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Thursday, October 19, 2017

दीपावली : शुभम करोति कल्याणं

दीपावली : शुभम करोति कल्याणं

आज दीवाली  है. अंतरिक्ष में विद्युत् और गगन में सूर्य का प्रतीक और काल के संघर्ष  मंथन से उत्पन्न  ज्योति प्रकाश का आह्वान करती है. ऋग्वेद उसे इसीलिए चिर पुरोहित कहता है, “ अग्निमीले  पुरोहितः .” इसी ज्योति की आराधना में करोडो हाथ आज जुड़ गए हैं – शुभम करोति कल्याणं आरोग्यं धनसंपदा.”इस पर्व का व्यक्तिगत जीवन में भी काफी महत्व है. इस दिन हम दीप जलाकर अन्याय, असत्य और अंधेरे को दूर भगाने के साथ ही मन के मलिन पक्ष को भी स्वयं से दूर करते हैं. उजाला हमारे अंदर सत्य, न्याय और अच्छे गुणों का समावेश करता है. कहते हैं कि लंका पर विजय के बाद जब श्री राम अयोध्या लौटे तो पुर वासियों ने दीप प्रज्वलित कर हर्ष की अभिव्यक्ति की और उस दिन से उस विशेष को दिवाली मनाई जाने लगी. यहाँ एक बात स्पष्ट हो गयी कि अन्धकार को दूर करने के अलावा हर्ष की अभिव्यक्ति के लिए भी दीपक जलाना हमारी संस्कृति का अंश रहा है. यही नहीं दीप ज्योति हमारे भों  दीप ज्योति हमारे भावों द्योतक और अनागत का  संकेत भी है-

रुक्षेर्लक्ष्मी विनाश: स्यात श्वेतेरन्नक्ष्यो भवेत

अति रक्तेशु युद्धानि मृत्यु: कृष्ण शिखीशु च

हमारे पौराणिक ग्रंथों में कई स्थानों पर दीवाली के दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा गया है – तमसो मा ज्योतिर्गमयः. यह अन्धकार से प्रकाश की ओर की यात्रा है , अज्ञानता से ज्ञान की उपलब्धि का द्योतक है और बुराई पर  अच्छाई  के विजय का प्रतीक है.  हम इतने खुश क्यों होते हैं? क्योकि मनुष्य का विकास गहन तामस में हुआ है. मनुष्य जब मां के गर्भ में होता है तो वहां  अंधकर होता है . हम अंधकार से उगते हैं, व्यक्त जगत में आते हैं. आंखों को प्रकाश देखने का अनुभव नहीं होता. तमस हमारी यथास्थिति है, और प्रकाश हमारी नियति. सो, ज्योतिर्मयता हमारी चिरन्तन प्यास है. उजाला सामूहिक रूप में प्रसारित हो तो जैसे फूल खिल जाते हैं, उसी तरह दीप की पंक्तियां, जिनमें दीप की निष्ठाएं हैं, दीपावली की आभा रच देती हैं. पंक्तिबद्ध होने में जो लय है, वही तो पृथ्वी की उजास है. एक-एक का लालित्य एवं समूह का लालित्य.समूह जब अनुशासन की ज्यामिति हो तो वह भीड़ नहीं होती. दीपावली समाज व व्यक्ति के जीवन के कुरूप पाठों को नया रूपांकन देती है. कृषि संस्कृति में पीड़ाओं व दु:खों के बावजूद उल्लास व उजास के इतने शेड हैं कि देखते ही बनते हैं.

