पटाखे छोड़ने का प्रदूषण से कोई लेना देना नहीं
आतिशबाजी का उपयोग धर्म से नहीं रिवाज़ जुडा है
हरिराम पाण्डेय
कोलकता : सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में दिवाली के दौरान पटाखों पर रोक लगा दी है. जबसे अदालत का यह आदेश आया है तबसे देश की जनता दो हिस्सों में बाँट गयी है. एक हिस्सा कोर्ट के आदेश के पक्ष में है और दूसरा इसके खिलाफ. जो आदेश के खिलाफ हैं उनका मानना है कि यह हिन्दू धर्म के उत्सवों में स्पष्ट दखलंदाजी है.जो लोग उसके पक्ष में हैं वे यह कह कर समर्थन कर रहे हैं कि इससे वायु में प्रदूषण बढ़ता है. देश की जनता की तरह अदालत भी इसमें एकमत नहीं है. अदालत में गत 12 सितम्बर को दिए गए एक आदेश में साफ़ कहा गया है कि “ उसके पास इस बात कोई साक्ष्य नहीं है कि पटाखों के इस्तेमाल से कितना प्रदूषण होता है.अतएव इसपर पाबंदी एक चरम उपाय है.अदालत ने आगे कहा है कि समाज में इसपर पाबन्दी की परोक्ष सहमति है ” हालांकि जज साहब को इस सहमती का अंदाजा कैसे लगा इस बात का कोई ज़िक्र नहीं है. मान भी लेते हैं कि दिवाली के दो दिनों में पटाखों के प्रयोग से इतना प्रदूषण बढ़ जाता है कि उसपर रोक लगाना ज़रूरी है. लेकिन साल के बाकी 363 दिनों का क्या है इसपर आदरणीय अदालत प्रकाश तो डाले. वैज्ञानिक आंकड़ों से भी पता चलता है कि पटाखों के इस्तेमाल से प्रदूषण पर कोई असर पड़ता है या इतना असर पड़ता है कि इससे भारी हानि हो. प्रदूषण फैलाने वाले कार्यों के बारे में आई आई टी कानपुर द्वारा तैयार किये गए आंकड़ों में कहीं भी पटाखों का ज़िक्र नहीं है और ना ही प्रदूषण कम करने के उपायों में भी कही पटाखों पर रोक का उल्लेख नहीं है. इससे जाहिर होता है कि पटाखों के उपयोग का प्रदूषण से कोई लेना देना नहीं है.
यहाँ एक सवाल है कि क्या इस तरह का महत्वपूर्ण फैसला इतनी जल्दीबाजी में लिया जाना चाहिए?इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला गलत समय में आया है क्योंकि उसमें यह नहीं बताया गया है कि उसे कैसे लागू किया जाएगा और इसका समाज पर क्या प्रभाव पडेगा? इस उद्योग से जुड़े हज़ारों लोगों का क्या होगा? यह फैसला पहले लिया जाना चाहिए था और इसे लागू करने के तरीकों और उसके प्रभाव पर विचार कर लेने चाहिए खास कर इससे जुड़े श्रमिकों और उस उद्योग के निवेशकों के भविष्य तथा इसका एक इलाके की अर्थव्यवस्था पर होने वाले प्रभावों का आकलन कर लेना चाहिए. अदालत ने जनता, कार्यपालिका और विधायिका पर होने वाले प्रभाओं पर विचा किये बगैर एक लोकप्रिय उत्सव की राह में रोड़े बिछा दिए.
