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Sunday, April 2, 2017

चुनाव और लोकतंत्र

चुनाव और लोकतंत्र

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को जनादेश से वामपंथी, उदारवादी और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी राजनीतिक दल सदमे में हैं। सब यही जानना चाह रहे हैं कि लोगों ने खासकर गरीबों ने एक ऐसी पार्टी को क्यों वोट दिया जिसने नोटबंदी जैसा घातक कदम उठाया था । यह चकरा देने वाला परिणाम चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिज्ञों सकते में डाल दिया, वे अवाक रह गए। उनका मानना था कि लागूं को बहकाया गाया है और लोग भोलेभाले हैं। पूरी दुनिया में ऐसी राजनीतिक घटना इसासे पहले केवल 1953 में पूर्वी जर्मनी हुई थी, जब तत्कालीन सरकार ने मजदूरों के हक से जुड़े एक आंदोलन पर पाबंदी लगा दी थी।उस समय चुनाव में उस सरकार का चुना  जाना असंभव सा था पर उसी सरकार को वोट मिले। भारत में भी कुछ वैसा ही हुआ है। लेकिन यहां दूसरा पक्ष , विजयी भा ज पा, भी भ्रम में है। वह इस विजय को लोगों के निर्णय या समझदारी का उदाहरण मान रही है। वह समझ रही है कि नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक एकदम सही था और उसपर उंगली नही उठाई जा सकती है। लोगों को यानी मत दाताओं को बहुत ज्यादा समझदार या एकदम  भोलाभाला समझना दोनों बहुत सही नहीं है। इसके लिए लोगों के व्यापक सामाजिक संदर्भों को समझना होगा। भारतीय समाज जाती, वर्ग, धर्म , लिंग और संस्कृति के आधार पर बहुत ज्यादा विभाजित है। खासकर , संस्कृति युक्तिपरक विचारों पर भारी प्रभाव डालती है।इन गुणकों को समझे बगैर लोग सीधा निष्कर्ष पर चले आते हैं।यही कारण है कि 2014 के चुनाव और इस बार के चुनाव को सांप्रदायिक नजरिये से देखा गया जबकि 2004 , 2009 , दिल्ली और बिहार के चुनाव को धर्म निरपेक्षता के चश्मे से देखा गया। इसमें भी वास्तविकता है पर महत्व पूर्ण प्रश्न है कि मतदाता साम्प्रदायिक होने और धर्मनिरपेक्ष होने का विकल्प कैसे चुनते हैं। इस तरह के विचार से एक समस्या पैदा होती है कि हम लोकतंत्र को चुनाव रूप में देखने लगते हैं। इसके फलस्वरूप हैम उन बदलाव को नहीं देख पाते जो व्यापक आर्थिक परिवर्तनों के कारण समाज में आ रहे हैं। यही कारण है कि चुनाव के नतीजे सकते में डाल देते हैं। अभी हाल में यू पी में कथित प्रगतिशीलों के साथ जैसा हुआ। जो लोग चुनाव के माध्यम से सामाजिक बदलाव लाना चाहते हैं वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि चुनावी रस्साकसी के नीचे की जमीन बदल रही है। अतएव यह समझना गलत होगा कि किसी चुनाव में बहा ज पा की पराजय का अर्थ जनता ने संपरतदायिकता को खारिज कर दिया है और साथ भी किसी चुनाव में कांग्रेस की विजय का यह अर्थ नहीं है कि मतदाता समूह धर्मनिरपेक्षता की ऊपर झुक रहा है। विगत ढाई दशक में हमारे देश में हिन्दू बहुलतावादी राष्ट्रवाद का उभार हुआ है और यह चुनावी ऊर्जा के स्वरूप में आ गया है।लेकिन यह परिणाम जो अभी दिखा है वह कई दशकों के सामाजिक परिवर्तनों का नतीजा है। इस बहुलतावादी राष्ट्रवाद को हम अगर स्टुअर्ट हॉल को मानें तो यह सत्तावादी लोकशासन है।सत्तावादी लोकशासन दरअसल आर्थिक और राजनीतिक विकास के संकट से उत्पन्न पृथक और विषम मोहभंग को समाहित कर देने की क्षमता है।इसका मतलब यह नही है कि समाजवाद या धर्मनिरपेक्षता अथवा जाति विरोधी आदर्श इत्यादि की अवधारणा समाप्त हो गई या उसके दिन लद गए।वास्तविकता तो यह है कि इन आदर्शो ने व्यवहारिक तौर पर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करने में कामयाबी नही हासिल कर सकी  जिससे यह आज की शिक्षा , संस्कृति और आर्थिक ढांचे को वास्तविक समानता के धरातल पर स्थापित कर सके। यह चुनावी ताकतों के रूप में आगे बढ़ गई। चुनावों और आदर्शों के बीच कहीं तालमेल नही हो सका ताकि अन्य आदर्शवादी ताकतें भी वहां स्थापित हो सकें। लोगों को विकासशील विकल्पों के चयन से विमुख करने वाली वर्जनाएं असल में विवेचनात्मक विचार के प्रशिक्षण के अभाव में जन्मी हैं। आर्थिक दृष्टिकोण से नियंत्रित मीडिया और सांस्कृतिक मूलोयों के प्रभाव से युक्त शिक्षा प्रणाली से उद्भूत वातावरण वास्तविक लोकतंत्र के अनुकूल नही होता। यही कारण है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का वर्चस्व बढ़ रहा है। किसी भी सत्तावादी लोकशासन की  उपलब्धियों की वास्विकता बहुत ज्यादा अर्थ नही रखती है। लोग उन दावों को  सच मान लेते हैं। इस अवांतर सत्य पर ज्यादा तर्क वितर्क बेमानी हो जाते हैं। यहां समस्या यह नहीं है कि सच क्या है? यहां समस्या है कि सत्य और भ्रम एक ऐसी पद्धति से ग्रस्त है इसमें विचारों का स्थान नहीं होता और एक ऐसी सोच विकसित हो रही है जहां आर्थिक  नीतिगत विचार मुनाफे पर आधारित है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में भा ज पा के 10344 वाट्सएप ग्रुप भ्रामक सूचनाएं फैलाते है और लोग मान लेते हैं। पढ़े लिखे लोग भी इस अवांतर सत्य को स्वीकार कर लेते हैं। उत्तर प्रदेश में मिले जनादेश को लोग " मोदी मैजिक" कह रहे हैं। यही लोग लोकतंत्र के अवक्षरण में लगे हैं। यहां स्थानीय दंगों के माध्यम से साम्प्रदायिक ध्रवीकरण की लगातार कोशिशें चल रहीं हैं। एक ऐसा मुल्क जहां जाति प्रमुख तत्व है और जहां " मोदी मैजिक" का कीर्तन चलता हो उस देश में जाति भेद को समाप्त करने की बात चल रही है। बिना यह जाने की भावुक आख्यानों के बल पर इस देश में जातीय जटिलताओं को " सूक्ष्म प्रबंधन" किया जाता है और इस प्रबंधन के बल पर सत्तावादी लोकशासन और बहुलतावादी राष्ट्रवाद के मिले जुले स्वरूप के अवांतर सत्य को वास्तविकताओं  की तरह पेश किया जाता है। अगर लोकतंत्र के इस अभिशाप को खत्म करना है तो सबसे पहले नई सामाजिक स्थिति का निर्माण कर नए विचार से सम्पन्न नए लोगों का समाज गढ़ना होगा जो चुनाव में विजय से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।

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