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Monday, April 17, 2017

जातियों से जुड़ी सियासत

जातियों से जुड़ी सियासत 
हमारे समाज में कहावतों वाला आम आदमी जनता है कि सरकार जब कभी नई संस्था नया विभाग गठित करती है तो वह कुछ नहीं करता है या कई बार बहुत कुछ कर डालता है। सरकार ने पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग(एन सी बी सी)   की जगह एक नया आयोग बनाने का फैसला किया है जिसका नाम रखा जा रहा है शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ा वर्ग आयोग ( एन सी एस ई बी सी)। अगर सामान्य समय होता तो ऐसे मौके पर केवल " वेट एंड वाच" की नीति अपनाते पर यह सामान्य समय नहीं है।यह समय है डोनाल्ड ट्रम्प के अवांतर सत्य ( पोस्ट ट्रुथ ) का या नरेंद्र मोदी के मुद्रा विधेयक का। ऐसे समय में एन सी    ई बी सी का इतनी जल्दीबाजी में कई संकेत देता है । हालांकि अभी भी यह आशा कायम है कि नया आयोग वह बहुत कुछ कर सकता है जो पुराने ने नहीं किया या नहीं कर पाया। इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तावित आयोग और वर्तमान आयोग के सही अंतर को जानने से प्राप्त होगा। अभी तक इस बारे में सरकारी तौर पर कुछ नही बताया गया है पर मीडिया में चर्चा है कि नये आयोग को सांविधानिक मान्यता हासिल होगी जैसी की अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग को हासिल है। यह जो कानूनी अंतर है वह प्रस्तावित आयोग के काम काज कोई बहुत बड़ा बदलाव नही ला सकता है पर इसके बहुत खास सियासी नतीजे हो सकते हैं। इसका संभावित प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि मोदी शासन का इस मामले में भविष्यत एजेंडा क्या है? क्या वह मर्यादित है या महत्वाकांक्षी  है ?  अगर यह मर्यादित है तो नए आयोग को सरकार अनुसूचित जाति राष्ट्रीय आयोग के समकक्ष नहीं रख सकती है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा और कई धाराएं जोड़नी होंगीं। पहला की अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में संशोधन की जिम्मेदारी सरकार के हाथों से निकल कर संसद के हाथों में आ जायेगी। दूसरे कि  हर राज्य के अपने ओ बी सी की सूची बनाने का अधिकार है वेह खत्म हो जाएगा एयर यह हक़ संसद के पास आ जायेगा। कई विश्लेषकों का मानना है कि सरकार की मंशा यही है। इसका सीधा राजनीतिक लाभ यह होगा कि निर्वाचकीय तौर पर ताकतवर जाती समूहों जाट या मराठा या पाटीदार जैसे कई जाती समूहों की मांग निरर्थक हो जाएगी , क्योंकि वे ओ बी सी हैं या नहीं यह राज्य सरकार नहीं वरन संसद तय करेगी। अब चूंकि अधिकार संसद  के पास होगा तो चुनाव के दौरान विरोधी दल जातीय मांगों को हवा ना दे सकें। यही नही इससे सत्तारूढ़ दल को भी अपनी नाक बचाने का बहाना मिल जाएगा। यह देखने में बड़ा मर्यादित एजेंडा लगता है क्योंकि इसासे खेल के नियम नहीं बदलते। तार्किक तौर पर इसे सकारात्मक एजेंडा कह सकते हैं।
लेकिन इसमें खतरा यह है कि यह अति महत्वाकांक्षी योजना भी कही जा सकती है। कहा तो यह जा रहा है कि सरकार संविधान की धारा 366 में संशोधन करना चाहती है और पिछड़े वर्ग की परिभाषा घुसाना चाहती है। हालांकि नई परिभाषा क्या होगी यह अभी अंदाजा नहीं है। यह एजेंडा जाट , मराठा या पाटीदार जैसे ताक़तवर जातिसमूहों को शामिल कर सकता है साथ ही आर्थिक तौर पर पिछड़े उच्च वर्ग को भी शामिल किया जा सकता है। इसासे हो सकता है कि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को बढ़ाया जाय और आर्थिक संवर्गों को भी औपचारिक मान्यता मिल जाये। इसासे वोट का लाभ होगा जो सत्तारूढ़ दल को जमे रहने में सहायता करेगा। यह अत्यंत  अविवेक भरा है। यह कहा जा सकता है कि प्रस्तावित आयोग अगर मर्यादित रहेगा तो बेरोजगारी के महासमुद्र में बूंद साबित होगा और अगर महत्वाकांक्षापूर्ण होगा तो समाज के लिए घातक हो सकता है। इसासे अनुसूचित जाति-जनजाति को जहां एक ओर प्रभावित करेगा वहीं  जातियों के प्रति शासन की मंशा में अंतर्विरोध पैदा करेगा। इसासे ना केवल हानि होगी बल्कि कई जातियों को लाभ से वंचित होना पड़ेगा क्योंकि आरक्षण की श्रेणी में जितनी ज्यादा जातियां शामिल होंगी काभ उतना ही घटता जाएगा। आरक्षण को कल्याणकारी कार्यक्रम के तौर पर मान्यता दे कर और इसकी भाषा के जरिये जो सामाजिक विभेद पैदा कर हैमाने खुद को ही इतना  छला  है कि जो जिस काम के लिए है उसके नाम भरोसा ही नहीं रहा।यह जब सामाजिक भेदभाव और असमानता के चश्मे से देखा जाता है तो केवल वर्तमान सत्ता ही दोषी नही दिखती। अतीत और वर्तमान की सरकारों की समय से पर साज़िशों का यह नतीजा है और हो सकता है कल संघियों और गो रक्षकों को भी आरक्षण मिलने लगे।

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