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Sunday, October 29, 2017

 खोना अर्थ एक शब्द का

 खोना अर्थ एक शब्द का

अगर किसी से पूछा जाय कि इन दिनों देश में सबसे प्रचलित शब्द कौन सा है तो नब्बे प्रतिशत लोग कहेंगे सियासत या राजनीति. कभी यह शब्द शासन चलाने कि विधि के रूप में प्रयुक्त होती थी आज किसी का बुरा करने के लिए होती है. चाणक्य ने कहा था जब तक एक किसी राज के एक आदमी  की  आँखों में भी आंसू है तबतक समझ लें की उस राज का राजा कामयाब नहीं हो सकता है.

एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है

तुमने देखा नहीं  आँखों का समंदर होना

लेकिन इन दिनों राजनीति शब्द के मायने बदल गए हैं है. पुराना आदर्श अर्थ धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है. पहले राजनीति का अर्थ सकारात्मक था और अब यह नकारात्मक हो गया है. अगर आप किसी को कहें कि वह राजनीती कर रहा है तो इसका मतलब वह आपके साथ या किसी अन्य के साथ धूर्तता कर रहा है. वह चालबाज है. अगर किसी से कहें कि  फलां आदमी राजनीतिज्ञ है तो समझ जाएगा कि वह सत्ता के लिए दौड़ धूप करने वाला एक निहायत धूर्त इंसान है तथा श्रोताओं को वही सूना रहा है जो उन्हें पसंद है ,  इससे कभी नहीं समझा जाएगा कि उस फलां आदमी ने राजनीती का करियर चुना है. शायद किसी ने गौर नहीं किया है कि शब्द के बदल गए इस अर्थ के पीछे क्या साजिश है? कई तथाकथित बुद्धिजीवी जमात में   यह फैशन है कि वे राजनीति को गंदे और स्वार्थी राजनीतिज्ञों के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं. यह केवल गलत ही नहीं है बल्कि बेहद खतरनाक  भी है.गलत इसलिए कि कोई भी व्यवस्था या समाज राजनीती के बगैर कायम रह ही नहीं सकता और  बेहद खतरनाक इसलिए कि यह समाज के मानस में जो लोकतान्त्रिक स्पेस है उसे समाप्त कर वहाँ अत्याचारपूर्ण और अधिनायकवादी व्यवस्था के लिए जगह तैयार करना है. राजनीती शासन का विग्या और कला दोनों है. यह समाज में जटिल सहसंबंधों का समायोजन करता है. अरस्तु इसे शासन का मामला कहते थे और उनके बाद के राजनीति विज्ञानियों ने यह समझदारी का विज्ञान है जिसका उपयोग सार्वजनीन मामलों में होता है. जो लोग इस अर्थ समाप्त कर नवीन आर्थ देने में लगे हैं वे समाज के साथ घात कर रहे हैं और भविष्य बिगाड़ रहे हैं. राजनीती केवल व्यवस्था या समाज के लिए ही ज़रूरी नहीं है बल्कि इसका उपयोग हर काल में होता आया है. इसी कारण से धर्म कभी राजनीति का आधार नहीं बन सकता है. क्योंकि राजनीति समय समय पर बदलती है और हर संधर्भ में उसके कार्य- कारण बदल जाते हैं. यही नहीं यह मामलों को वर्तमान सन्दर्भ में उसकी सम्पूर्ण जटिलताओं के साथ समझने कि ओर इशारा करता है. दलील डी जा सकती है कि आज के कई राजनीतिज्ञ राज्नेदेती में रहने के योग्य नहीं है. डोनाल्ड ट्रंप के त्वीट्स या शनिवार को मध्य प्रदेश के राज्नीत्ग्य के सी डी के लेकर चला विवाद उन जैसे लोगों कि अयोग्यताओं  कि ओर साफ़ इशारा करता है. परन्तु इस निष्कर्ष पर आने वाले लोग बिलकुल सहीं हैं . यह मान कर चलें कि राजनीति के बगैर किसी समाज का वजूद कायम नहीं रह सकता और किसी भी तरह की राजनीति विचारों के बगैर नहीं टिक सकती. विचार उसे नहीं कहते हैं जो भ्रमित हो और तयशुदा ज्ञान की  रिसाइक्लिंग  पर आधारित हो. सूचना ज्ञान नहीं है और गरमा गरम बहस चिंतन नहीं है. चिंतन के लिए एकांत चाहिए. डिजिटल संचार शान्ति और चिंतन को समाप्त कर रहे है हैं. आज डिजिटलाइजशन का इतना शोर है पर पर यह विकास नहीं है. यही नहीं यह लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए बाधाकारी भी है. कम्प्युटराईजेशन या डिजीटलाईजेशन मानव जीवन और श्रम  के मशीनीकरण का दूसरा स्वरुप है. मशीनीकारन  का यह स्वरुप 18 सदी में आरम्भ हुआ था उसके पहले नहीं था. उस समय जो मशीनें थीं वे एक जटिल औज़ार हुआ करती थीं. वे मानवश्रम से जुडी  थीं. 18 वीं सदी में पहलीबार मानव श्रम को स्थानांतरित किया. मशीनों को हटाने कि बात चली थी आन्दोलन हुए थे लेकिन उन्हें दबा दिया. इसका पोःला नतीजा हुआ कि बेकारी बढ़ने लगी. यह पूंजीवादियों के पक्ष में गया. मशीनें वेतन बढाने के लिए हड़ताल नहीं कर सकता  हैं. कंप्यूटर और मशीनें मानव श्रम को व्यर्थ बना रहीं हैं और श्रमहीन मानव विप्लव के बारे में ना सोचे इसलिए सियासत का अर्थ बदला जा रहा है. मशीनीकरण रफ़्तार पर जोर देता है. यह संचार से भौतिक गति तक के लिय लागू होता है. जैसे ढोल बजा कर मुनादी बनाम  मोबाइल फोन. डाक से चिट्ठी बनाम इन्टरनेट से ई मेल या घोड़ा बनाम जेट विमान. इंसान अब चिंतन का माध्यम नहीं रह गया है. इंसानी भविष्य को इसका मूल्य चुकाना ही होगा.

 

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