सेना में असंतोष : खतरे की घंटी
जब मोदी सरकार आयी थी तो उनके भक्त जनो ने जनभावनाओं को चिंतन और विवेचना से विमुख कर देश भक्ति के तिलिस्म में डालने के लिए सेना को हथियार बनाया था. सोशल मीडिया पर घायल सैनिकों की तस्वीर दिखा कर कहा जाता था कि “ जय हिन्द ” कहें. जब नोट बंदी हुई थी और लोग बैंकों के सामने कतार में खड़े होने पर रोष जाहिर करते थे तो कहा जाता था कि “ एक सैनिक आपके लिए सीमा पर खडा है और आप अपने लिए बैंको के सामने खड़े नहीं रह सकते.” लेकिन इन दिनों खबरें आ रहीं हैं कि उसी सेना में बेचैनी है, असंतोष है. इस असंतोष का सबसे बड़ा कारण है कि सिविल सर्विसेज के अफसरों के समतुल्य में उनके भी पद और आर्थिक सुविधायें. खैर यह अभी अफसर ग्रेड तक ही सिमित है और सेना की प्रभावशीलता पर इसका प्रभाव होता नहीं दिख रहा है. इसके अलावा एक और मामला है कि सेना में ख़ास कर अफसर स्तर पर भर्ती, पोस्टिंग, प्रोमोशन इत्यादि में जड़ता. यह मामला अदालत में भी है. हालांकि यह सेना के अंदरूनी प्रबंधन का मसला है लेकिन जब मामला कोर्ट में है और इससे सेना का आत्मबल प्रभावित हो रहा है तब उस जनता को इस के प्रति जागरूक होने का अधिकार है जिसकी भावनाओं का सेना के नाम पर दोहन किया जाता था. गत 12 अक्तूबर 2017 को प्रेस सूचना कार्यालय की एक विज्ञप्ति के मुताबिक़ यह मसला आर्मी कमांडर्स कान्फ़ेरेन्स में उठाया गया है. दर असल मामला यह कि सेना में कर्नल के ऊपर प्रोमोशन का बड़ा चक्कर है. एक अफसर को ऊपर जाने के लिए बहुत जूझना होता है. हर रैंक के लिए नियत रिक्तियां होती हैं और उसके लिए तरह तरह के अनुभवों की ज़रुरत होती है. यही नहीं नियुक्तियां कई हिस्सों में बनती होती हैं. ऐसे में कई बार होता है कि एक साथ बहाल हुआ एक ही तरह का अनुभव प्राप्त अफसर प्रोन्नति पा लेता है और दूसरा टापता रह जाता है. दूसरी बात है कि हर बैच के अफसरों के प्रोमोशन का तयशुदा अनुपात होता है और रिक्तियां भी उसी अनुपात में होती हैं पर इसमी एक मुश्किल है कि इस कार्य में मेजर के रैंक तक तो सब कुछ ठीक चलता है उसके बाद प्रोमोशन में कम्बैट डिविजन या हमलावर प्रभाग को ज्यादा तरजीह दी जाती है. यह भी ठीक चल रहा था पर 1999 में कारगिल युद्ध के बाद नियम बना कि कम्बैट में अपेक्षकृत नौजवान अफसर रखे जायेंगे. बस यहीं से असंतोष आरम्भ हो गया. क्योंकि इससे बीच की समानता ख़त्म होने लगी. एक ही बीच एक ही योग्यता का एक अफसर कहीं मेजर है तो दूसरा कहीं कर्नल हो गया. अब इसका नतीजा यह हो गया कि सेना में विगत 25 सालों से अफसरों का अभाव है. एल ओ सी पर थल सेना के कम से कम 21 अफसरों की नियुक्ति होनी चाहिए लेकिन वहाँ 13 -14 लोगों से काम चलाया जता है. ये अफसर भी दूसरे दूसरे प्रभागों से लाये जाते हैं , यहाँ तक कि अकादमी में जिनके कोर्स पूरे नहीं हुए है उन्हें भी तैनात कर दिया जाता है. सभी अफसरों के लिए 5 से 10 साल के सेवा के बीच 30 महीने राष्ट्रीय राइफल्स और असम राइफल्स में गुजारना होता है ताकि उन्हें आतंक्ज्वाद के मुकाबले का अनुभव हो सके. इसके बाद उन्हें इन्फैंट्री भेजे जाने का सबसे ज्यादा जोखिम हो जाता है. भारतीय सेना अनेकता में एकता का प्रतीक है लेकिन इसके अफसरों में असंतोष बढ़ता जा रहा है. इस असंतोष जन्य कुंठा के कारन सैनिकों में ख़ुदकुशी की प्रवृति बढ़ रही है. 2015 में थल सेना के 69, नौ सेना के 13 और वाऊ सेना के 11 जवानों ने आत्महत्या की. 2012 में यह संख्या और ज्यादा थी. इसका कारण भारती और प्रोमोशन में असमानता मना जा रहा है. सैनिक नाइंसाफी, समाज , सरकार और नौकरशाही की ओर से अनदेखी के कारण निराशा और अवसाद से भरते जा रहे हैं. यहाँ सवाल है कि हालत इतने बिगड़ने क्यों दिए गए. सेना केवल हथियारों की गुणवत्ता पर ही नहीं चलती , हथियारों के पीछे जो लोग हैं वे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. अब ऐसे लोगों का आत्मबल यदि कम हो जाए , मोटिवेशन घट जाए तो क्या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. सेना को आपसी परामर्श के आधार पर इस मामले को सुलझा लेना चाहिए अदालत की शरण में नहीं जाना चाहिए.
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