परन्तु यहाँ एक तथ्य संभवतः गौण सा दिखता है. वह है प्रकाश में किसी भौतिक अस्तित्व की उपस्थिति से निर्मित उसकी छाया. छाया न प्रकाश है और ना उसकी गैरहाजिरी से उत्पन्न  अन्धकार ना अच्छाई का उल्लास है ना बुराई की निवीड़ता.राम के अयोध्या आगमन पर जब पुर नगर प्रकाश पुंज बन गया होगा और ऐसे में जब जब राम , लखन और वैदेही ने नगर में प्रवेश किया होगा तब भी भूमि पर उनकी छाया बनी होगी. उसपर यकीनन किसी ने ध्यान नहीं दिया होगा पर छाया तो होगी ही. चाहे कितना भी प्रकाश हो भौतिक अस्तित्व की उपस्थिति छाया का निर्माण करती ही है और छाया प्रकाश में भी अन्धकार मौजूद् है.यहां एक दर्शन है. अंधकार का कोई रूप  नहीं होता लेकिन छाया ऐसी नहीं है. छाया का अर्थ प्रकाश के मार्ग में कोई बाधा आ गयी है. उस बाधा की पृष्ठभूमि में प्रकाश उपस्थित रहता है. उसकी किरणें उस वस्तु को न भेद कर उसके इधर-उधर बिखर गयी हैं. इस छाया को पहचानना बहुत ही कठिन है, जब तक कि उस वस्तु को पहले न देखा हो. छाया मेंस्पष्टता नहीं होती है. यह प्रकाश के बीच ठोस अवरोध का प्रतिफल है. यही छाया दर्शन में ज्ञान की द्युति में ठोस अहंकार की उपस्थिति का अहसास है. यह छाया तभी दूर होई सकती है जब हम प्रकाश के वृत्त के मध्य खड़े हों , रेखागणित के 360 डिग्री के वाले के मध्य हों.यह केवल ज्ञान के प्रकाश से ही संभव है.  इसीलिए हमारे ऋषियों ने बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रार्थना की- “ तमसो मा ज्योतिर्गमय: ” इन साधारण से लगने वाले शब्दों में अत्यंत गंभीर भाव छिपे है. इसमें भौतिक अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने की प्रार्थना तो है ही,साथ ही हमें अविद्यान्धकार से छुड़ाकर विद्यारूपी प्रकाश वृत्त  को प्राप्त कराने की भावना और प्रार्थना अंतर्निहित है. हमारे पूर्वज वैदिक ऋषियों ने सभी प्रकार की सामाजिक समस्याओं को तीन श्रेणियों में बांटा-ये है अज्ञान, अन्याय और अभाव. चाहे कोई भी देश हो, कैसा भी समाज हो, सब जगह ये समस्याएं रहेंगी ही. इन तीनों समस्याओं में भी अज्ञान की समस्या सबसे बड़ी है. यदि ये कहा जाए कि अन्य दोनों-अन्याय और अभाव की समस्याएं भी अज्ञान के कारण ही जन्म लेती है, तो अनुचित नहीं होगा.

छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि प्रकृति समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है. जहां-जहां खिलता है प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां वहां प्रकाश, हम धन्य हो जाते हैं. प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है हमारे भीतर. अर्जुन ने विराट रूप देखा. उसके मुख से निकला-दिव्य सूर्य सहस्त्रांणि. हजारों सूर्य की दीप्ति एक साथ. भारतीय अनुभूति का ‘विराट’ प्रकाशरूपा ही है. पूर्वजों ने प्रकाश अनुभूति को दिव्यता कहा. यही दिव्यता ही तो परिवर्तन है.  बगैर परिवर्तन के नई आभा नहीं रची जा सकती.

यदि बड़े परिवर्तन न संभव हो सकें,तो छोटे-छोटे बदलाव सृजन की दीपावली ला सकते हैं. राजनीति,इतिहास से परे ही अब नई दुनिया सृजित होगी. यहां 'राजनीति' का अर्थ सिर्फ राज पाने के लिए बनी नीति से है. जो सृजनधर्मी वृहत्तरता के सापेक्ष नीति होगी, वह समाज, राज व व्यक्ति सबसे सकारात्मक रूप से जुड़ी होगी. यहां 'इतिहास' का अर्थ अपने वर्चस्व को घटना-रूप देना है. राम का अयोध्या लौटना बुराई पर अच्छाई का वर्चास्व है पर अयोध्यावासियों का उसे प्रकाश रूप देना वर्चास्वा को घटना का स्वरुप देना है.  'लघु मानव'अपनी आत्मा में 'वृहत' होता है. उसे पता है कि नव-इतिहास के नाम पर चल रहा सांस्कृतिक भौतिकवाद,जाति, लिंग, वर्गवाद सबकुछ अब धूमिल पड़ने लगे हैं. दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य, निजता, स्वायत्तता,ज्योति व लघु अंधकार का समन्वयन एक साथ स्थापित करती है. लघुता को सम्मान देती है यह. छोटा दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार करता है. वह संवेदना, संवाद व संप्रेषण की स्थिति की ओर ले जाता है. हमें निचले दर्जे की राजनीतिक स्पर्द्धा,संवादहीनता व विद्वेष की भावनाओं से परे जाना है, तभी दीपावली का असली डिस्कोर्स समझ में आएगा.

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