महापिता सूर्य और षष्ठी मातृका का पूजन
छठ पर्व
हरिराम पाण्डेय
इस वर्ष यानि 2017 में छठ महापर्व 26 अक्तूबर को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य सामर्पित कर आरम्भ होगा और दूसरे दिन उषा की वंदना के साथ समाप्त हो जाएगा. यद्यपि इसका प्रारंभ 4 दिन पहले से ही हो जाता है. हालांकि यह व्रती का सूर्य उपासना के लिए आत्म अनुकूलन की अवधि है.
वैदिक आधार
इसमें मूल पूजन सूर्य का ही होता है. भारतीय वांग्मय में सूर्य का सबसे ज्यादा वर्णन मिलता है. सूर्यांश संभव दीप: “ के उच्चार के साथ शुरू हुई दीपावली के 6 दिनों के बाद कार्तिक षष्ठी को “ चक्षो सूर्यः जायतः “ के साथ अर्घ्य के बाद त्यौहार समाप्त हो जाता है. इसे कार्तिक षष्ठी को मनाये जाने का वैदिक महत्त्व है कि लोक मातृका षष्ठी की प्रथम पूजा सूर्य ने इसी दिन की थी. इसके अलावा वेदों के अनुसार सूर्या की सारी शक्ति उनकी दो पत्नियां प्रत्युषा और उषा से उत्सर्जित होती है. इसलिए संध्या में प्रत्युषा को और प्रातः उषा को अर्घ्य दे कर सूर्य के वरदानों के प्रति आभार प्रकट किया जाता है. यजुर्वेद में सूर्य को परम देव सविता कह कर पूजा गया है - ॐविश्वानिदेव सवितर्दुरितानिपरासुव यदभद्रंतन्नआसुव. वेदों में जहां सूर्य को सविता कहा गया है वहीँ उसे सबके कर्मो का विधान करने वाला है- महीदेवस्य सवितु:परिष्टुति छत- वस्तुतः सूर्य के समवेत शक्ति की अराधना है लेकिन इसे छत माई कहा जाता है. इसे लेकर कई लोग सवाल पूछते हैं और भक्तों को अज्ञानी कहते हैं लेकी सच तो यह है कि वे खुद अज्ञान के अन्धकार में भटक रहे हैं.श्वेताश्वतरोपनिषद में परमात्मा की माया को 'प्रकृति' और माया के स्वामी को ' मायी ’ कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरुपा, मायामयी और सनातनी है। यही मायी यहाँ से चलकर हमतक आते आते माई हो गया. इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि प्रकृति खुद को पांच भागों में विभाजित करती है वे हैं – दुर्गा , राधा, लक्ष्मी , सरस्वती और सावित्री . ये पांच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं. इन्हीं प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशाश भेद से अनेक रूप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं. मार्कंडेय पुराण के अनुसार “ स्त्रियः समस्ता:सक्ल्ला जगत्सु प्रकृति देवी का छठा अंश देवसेना है, इसे षष्ठ मातृका भी कहते हैं और यह विश्व के सभी बालकों की रक्षक मानी. जाती है और सूर्य ने सबसे पहले इसी की पूजा की थी इसीलिये षष्ठी पूजा या छठ पूजा कहते हैं.
सूर्य देव की उपासना सावित्री और गायत्री दोनों की उपासना होती है. ऋग्वेद में परम ज्योति [अग्नि स्वरूप] को कई रूपों में उपास्य माना गया है. श्रेष्ठ ज्योति सविता देवको वेदों में अमृत वर्णित किया गया है. मत्यभूतोंमें समाहित अमृतदेवअग्नि ही है। इदं ज्योतिरमृतंमत्र्येषु।[ऋग्वेद6।9।4] आयुर्बलसे युक्त अग्नि मर्त्य भूर्तोमें रहने वाला अमृत अतिथि है। [ऋग्वेद 6/4/2]मत्र्येषुअग्निमृतोनिधायि [ऋग्वेद7/4/4] यह अमृत ही निधि स्वरूप है. सविता देव ब्रह्मरूप में जीवन-मरण के साक्षी और कारण हैं.
