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Thursday, April 13, 2017

जब हमारे नेता निराश करते हैं

जब हमारे नेता  निराश करते हैं 
नेताओं में दूरदर्शिता  के अभाव और उनमें  पुख्ता फैसले लेने की क्षमता में कमी के कारण समाज में कुंठा और बेचैनी बढ़ती है। दुनिया के कई देशों की तरह भारत भी इन दिनों उसी सामाजिक बेचैनी का शिकार होता जा रहा है। देश में कश्मीर की पत्थरबाजी से लेकर राजस्थान में गौरक्षा के नाम पर मार पीट या फिर ओडिसा में अनदेखा फसाद या बंगाल में जुलूस के दौरान भारी तनाव उसी असंतोष और बेचैनी के लक्षण हैं। हमारी राजनीति स्वार्थ के चक्रवात में उलझी हुई है , आर्ट व्यवस्था उबड़ खाबड़ रास्तों से गुजर रही है और चकरा देने वाले तकनीकी बदलाव हो रहे हैं। भविष्य कैसा होगा यह कहना मुमकिन नहीं है।बहुत कुछ हमारे वश में नही है और हैम बहुत कुछ ऐसा चाहते हैं जिससे शांति से जी सकें। अज्ञात और मुकद्दर की ताकत को मानते हुए हममें से अधिकांश लोग यह उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता हमे इस स्थिति उबार लेंगे जो कि पहले से बहुत जटिल है तथा उनके बारे में कुछ कहा भी नहीं जा सकता है। परंपरागत नेतृत्व की खूबियां और उस खास नेता द्वारा अतीत में किये गए अच्छे काम इस बात की गारंटी नहीं है कि वह शीर्ष पदों पर लंबे समय तक सही कार्य कर सकेगा। यह ज़रूरी नहीं है कि वह खास नेता देश को प्रगति के पथ पर लेकर शीर्ष तक पहुंचेगा। आज के नेता में निर्णय लेने का कौशल कुछ अलग होना ज़रूरी है। यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि आज दुनिया भर में नए जमाने के नेता का अभाव है। यह " नेतृत्व उद्योग " जिसमें अरबों डॉलर लगे हैं आज गभीर संकट से गुजर रहा है। आज के नेतृत्वक में गुणवत्ता तबतक नही विकसित होगी जबतक जनता उसके विओकास क्रम का माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण नहीं करेगी।एक तरफ तकनीकी क्रांति से पैदा होने वाली अव्यवस्था और दूसरी तरफ दूरदर्शिता के अभाव वाले अच्छे नेताओं की कमी हर जगह नेतृत्व का व्यापक शून्य पैदा कर रही है। यह शून्य जिन नेताओं से भरा जा रहा है वे हमें संपन्नता की ओर ले जाने के बदले दलदल की ओर हांक रहे हैं। इन नेताओं की सबसे बड़ी खूबी है बड़ी बड़ी बातें करना पर जब समाधान का वक्त आता है तो जटिल समस्याओं के मामूली समाधान लेकर खड़े नजर आते हैं।बढ़ती बेरोजगारी और दिनोदिन व्यापक होती आर्थिक असमानता की सार्वजनिक चिंता तथा अनिश्चयता के कर्तान्तिक क्षणों में भय , क्रोध और कुंठा जैसी प्रबल मानवीय भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले ये नेता अक्सर विपक्षी नेताओं  पर भारी पड़ते हैं। दूसरों का उपहास करते हैं और खुद की मर्दानगी का प्रदर्शन। डोनाल्ड ट्रंप द्वारा विरोदी नेताओं का उपहास और हमारे अपने नेता द्वारा 56 इंच के सीने के बखान विस्का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसासे यह आशंका पैदा होती है कि इसी तरह के नेता और भी कई देशों में आने वाले हैं तथा विश्व जीवन पर सामाजिक आर्थिक अव्यवस्था दुष्प्रभाव बढ़ता जाएगा और साथ ही बढ़ता जाएगा राजनीतिक विक्षोभ। इस प्रक्रिया में जो लोग हाशिये पर बैठने लायक थे वे मुख्यधारा में आ गए और जो कुछ असामान्य था वह सामान्य समझा जाने लगा।
इन निराशाजनक हालातों के बावजूद यह कहना गलत होगा कि भविष्य भ निराशापूर्ण होगा। नए युग के नेताओं के आने की उम्मीद की जा सकती है। इतिहास के संकटपूर्ण कालखंड में ऐसा पहले भी कई बार हुआ है। आज के तकनीकी क्रांति के दौर में निर्णकय करने के तंत्र को अत्यंत शक्तिशाली रूप में विकसित करना सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।आज के नेता के लिए सबसे ज़रूरी है कि वह जानता के बदलते मूड का आरंभ में ही आकलन कर ले और उसके सृजनात्मक प्रणालन का निर्णय कर ले। तकनीक अब रामलीला मैदान या ब्रिगेड परेड ग्राउंड की रैलियों से बहुत आगे बढ़ चुकी है । उस समय  भीड़ या तालियों की गूंज जनता के मूड को देशाति थी पर आज सोशलमीडिया जनता का मूड बनाते बिगाड़ते हैं। जिनके विश्लेषण से नेता जनता के मूड का आकलन कर सकता है और उस आधार पर फैसले कर सकता है। लेकिन केवल इंटरनेट और डाटा ही विश्लेषण और निर्णय के लिए ज़रूरी नहीं हैं। नेता की अंतः चेतना भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। भारत जैसे देश जकहाँ परंपरागत विश्वास, आस्था और रस्मोरिवाज आज भी निर्देशक तत्व हैं वहां चेतना विहीन निर्णय आत्मघाती हो सकता है।

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