यही नहीं अदालत ने रस्म- रिवाज पर ध्यान ही नहीं दिया. दिवाली में पटाखे बेशक हिन्दू धर्म से नहीं जुड़े है और ना उसका अंग हैं पर सैकड़ों वर्षों से यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है और धार्मिक रिवाजो से जुड़ गया है.विख्यात जर्मन भारतविद डा. गुस्ताव ओपर्ट ने लिखा है कि प्राचीन भारतमें बारूद का उपयोग हुआ करता था.“ गन पावडर , एक्सप्लोसिव एंड द स्टेट : द टेक्नोलोजिकल हिस्ट्री “ में बी जे बुकानन ने वैश्यम्पायन की नितिप्रकशिका को उधृत करते हुए “अग्नि चूर्णं” का उल्लेख किया है,जिसे बारूद बताया है. लेकिन नाओपर्ट और ना बुकानन ने उस काल खंड का उल्लेख किया है जिसमें बारूद का उपयोग होता था. जबकि दोनों उत्तर 19वीं शताब्दी के लोग थे.कौटिल्य के अर्थशास्त्रम ( लगभग300 वर्ष ईसा पूर्व ) में भी अग्नि चूर्ण का उल्लेख है. लेकिन कहीं भी दिवाली या किसी भी सनातनधर्मी पर्व में इसके उपयोग का उल्लेख नहीं है. बारूद के उपयोग का सबसे पहला उल्लेख चीन में 7 वीं सदी में पाया जाता है. इसके बाद वह मुस्लिम हमलावरों द्वारा भारत में लाया गया.ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार आदिल शाह ने अपनी शादी में आतिशबाजियों पर 80हज़ार रूपए खर्च किये थे. उसके बाद किसी भी उत्सव में रजवाड़ों के लिए यह फैशन बन गया. लेकिन दिवाली में दीपक के अलावा आतिशबाजियों का उपयोग कबसे शुरू हुआ इसका कहीऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है. 22नवम्बर 1665 को औरंगजेब ने गुजरात के सूबेदार को आदेश दिया कि शहर में दिवाली को दिए ना जलाये जाएँ. उसने भी अपने हुक्म में आतिशबाजिओं का जिक्र नहीं किया, जबकि 9 अप्रैल 1667 को उसने किसी मुस्लिम त्यौहार ( शायद शब -ए – बरात) पर आतिशबाजियों पर रोक लगाने के लिए मुनादी करने का हुक्म दिया था. यानी उत्तर 17 वीं शताब्दी के बाद से रजवाड़ों की देखादेखी उत्सव में इसका उपयोग शुरू हुआ होगा पर लगभग 400 साल से यह हमारे दिवाली के उत्सव का अंग बन गया है. इसकी मौजूदगी रिवाज़ के रूप में स्थापित हो गयी .
अदालत ने आदेश दे दिया पर यह नहीं बताया कि आखिर उसे यह कैसे पता चला कि पटाखों से प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है. पिछले साल जब यह मसला कोर्ट के सामने आया था तो उसने केन्द्रीय पर्यावरण बोर्ड से तीन महीने के भीतर रिपोर्ट दी को कहा था पर उसने कुछ नहीं किया इस साल जब मामला सामने आया तो उसने यह कहते हुए पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव अर्गानाइजशन के मत्थे मढ दिया कि इस तरह की जांच उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है. यह कर्त्तत्त्त्व पालन करने में कोताही का स्पष्ट मामला है. लेकिन उनपर कोई कार्रवाई नहीं की गयी. सरकारी अफसर जब यह समझने लगते हैं कि देश की सर्वोच्च अदालत की भी वे हुक्मउदूली कर सकते हैं तो जनता का क्या होगा यह भगवान् ही बता सकता है.इन सारी बातों को ध्यान में रख कर यह कहा जा सकता है की यह अदालती तदर्थ वाद है. इस पूरे आदेश में एक अजीब बात आर दिखती है कि पटाखों की बिक्री पर रोक है पर उपयोग पर नहीं. शायद अदालत ने यह होगा कि जब पटाखे बिकेंगे ही नहीं तो छोड़े कैसे जायेंगे! अदालत के इस आदेश से भ्रष्टाचार का एक नया रास्ता खोल दिया इसक नाजायज़ उत्पादन और बिक्री का. अदालत की फैसला लेने की तदर्थता और इसकी वैज्ञानिक नाजानकारी का यह भी सबूत है कि कोलकता सहित देश के कई शहर उतने ही प्रदूषित हैं जितनी दिल्ली है. फिर दिल्ली के लिए ही यह क्यों हुआ? शायद जज साहेबान भूल गए होंगे कि वे देश की सबसे बड़ी अदालत के जज हैं. अगर इस आदेश की अपराधशास्त्रीय व्याख्या करें तो इसकी अवमानना की भरपूर आशंका है. वेस्टर्न क्रिमिनोलोजिकल रिव्यू के अनुसार “ त्योहारों से जुडी मौज मस्ती में क़ानून की अवमानना होने को रोका नहीं जा सकता है. विख्यात अपराध शस्त्री स्कॉट के मुताबिक़ उत्सव मनोवैज्ञानिक तौर पर क़ानून तोड़ने के लिए उकसाते हैं.”
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