पुलिस सुधार की ज़रुरत?
पुलिस शब्द पूरी दुनिया में आतंक और भय का पर्याय है. विख्यात लेखक अर्थर कानन डायल ने कहा है की “ दुनिया में पुलिस सबसे वीभत्स है.” लेकिन साथ ही अल्फ्रेड हिचकॉक ने कहा है कि “ सभ्य समाज को पुलिस की ज़रुरत है केवल अपराधी और असभ्य समाज ही पुलिस के बिना पनप सकते हैं.” भारत में पुलिस व्यवस्था पर अशोभनीय टिपण्णी करना कुछ लोगों का शगल है बगैर यह जाने कि पुलिस के एक सिपाही से लेकर सर्वोच्च अधिकारी तक किस मानसिक, शारीरिक और सामाजिक दबाव में अपना काम करता है ? इस बार केंद्र सरकार ने पुलिस में सुधार के लिए 25 हज़ार करोड़ रूपए की मंज़ूरी दी है. दरअसल यह देश में अबतक का सबसे बड़ा पुलिस आधुनिकीकरण का प्रयास है. यह राशि पुलिस व्यवस्था के लिए है यानी वहां , संचार सुविधा, हथियार , फोरेंसिक सपोर्ट इत्यादि के लिए है. सुधार की इस योजना का कोई दस्तावेज सर्वंजिक नहीं किया गया है अतेव जनता में इसे लेकर दुविधा है. इसपर कई सवाल उठ रहे हैं.यहाँ सबसे जरूरी है कि सुधार की बड़ी बड़ी बातों से अलग पुलिस का गंभीरता से लोकतंत्रीकरण हो. राजनितिक आकाओं के हुक्म मानने वाले एक तंत्र के रूप में कुख्यात इस व्यवस्था को रूल ऑफ़ लॉ के प्रति जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए लेकिन इस और कदम बढाने से केंद्र और राज्य दोनों हिचकते पाए जाते हैं. जबकि इन दिनों अपराध और अपराध करने वालों के स्वरुप में भारी बदलाव आ रहा है. कुछ साल पहले तक मार पीट या फसाद या चोरी- डकैती – खून वगैरह ही अपराध थे और उनकी गवेषणा के तरीके खोजे गए थे. पर अब तो वित्तीय धोखाधडी से लेकर साइबर अपराध जैसे अपराध रोज अपने स्वरुप बदल रहे हैं. भ्रष्टाचार मिटाने की जितनी बात हो रही है वह रक्तबीज की तरह उतनी ही तेजी से फ़ैल रहा है तथा समाज के हर वर्ग को आक्रान्त कर रहा है. सात५ह ही उच्च स्तर पर अधिकारों का दुरूपयोग एक बड़ी समस्या है. डी जी और कमिश्नर स्तर के अफसरों के तबादले और तैनाती मुख्यमंत्रियों की मर्जी से होती है. जो अफसर जी हुजूरी नहीं करता उसे पद पर रहते हुए भी अधिकार हीन बना दिया जाता है. इसके लिए नए पद तक गढ़ दिए जाते हैं. ईमानदार आई पी एस अफसरों को पुलिस व्यवस्था के लिए किराए पर लिए जाने वाले वाहनों के हिसाब किताब के लिए तैनात कर दिया जाता है. इसके चलते पूरी व्यवस्था की प्रवृति ही कुछ अजीब हो गयी है. इसलिए व्यवस्था में सुधार की दिशा कुछ ऐसी होनी चाहिए जो इस प्रवृति में सकारात्मक परिवर्तन लका सके. पुलिस एक ऐसा तंत्र है जिसका आम जनता से सीधा संपर्क है. उसे एक ही समय में समाज की विसंगतियों, राजनितिक तंत्र की अकड़ और क़ानून की पेचोखम वाली अँधेरी गलियों से गुजरना होता है. राजनितिक नेताओं की गलत्कारियों पर ऊँगली रखने वाले पुलिस अफसर को दण्डित होने की कहानियां तो इतनी आम हो गयीं हैं कि उसे लोगों ने कहना सुनना बंद कर दिया है. कई बार अपराधियों के साथ निर्दोष भी पकडे जाते है और उनके साथ भी वही होता है जो अपराधियों के साथ होता है. अब इसका लाभ वे भी उठाते हैं जो राजनितिक दुश्मानी को साधने की कोशिश में रहते हैं. यही नहीं शाट बहुत कम राज्यों में पुलिस प्रमुख के नियुक्ति और तैनाती का एक समय तय है. उस समय के पहले उस अफसर का तबादला नहीं हो सकता है वरना तो कई ऐसे हैं जो सदा बोरिया बिस्तर बांधे ही रहते हैं. इसके कारन वे स्वभावातः बदल जाते हैं और वह करने लगते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए. पोलसे सुधारों के पक्ष में राय रखने वाले या पुलिस के बारे में सकारात्मक राय रखने वाले कम ही मिलेंगे. जो जितने बड़े बौधिक हैं वे उतनी ही कमियाँ निकालेंगे. उनका मानना है कि अबतक जितना कुछ भी हुआ वह कागजों पर ही हुआ. पुलिस सुधार में सबसे बड़ी अड़चन है राजनीतिक स्वार्थ. लेकिन लोकतंत्र में इसे ख़त्म नहीं किया जा सकता है. लोकतान्त्रिक पुलिस सुधार का क्रियाशील आधार एक सशक्त समाज हो सकता है समाज निरपेक्ष पुलिस स्वायतत्ता नहीं. इसके लिए ज़रूरी है एक संवेदी और लोकोन्मुखी क़ानून तंत्र का निर्माण. यह प्रशासनिक सुधारों से संभव नहीं है. यह शुरुवात नियुक्ति के स्तर पर करनी होगी. पुलिस का एक आदमी पहले हमारे ही बीच से आया हुआ आदमी है. अतेव उसकी ज़रूरतों , संवेदनाओं और ड्राइव्स के बारे में समाजशास्त्र के उन्ही नियमों का पालन करना होगा जो आम मनुष्य के बारे में होता है. लेकिन होता क्या है कि सुधार के नाम पर उसे औज़ार और साधन तो दे दिए जाते हैं साथ ही पुलिस को सत्ता प्रतिष्ठानों से मुक्त कराने की कोशिश है. कोई इसे नागरिक संवेदी बनाने की बात नहीं करता. पुलिस सुधार के लिए यह सबसे ज़रूरी है. अतः पुलिस सुधारों में सामाजिक कल्याण को जोड़ना ज़रूरी है.
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