सूर्यांश संभवो दीपः
भारतीय ज्ञान खंड में सर्वाधिक वृहद् आकार वेदों का है. वेड ज्ञान के पर्याय माने जाते हैं.ऋगवेद मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान का तूर्य है और इस वेद में सृष्टिकर्ता विरंची के बाद अगर सबसे ज्यादा वर्णन नही तो वह अग्नि का है. अग्नि व्याप्त है अंतरिक्ष में सूर्य और धरती पर प्रकाश के रूप में. विज्ञान भी मानता है कि प्रकाश ऊर्जा का रूपाकार है जो अग्नि दीप्त करता है और सूर्य अग्नि और प्रकाश का एकाकार है. ऋग्वेद में माना गया है कि भृगु ऋषि ने अग्नि की खोज की। वहीं से अग्नि संस्था का जन्म हुआ - इंद्र ज्योतिः अमृतं मर्तेषु. ''सूर्यांश संभवो दीपः'' अर्थात सूर्य के अंश से दीप की उत्पत्ति हुई। जीवन की पवित्रता, भक्ति, अर्चना और आशीर्वाद का दीप एक शुभ लक्षण माना जाता है। सूर्य के अंश से पृथ्वी की अग्नि को जिस पात्र में स्थापित किया गया वह आज सर्वशक्तिमान दीपक के रूप में हमारे घरों में है । कहते हैं यह शरीर पञ्च महाभूतों से बना है. वे महाभूत हैं – मिटटी, जल , अग्नि, वायु और आकाश. दीपक की रचना भी इन्ही महाभूतों से हुई है. दीपक एक प्रतीक है पिंड से ब्रह्माण्ड के संयोजन का. प्रकाश हमें देखने की शक्ति देता है। वस्तु की सही पहचान के लिये ज्योति आवश्यक है। बृहद आरण्यक उपनिषद में इसी लिये अंधकार से ज्योति की ओर जाने की कामना की गई है।
असतो मा सद्गमय
तमसो मां ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय
अमावस्या की रात दीपावली का भी एक खास वैदिक महत्व है। दीपक अंधकार को पराजित करता है और उसी दिन से प्रकाश बढ़ने लकाता है। अंधकार पराजित होने लगता है। अंधकार प्रतिदिन पराजित होता है। हर रात प्रकाश की विजय होती है। यह क्रम पूर्णिमा तक चलता है। हमारे अंदर अंधकार को पराजित करने की प्रेरणा देकर चांद धीरे से चला जाता है। एक पखवाड़े के लिये। फिर चांद आता है हमारे प्रयास को देखने। हर साल दिवाली हमारे प्रयास की सफलता का पर्व है। साल दर साल सफलता। सफलता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी जो कमल पर विराजती हैं। कमल यानी पंकज। पंक यानी अकर्मण्यता से अछूते रह कर कर्म करना और उससे धन की प्राप्ति ही तो लक्ष्मी का संकेत है। लक्ष्मी कोई देवी नहीं हैं दर्शन के अनुसार। उनके एक हाथ में धान्य जो धन है और दूसरे हाथ से निकलती मुद्राएं। मुद्रा खुद धन का प्रतीक है और धान्य परलोक में नहीं इसी लोक में होता है। लक्ष्म इसी लोक की देवी हैं। जहां-जहां तम वहां-वहां उसे पराजित करने के लिये दीप है। दीपोत्सव मनुष्य की कर्मशक्ति का गढ़ा तेजोमय प्रतीक है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है किसमस्त प्रकृति सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है। प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है हमारे भीतर। अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसके मुख से निकला-दिव्य सूर्य सहस्त्रांणि। हजारों सूर्य की दीप्ति एक साथ। भारतीय अनुभूति का ‘विराट’ प्रकाशरूपा ही है। पूर्वजों ने प्रकाश अनुभूति को दिव्यता कहा। बगैर परिवर्तन के नई आभा नहीं रची जा सकती। यदि बड़े परिवर्तन न संभव हो सकें, तो छोटे-छोटे बदलाव सृजन की दीपावली ला सकते हैं। हमें यहाँ निस बदलाव का सही अर्थ समझना होगा. यहाँ आकर भाषा असमर्थ हो जाती है और हम अध्यात्म की और मुड़ते हैं. भाषा वह बताने में असमर्थ है, जिसका वह दावा करती है. आज जो भाषा है या साहित्य है वह मूल अर्थों को स्थगित करता है प्राप्त नहीं करता. अर्थों को प्राप्त करने की यह अभीप्सा ही अन्धकार से प्रकाश की और महाभिनिष्क्रमण है- “तमसोमाज्योतिर्गमयः .” जो प्रकाश वाले में जाकर सत्य को जान लेता है उसे मृत्यु का भय नहीं होता – “ म्रितोर्माअम्रित्गमय ”. दीपावलीबिम्बों के रूप में अर्थों की तहों में जाने का प्रयत्न है। सत्य को जानने का प्रयास है – “असतोमासद्गमयः ”. दीपक कर्मशक्ति का गढ़ा प्रकाश मका बिम्ब है. प्रकाश यानी ज्ञान , प्रकाश यानी समृद्धि , प्रकाश यानी जीवन. हमारे मनीषियों ने कर्म साधना के बल पर इस रात को ‘‘दिव्य प्रकाश की शिखा’ बना दिया है. दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य और ज्ञान का समन्वय एक साथ स्थापित करती है। दिया लघुता का भी प्रतिक है और इस दिन वह लघुता भी सम्मानित होती है. दिया संवेदना को संवाद देता है और उसे सम्प्रेषण की स्थिति तक ले जाता है. उस सम्प्रेषण को जब हम समझेंगे तो हमें दिवाली का डिस्कोर्स समझ में आयेगा . दीवाली हमें समझाती है कि तम से मानव के संघर्ष की जिजीविषा क्या है?
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