यजुर्वेद में तीन तरह की अग्नि का उल्लेख है. विभा तेअग्नेत्रेधात्रयाणि [यजुर्वेद 12/19]अर्थात् मन, प्राण और वाक् ये तीन अग्नियां हैं। वैदिक ऋषि तीन नामों से उपासना करते हैं। ऋग्वेद [1/16/4/1] में तीन अग्नियोंको तीन भ्राता कहा गया है. सूर्य अग्नि का चित्रण वेद में विस्तृत ढंग से है.
.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदत
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति
छठ पर्व का दार्शनिक महत्त्व
दर्शन में कहा गया है कि शरीर का निर्माण पांच तत्वों से हुआ है. वे तत्व हैं- क्षिति ( मिटटी) , जल , पावक ( अग्नि) , गगन ( स्पेस ) और समीर ( वायु). इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सूर्य की है यह वैज्ञानिक शोधों से भी प्रमाणित हो चुका है. सूर्य से पृथ्वी पैदा होती है, पृथ्वी से हम सबके शरीर निर्मित होते है. थोड़े ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है.सूर्य पर जो घटित होता है वह हमारे रोम-रोम में स्पंदित होता हे. क्योंकि हमारा रोम-रोम भी सूर्य से ही निर्मित है. सूर्य इतना दूर दिखाई पड़ता है,इतना दूर नहीं है. हमारे रक्त के एक-एक कण में और हड्डी की एक-एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है. हम सूर्य के ही टुकड़े है. और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते है. इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है—इम्पैथी है,समानुभूति है. सूर्य से इसी इम्पैथी यानी समानुभूति के कारण भारत सूर्य संस्कृति का देश बन गया और इसके समस्त धार्मिक कृत्य सूर्य से जुड़े हैं.
यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत
सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम्
यौगिक दर्शन के अनुसार सभी जीवों के बाहरी आवरण अत्यंत संवेदनशील विद्युत्चुम्बकीय चैनल्स हैं और विशिष्ट मानसिक एवं शारीरिक स्थितिओं में सौर ऊर्जा को सोखने एवं उसके परिचालन की क्षमता में काफी इजाफा हो जाता है. छठ पूजा के रीति रिवाज व्रतियों का इस ब्रम्हांडीय ऊर्जा को ग्रहण के लिए अनुकूलन करते हैं. पूजा के बाद यही ऊर्जा शारीरिक चैनलों के माध्यम से अपने चतुर्दिक विद्युतचुम्बकीय वाले का निर्माण करती है. घर के सदस्य तथा व्रती के बच्चे उस अदृश्य ऊर्जा वलय के संपर्क में आते हैं तो उनके शरीर के बाहरी आवरण के चैनल्स उन्हें गृह कर उर्जस्व हो जाते हैं.
वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति
यौगिक दर्शन के अनुसार छठ पूजा 6 चरणों में विभाजित होती है.
पहला चरण , उपवास के फलस्वरूप मन , मष्तिष्क और आत्मा का निर्विषीकरण हो जाता है और व्रती ब्रम्हांडीय सौर ऊर्जा को ग्रहण करने लगता है.
दूसरा चरण, जल में कमर तक खड़े होने के बाद शरीर के भीतर सौर ऊर्जा से बनने वाली अतिभौतिक ऊर्जा का रिसाव बंद हो जाता है और वह भीतर ही भीतर शुषुमना में प्रविष्ट होने लगती है.
तीसरा चरण , सौर ऊर्जा प्रकाशीय तंत्रिका और रेटिना के माध्यम से व्रती के पिट्यूटरी तथा पीनिअल और हाइपोथाल्मस ग्लैंड्स जिसे त्रिवेणी कहते हैं में प्रवाहित होने लगती है.
चौथा चरण, इससे त्रिवेणी सक्रिय हो जाती है.
पांचवा चरण, त्रिवेणी की सक्रियता से शुषुमना एक पावर हाउस में बदल जाता है और उससे क्रांतिक अतिभौतिक ऊर्जा का प्रवहन आरम्भ हो जाता है.
छठा चरण, चूँकि ऊर्जा अविनाशी है है अतः वह व्रती तथा उसके आसपास के वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है.
