत, पाकिस्तान तथा बंगलादेश से नौजवानों को रेडिकलाइज कर रहे हैं। सुनकर हैरत होती है कि आई एस ने अपने नियंत्रण वाले इलाके से फाइन आर्ट, कानून, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र इत्यादि विषयों की पढ़ाई बंद करवा दी है। अरब विश्व में मानविकी के अध्ययन को हतोत्साहित किये जाने के इन प्रयासों की गंभीरता को भांप कर ही 2003 में राष्ट्र संघ मानव विकास रपट (यू एन ह्यूमन डेवेलपमेंटड रिपोर्ट) में कहा गया था कि ‘अरब के पाठ्यक्रम को देख कर पता चलता है कि वहां तार्किक और विवेचनाशील चिंतन के बदले समर्पण, आज्ञाकारिता, मातहती और अनुपालन वृत्ति को बढ़ावा दिया जा रहा है।’ मार्टिन रोज ने अपनी रपट में कहा है कि ‘विज्ञान के अध्ययन से एक खास प्रकार का माइंड सेट विकसित होता है। विज्ञान का एक छात्र पहले पूछता है कि बहस क्यों की जहाय जब एक सर्वोत्तम समाधान उपलब्ध है, दूसरे कि, वह जोर देता है कि क्या सबलोग यदि तर्कशील हो जायेंगे तो समस्याएं सुलझ जायेंगी।’ सलाफी और जेहादी आदर्श का मूल भी तो यही है।
भारत में भी सरकार ने मानविकी के शिक्षण को धन में कटौती कर उसे हतोत्साहित करना शुरू कर दिया है। देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञानेत्तर विषयों में एम ीफिल और पीएच डी की सीटें बहुत कम कर दी गयीं हैं। निराश छात्रों का हुजूम चारों तरफ देखा जा सकता है। यही नहीं , एक खास आडियॉलोजी के विरुद्ध सोचने वालों को प्रताड़ित तक किया जा रहा है। समाज विज्ञान के अनुसार यह ना केवल सामाजिक माइंडवाश की प्रक्रिया है बल्कि एक बड़ी साजिश की शरुआत भी हो सकती है। प्रो गिरीश्वर मिश्र ने हालांकि कोई ऐसी चेतावनी नहीं दी पर उनकी जिता और विषयों में कटौती के दुष्परिणामों के प्रति बेचैनी तो साफ दिख रही थी।
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