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Tuesday, October 24, 2017

मोदी का लोकलुभावनवाद

मोदी का लोकलुभावनवाद

जो लोग सियासत की नब्ज पर नज़र रखते हैं वे इस बात को समझ रहे होंगे की मोदी जी का लोक्लुभावान्वाद अपनी राह बदल रहा है और नए नारे गढ़े  जाने लगे हैं. 2014 के चुनाव में उनकी बातों में या उनके चुनावी विषयों में दो बातें  प्रमुख हुआ करती थीं  , पहली – भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के खिलाफ उफनता गुस्सा और दूसरा – सुसाशन और देश का आर्थिक पुनरुद्धार. मोदी के चुनाव में कहीं भी हिंदुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थन की भूमिका नहीं थी. अब धीरे धीरे मोदी जी की कथनी और में फर्क देखा जाने लगा है. अन्तर्राष्ट्रीय  सामुदायों में भी इस पर खुसफुसाहट शुरू हो चुकी है. तेजी से खस्ता होती जा रही माली हालत, गो रक्षा के नाम पर एक खास सम्प्रदाय को निशाना बनाया जाना, प्रेस से आँखें चुराना और ट्विटर और आकाशवाणी से जनता का सीधा संबोधन, योगी जैसे हिन्दू छवि वाले नेताओं को प्राथमिकता, गो रक्षकों की ज्यादतियों का परोक्ष समर्थन  इत्यादि  चंद ऐसे मसायल हैं जो बताते हैं कि मोदी जी अब पुरानो कथनों को दरकिनार कर रहे हैं. इन दिनों अब ऐसा महसूस होने लगा है कि अर्थव्यवस्था अब मोदी जी के लिए प्राथमिक नहीं रही. भारत के आर्थिक विकास में गिरावट आत्म प्रहार की तरह है. दुनिया अब तक यह नहीं समझ पायी है कि नोट बंदी का कारण क्या था, क्यों अचानक अर्थव्यस्था में शामिल 86 प्रतिशत नोटों को बंद कलर दिया गया गया? मोदीजी की पुरानी कथनी अभी ख़त्म नहीं हुई है , उनमें जान बाकी है पर बेशक नए बोल उभरने लगे हैं. मोदी जी अभी भी बहुत लोकप्रिय हैं पर अब शासन पर विचारधारा की विजय प्रमुख हो गयी है. नागरिक स्वतन्त्रता के आगे हिन्दू बहुल वादी राजनीति को तरजीह दी जा रही है. अल्पसंख्यकों पर हमले मोदी जी का सबा साथ सबका विकास का वादा झुठला रहे हैं. लेकिन इससे लोक लुभावन वाद का क्या लेना  देना है? लेकिन इसका लेना देना है. समाजशास्त्र के सिधान्तों के मुताबिक़ सामाजिक आधारों में परिवर्तान के अनुरूप सियासत समाज में वह विभाजक रेखाएं नहीं खीच सकी जो आवश्यक थी और समाज का नजरिया वही रह गया जो 20 वी सदी में हुआ करता था. अब यहाँ किसी राजनीतिक शासन की आलोचना की अभिव्यक्ति का संकट नहीं हुआ बल्कि पारंपरिक राजनीतिक खिलाड़ियों की वैधता का संकट खडा हो गया. लोक्लुभावान्वाद को बढ़ावा देने वाला लोकतान्त्रिक घाटा सहभागी राजनीतिक आधार को विकसित करने के दावे से कम नहीं हुआ बल्कि समाज को नए विजेताओं और पराजितों में विभाजित कर दिया जिससे समानता की अवधारणा का संकट उत्पन्न हो गया. इससे लोक्लुभावान्वाद या कहें पोपुलिज्म कोई आइडियोलोजी ना होकर समाज और सियासत में विभाजनकारी बन गयी जिसमें नेता मुख्य  खिलाड़ी हो गए.  यहाँ लोकलुभावन और लोकप्रिय में फर्क समझ लेना ज़रूरी है. जवाहर ला नेहरु और परक ओबामा लोकप्रिय थे लोकलुभावन नहीं. उनके राजनितिक  आचरण में कहीं भी लोकलुभावन जैसे व्यवहार नहीं दीखते थे. उनके आचरण से कभी ऐसा नहीं झलकता था कि लोकतंत्र केवल चुनाव के लिए है और प्रेस , न्यायपालिका, सुरक्षा एजेंसियां इत्यादि केवल लोकतान्त्रिक सरकारों के समक्ष बाधा उतपन्न करती हैं. चुनावी फैसले को मानना चाहिए , क़ानून को नहीं. अब इससे क्या होता है कि कुछ नेता तो जनिच्छा के अनुरूप होते हैं लेकिन ज्यादातर शातिर अपराधी, कलंकित – लांछित हुआ करते हैं. करिश्मा क़ानून पर भारी पड़ने लगता है और जन अभियान के समक्ष सविधान हल्का पड जाता है. इस लोकलुभावन आइडिया के डो भाग होते हैं पहला वामपंथी पोपुलिज्म और दूसरा राइटिस्ट पोपुलिस्म. वामपंथी लोक्लुभावान्वाद की सबसे अच्छी मिसाल इ९न्दिरा जी थीं. उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया और प्रेस तथा न्याय पालिका पर हमले किये. वे जनता की चाट की प्रतिमूर्ति बन गयीं और उन्होंने आपात काल लागू कर लोकतंत्र को ही निलंबित कर दिया. अभी भारत में राइटिस्ट पोपुलिस्म का कोई शासक केंद्र में नहीं है. नरेंद्र मोदी भी उसके उदाहरण नहीं हैं. उनके आचरण का कुछ हिस्सा इन्द्दिरा जी के आचरणों से मिलता है. वे चुनाव के नतीजों को सर्परी मानते हैं प[आर स्वतंत्र प्रेस और कोर्ट से नाक भौंह सिकोड़ते हैं. लेकिन हिन्दू बहुल वाद समर्थन कर इंदिरा जी से अलग भी है. अब यह स्थिति देश के लिए कितनी सार्थक है यह जनता विचार करे. 

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