.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनर
सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम्
छठ पर्व की कथा
ब्रम्हवैवर्त पुराण के अनुसार प्रथम मनु महाराज स्वयम्भुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान नहीं थी. एक बार महाराज ने कश्यप ऋषि से दु:ख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा. महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया. यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था. राजा शोकाकुल हो गए. महाराज मृत शिशु को अपने सीने से लगाये विलाप कर रहे थे. उसी समय एक आश्चर्यजनक घटना हुई.एक विमान पृथ्वी पर आकाश आता दिखा .विमान में एक ज्योर्तिमय नारी विराजमान थी. राजा उसकी स्तुति करने लगे. इसपर देवी ने कहा-मैं षष्ठी हूँ, ब्रह्मा की मानस पुत्री. मैं विश्व के सभी बालकों की रक्षिका हूँ और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूँ.देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया. वह बालक जीवित हो उठा.महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही.वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे. राज्य में हर महीने के शुक्लपक्ष की षष्ठी को मनाये जाने की घोषणा कराई. तभी से परिवार कल्याणार्थ, बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि शुभ अवसरों पर षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ. सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार को गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है, वास्तव में ये दो अलग - अलग त्योहार हैं, सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है.
छठ पर्व की स्थानिकता
छठ पर्व मुख्यतः बिहारवासियों का पर्व है और बिहार से सटे नेपाल तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी इसे मनाया जाता है.बिहार में इसे मनाये जाने का मुख्य कारण है इसकी स्थानिकता. कथा है कि एक बार शिव भक्त माली और सोमाली सूर्य की और जा रहे थे. यह बात सूर्य की नागवार लगी और सूर्य ने शिवभक्तों को जलाना शुरू किया. उन्होंने शिव जी से शिकायत की. शिव ने सूर्य पर त्रिशूल से प्रहार कर उसे खंडित कर दिया. सूर्य के तीन टुकड़े पृथ्वी पर तीन स्थानों पर गिरे , वे तीन स्थान हैं , देवार्क ( बिहार में देव नामक स्थान में) , कोणार्क ( ओड़िसा) और लोलार्क ( काशी). चूँकि , देव का मंदिर पश्चिमाभिमुख और यही एकमात्र मंदिर है जिसमें मुख्या प्रतिमा पश्चिमाभिमुख है. बाद में उससे अन्य पौराणिक साक्ष्य जुड़ गए. इसीलिए अस्ताचल गामी सूर्य की पूजा यहीं से शुरू हुई. बाद में अन्य स्थानों में भी होने लगी.
.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम्
सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम्
पर्व की स्वरुप योजना
यह चार दिवसीय पर्व है और यह कार्तिक शुक्लपक्ष चतुर्थी से शुरू हो कर सप्तमी तक चलता है. इस दौरान 36 घंटे तक व्रती उपवास करता है जिसके भीतर वह जल तक नहीं ग्रहण नहीं कर सकता है.
नहाय खाय
पहले दिन , यानी कार्तिक शुक्लपक्ष चतुर्थी को घर की सफायी कर स्वयं शुद्ध हो विधान पूर्वक बने भोजन करता है , भोजन में कद्दू, चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है.
खरना
दूसरे दिन, दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है.
संध्या अर्घ्य
तीसरे दिन यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ के अलावा फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है.
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नियत जलश्रोत , तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य देते हैं. सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है.
उषा अर्घ्य
चौथे दिन , कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी को उषा काल में उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था. पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है. सभी व्रती तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं. पूजा के पश्चात व्रती दूध या अन्य गर्म पेय पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं.
.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि
सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा
छठ पर्व की तारीख
नहाय खाय –
24 अक्तूबर 2017
खरना :
25 अक्तूबर 2017
छठ पर्व 2017: मुहूर्त
षष्ठी के दिन सूर्यादय - 06:41 सुबह
षष्ठी के दिन सूर्यास्त - 18:05 संध्या
संध्या अर्घ्य की तिथि
षष्ठी तिथि प्रारंभ- 25 अक्टूबर 2017 को सुबह 09:37
षष्ठी तिथि समाप्ति- 26 अक्टूबर2017 को शाम 12:15 बजे
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