जी एस टी, वोट बैंक और मोदी सरकार की दुविधा
अजीब संयोग है कि जिस दिन मोदी जी ने जी एस टी को थोड़ा ढीला किया उसी दिन जापानी लेखक काजुओ इशिगुरो को उनके उपन्यास “ द रिमेंस ऑफ़ द डे “ को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई. इस उपन्यास का कथानक पाखंड के मनोविज्ञान का विश्लेषण है.इसका नायक इसका नायक अपनी हीनता को बड़ी बड़ी बातों और लम्बी लम्बी डींग से छिपाता है.सम्पूर्ण कथानक पाखंड पूर्ण आत्मप्रदर्शन का लाजवाब चित्रण है. अब कथा से हकीकत पर आयें. अगर आप जी एस टी पर गौर करें तो कुछ ऐसा ही लगेगा.अबसे 90 दिन पीछे जाईये एक भी ऐसी आवाज नहीं मिलेगी जो जी एस टी के विरोध में हो. सब उसकी प्रशंशा में बोल रहे थे. महत्वपूर्ण मंत्री और राजस्व अधिकारी इस बात को समझाने में जुटे थे कि कैसे “ इनपुट टैक्स क्रेडिट “ कैसे भरात को दुनिया के सबसे सस्ते उपभोक्ता बाज़ार में बदल देगा. देश की फिजां ही बदल जायेगी. भा ज पा के प्रवक्ताओं ने लम्बे लम्बे प्रवचन दिए कि टैक्स चोरों का सत्यानाश कर देगा जी एस टी. हालांकि वे जानते थे कि इसमें कई गड़बड़ियां हैं. सरकारी अर्थशास्त्रियों के हुजूम ने काजुआ के उपन्यास के नायक की तरह इसके पाखंड पूर्ण विश्लेषण में लगा था कि किस तरह भारत में रोजगार प्रदान करने वाले सबसे बड़े क्षेत्र लघु और माध्यम दर्जे के उद्योगों को निचोड़ देने से जी डी पी की गति बढ़ जायेगी. आधीरात को जी एस टी की मेगा लांचिंग के फकत तीन महीने बाद ही सरकार को इसके कुछ प्रावधानों को वापस लेने के लिए बाध्य होना पडा. छूट की सीमा को बढाने और 1.5 तक का कारोबार करने वालों को हर महीने रिटर्न जमा करने के प्रावधान के बजाय अब तीन महीने पर रिटर्न जमा करने की छूट मिल गयी. इससे 90 प्रतिशत व्यवसाइयों को लाभ मिलेगा. यही नहीं जी एस टी कोंसिल ने दरों में तीन महीने में तीन बार संशोधन किया है. यह खुद में बताता है कि जी एस टी क़ानून कितना दोषपूर्ण था. जी एस टी को ढीला करने की घोषणा में एक मुहावरे का इस्तेमाल किया गया , वह था “ वास्तविकताओं के प्रति संवेदनशीलता.” इस मुहावरे की रौशनी में देखा जाय तो वास्तविकताओं ने जी एस टी को “ नन रिफार्म “ साबित कर दिया. यहाँ सवाल उठता है कि सरकार उन समस्यायों को उस समय क्यों नहीं देख सकी जो अब देख रही है. नाज़रंदाजगी कोई कारण नहीं हो सकता तो दूसरा कारन है अहंकारपूर्ण पाखंड या फिर हेकड़ी ही कारण हो सकती है.
अगस्त के मध्य में जब जी एस टी रिटर्न की तारीख बढ़ाई गयी तब ही महसूस होने लगा की बड़े धूम धाम से जो कर सुधार लाया गया है उसमें कोई गड़बड़ी है. बिहार के उप मुख्यमंत्री की देख रेख में जी एस टी में सुधार के लिए एक समिति बनी. यह सियासत और अर्थ व्यवस्था के गठजोड़ का पतन था. हाल में राजस्व विभाग के सर्वे जी एस टी के बारे में काफी कुछ कहा गया है और यह सरकार के लिए भी एक सबक था. सर्वे में साफ़ कहा गया था कि छोटे और मझोले व्यापारी इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं. राज्य राजस्व विभाग भी इसे समझने में सक्षम नहीं पा रहा था. राजनितिक क्षेत्र भी आतंकित था और व्यापारी चुप चाप मोदी के खिलाफ हवा बना रहे थे. गुजरात में राहुल गांधी के रोड शो पर आर एस एस की रिपोर्ट ने भा ज पा को सकते में डाल दिया और यह महसूस होने लगा कि जी एस टी की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
अब जी एस टी को बहुत ढीला कर दिया गया ताकि व्यापारियों का आक्रोश थम सके और वे चुनाव में भा ज पा के सम्बन्ध में सोच सकें. नोट बंदी के बाद जी एस टी को आसान किये जाने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सरकार परिणामों के बारे में विचार किये बगैर जटिल सुधारों को लागू कर सकती है. नोट बंदी और जी एस टी जैसे दो दो व्यर्थ सुधारों से पता चलता है कि एक लोकप्रिय सरकार ज़मीनी हकीक़तों से कितनी असम्बद्ध है और लोगों की पीड़ा में भागीदार होने की बड़ी बड़ी बातें कितनी पाखंडपूर्ण हैं.
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