भा ज पा बदल रही है पैंतरा
भा ज पा ने देश की अधिकांश जनता की नब्ज को समझ लिया है और उसी का लाभ उठा रही है. पार्टी को पूरी तरह मालूम है कि यहाँ के लोग साधनहीन हैं और धन उनकी ललक है. इसीलिए अच्छे दिन का प्रालोभन और काले धन की जब्ती के बाद बैंकों में रुपया जमा करवाने का जुमला इत्यादि काम कर गया और मोदी नौजवानों के भगवान बन गए. लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं पर मोदी जी और उनकी टोली को यह तो पता चल गया कि पैसा कुछ भी करा सकता है. वह देश की जनता की लाइफ लाइन हैं. उसी से देश की जिंदगी धडकती है और अर्थ व्यवस्थ्गा देश की धड़कन का पैमाना है.. नोट बंदी , जी एस टी और बैंकों के बढ़ते कर्ज के साइड इफेक्ट से देश की धड़कन धीमी पड गयी है. इस धीमी धड़कन से सरकार चिंतित है. और वह अपना पैंतरा बदलती नज़र आ रही है. वैसे तब भी उसने पैसे को नहीं छोड़ा है.
आगे बढ़ने से पहले यह जानना बहुत ज़रूरी है कि पैसा है क्या और यह कैसे काम करता है. पैसा वह नहीं है जो हम नोट देखते हैं या सोने की शक्ल में तिजोरियों में बंद रहता है या जिसे हम काला – सफ़ेद कहते हैं. पैसा कोई ठोस वस्तु नहीं बल्कि एक विचार है और विभिन्न कारणों से लोग इस पर सोचने लगते हैं. जितना ज्यादा समय तक इस पर सोचते हैं वह उतना ही महत्वपूर्ण होने लगता है. यानी पैसा और समय में एक अंतर्संबंध है. हमारे देश में भारी असमानता है और बहुत काम लोगों की दौलत के बारे बहुत ज्यादा लोग सोचते हैं. अर्थशास्त्रीय व्याख्या के के अनुसार श्रम और समय से पैसे का सह सम्बन्ध है. पर भारत जैसे असमानतापूर्ण देश में स्ध्रम और समय के अनुपात में पैसा नहीं प्राप्त होता है. इसीलिए एक बड़ी आबादी सदा इसी दिशा में सोचती रहती है. यह सोच एक मेस्मेरिक असर पैदा करता है. राजनीति के कुशल खिलाड़ी इस असर को समझते हैं तथा इसे विभिन्न नारों बातों से और प्रगाढ़ कर देते हैं. शुरू से देखें गरीबी हटाने के नारे, रोज़गार पैदा करने के नारे, अच्छे दिन लाने के नारे इत्यादि सब इसी के बहुरूप हैं. ज़रा गौर करें चुनाव के दो तीन साल पहले से विदेशों में जमा भारतीय धन का भारी प्रचार किया गया. इतना ज्यादा कालाधन जमा है कि अगर वह भारत ले आया जाय तो सबके खाते में 15 -15 लाख रूपए जमा हो जायेंगे. भारतीय जनता कस्तूरी के मृग की भाँति रेगिस्तान में दौड़ती रही. जनता में का मोह पैदा कर मोदी गेम चेंजर हो गए. लेकिन अर्थ व्यवस्था की खात्राब होती हालत ने संदेह पैदा कर दिया. सर्जिकल स्ट्राइक का बवंडर, भ्रष्टाचार मुक्त शासन का तिलिस्म, डोकलम का खौफ, राज्यों में विजय की तालियाँ और विकास के गगनभेदी नारे कुछ भी जन्म ले रहे संदेह को नहीं रोक सके. आर्थिक महाशक्ति होने के सारे बनावती इंडिकेटर ज़मीन पर पड़े नज़र आरहे हैं. कहाँ तक आश्वासन था रोज्गान श्रीजान का उलटे रोजगार हीनता फ़ैल रही है. इमेज , आख्यान , मुखौटे वगैरह राजनीती वाहक हैं अगर ये ढहने लगें तो राजनीति भी ढहने लगेगी.एक बार विखंडन शुरू हुआ तो वक्त नहीं लगता है सबकुछ क्ल्हतं होने में . कांग्रेस और वाम पंथी दलों का उदाहरण सबके सामने है. पिछले डो महीनों में द्जो सर्वे की रपटें आयी हैं उनमें साफ़ पता चलता है कि मोदी जी पर से भरोसा घटने लगा है. एक वर्ग तो उन्हें नाकाम तक मानने लगा है. सरकार की चिंता की झलक इस बात से भी मिलती है कि खुद ही भंग आर्थिक सलाहकार परिषद् को 40 महीनों के बाद खुद बहाल कर रहे हैं हैं. इससे डो बातें ज़ाहिर होती हैं पहली कि प्रधान मंत्री को वित्त मंत्रालय के काम पर से भरोसा उठ गया और दूसरा कि प्रधान मंत्री में ताज़ा हालात को लेकर बौखलाहट है.
प्रधान मंत्री को यह अहसास होने लगा है कि शायद युवा इस बार झांसे में नहीं आय्र्न्गे तो अब चुनाव के कथन बदलने लगे हैं. जिन नौज़वानों की वे जमकर प्रशंशा करते थे अब उसद वर्ग को आहिस्ता – आहिस्ता किनारे कर रहे हैं. अब उन्ही नौ जवानों की उम्र की महिलायें हैं. यू पी में चमत्कार इसी कारण हुआ था. देश के 60 प्रतिशत आवंटि यू पी के ही हैं. 2014 का चुनाव युवाओं में उम्मीदों के उमड़ते सैलाब और नाज़वानों के सपनों का चुनाव था. अब गरीब किसानों के घर रोशन होने की उमीदों का चुनाव होगा. रोजगार सृजन और स्किल डेवलपमेंट के फ्लॉप हो जाने बाद सरकार की निर्भरता महिलाओं पर बढ़ने लगी है. उम्मीद है आने वाले दिनों में यह साफ़ पता चलजाएगा
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