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Monday, October 9, 2017

झूठ को स्थापित करने का अभियान

झूठ को स्थापित करने का अभियान

जिन विचारों तथा  आदर्शों  ने महात्मा गाँधी की ह्त्या करने के लिए नाथू राम गोडसे को प्रेरित और प्रतिबद्ध किया वही विचारधारा महात्मा गाँधी की ह्त्या को जायज बताने औरे नाथूराम को दोष मुक्त करने के अभियान में जुट गए हैं. विगत सात दशकों से इस विचारधारा के समर्थकों ने झूठ को इतना फैलाया कि भारत के बहुत से लोगों ने इसे सच मान लिया है. अब ये झूठ का और विस्तार कर रहे हैं तथा गाँधी जी की ह्त्या पर ही संदेह पैदा करने लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते गांधी जी की ह्त्या की फिर से जांच कराने के अनुरोध पर सुनवाई की और दुबारा सुनवाई के लिए 30 अक्तूबर की तारीख तय की है. सुरक्षा विशेषज्ञ एवं लेखक डा. एस के सैनी ने हँसते हुए यह जानकारी दी और दुखी लहजे में कहा कि “ सच को कितना झुठलायेंगे ये लोग  ये लोग और इस क्रम में देश का कितना पैसा बर्बाद करेंगे?” सचमुच यह हैरत  की बात है. पिछले साल भी इस तरह का एक आवेदन बम्बई हाईकोर्ट में दाखिल हुआ था पर अदालत ने उसे सुनने से ही इनकार कर दिया. अदालत से यह भी अनुरोध किया गया था कि जस्टिस कपूर आयोग की खोजों को रद्द किया जय और इसकी दुबारा जांच हो. 1969 में कपूर आयोग ने स्थापित किया कि गाँधी की ह्त्या में संघ का हाथ था और इसकी साजिश में सावरकर भी शामिल थे. इस स्थापना से संघ को बहुत परेशानी हो रही थी. जिस आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई उसमें कहा गया है कि गांधी जी की ह्त्या के समय बिरला हाउस में एक और गनमैन मौजूद था और ह्त्या उसी की गोली से हुई. जांच की रिपोर्ट के अनुसार गांधी को 9 मि मी की बेरेटा पिस्तौल से तीन गोलिया मारी गयेएं जो उनके सीने में दो-ढ़ाई फीट की दूरी  से तीन गोलियां मारी गयीं और नौ इंच की परिधि में सीने पर जाकर लगीं. गाँधी जी की मौत इन्ही गोलियों से हुई. साड़ी बातें आईने की तरह साफ़ हैं पर वक़्त के हाकिमों के लिए तकलीफदेह हैं और वे खुद को इतिहास बदलने की क्षमता वाला समझते हैं अतेव इतिहास को दुबारा लिखने की कोशिश की जा रही है. शासकों ने हर काल में ऐसी कोशिशें की हैं और कई बार वे कामयाब भी हुए हैं. सियासत में अपनी गलत्कारी पर पर्दा डालना और इसके लिए दूसरे को दोषी  बताना पुरानी परम्परा है. इसी को रोकने की कशिश और सत्य के संधान के लिए मीडिया की शुरुआत हुई. पहले तो मुख्या धरा की मीडिया से राजनीतिज्ञ उलझते नहीं थे और समाज को सच मालूम पद जाता था. पर अब जबसे सोशल मीडिया की शुरुआत हुई है और वह लोकप्रिय हुआ है तबसे झूठ 16के रूप में मुख्यधारा की मीडिया थी और वह वस्तुनिष्ठता का अनुकरण करती थी. अब ऐसा नहीं है. लोग मीडिया के अलावा अब सोशल मीडिया से भी सूचनाएं हासिल करने लगे हैं. पिऊ रिसर्च सेंटर की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में 62 प्रतिशत ही गया था. यानि 62 प्रतिशत लोग किसी भी झूठ के लिए उपलब्ध हैं. इनमें से कुछ लोग भी यदि उसे सच मान लिए तो फिर वह सच बन जाएगा. राजनीतिज्ञों के लिए तो यह वरदान साबित हो गया. ये अपने अजेंडा को इसके जरिये प्रचारित करने लगे. झूठ  को सच बनाना सरल हो गया. स्तान्फोर्ड विस्वविद्यालय के एक शोध के मुताबिक़ 80 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया पर मित्रों द्वारा भेजे गए सन्देश को सच मानते हैं. कुछ लोग सोशल मीडिया की ख़बरों का मूल्यांकन  करने में बुनियादी गलती कर बैठते है.समाज की इसी कमजोरी का राजनीतिज्ञ फायदा उठा रहे हैं.       

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