शिक्षा में क्षरण
फ्रांसिस बेकन ने एक बार कहा था कि “ शिक्षा ही ताकत है.” 21 वीं सदी में यह और प्रासंगिक है खास कर जब दुनिया के सामने सूचना प्रोद्यौगिकी के नए आयाम खुलने लगे. इसके बाद हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की यह घोषणा कि सरकार विश्वविद्यालयों की शिक्षा और शोध के स्तर को बढ़ाएगी ताकि हमारे भी शिक्षण संस्थानों का ग्लोबल संस्थानों में शुमार हो सके. यह घोषणा भारतीय शिक्षा के प्रति सरकार की सकारात्मक प्रवृति की ओर इशारा करती है. लेकिन दुर्भाग्यवश यह घोषणा केवल घोषणा बन कर रह गयी. यू पी ए सरकार ने शिक्षा के अधिकार सम्बन्धी क़ानून बनाया ताकि प्राथमिक शिक्षा सबकी पहुँच में हो. सरकार इस बात को भी समझती थी कि यदि नयी पीढ़ी की आकान्क्षाओं को पूरा करना है तो उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटें बढानी होंगी. इसी के अनुरूप कई नए उच्च शिक्षा संस्थान खोले गए. केन्द्रीय विश्व विद्यालयों की स्थापना हुई. उसके लिए धन की व्यवस्था की गयी. शिक्षकों को अनुबध या अतिथि के तौर पर बुलाने का बंदोबस्त किया गया. शिक्षा की गुणवत्ता को बढाने की कोशिशे भी शुरू की गयीं. शिक्षा व्यवस्था को संचालित करने वाले संस्थान मसलन विश्व विद्यालय अनुदान आयोग और तकनकी शिक्षा परिषद् को मज़बूत बनाने के प्रयास किया गया.
लेकिन एन दी ए की सरकार के बाद शिक्षा की प्राथमिकताएं बदलने लगीं, एक तरफ विद्यार्थियों और छात्रों का नैतिक बल घटने लगा दूसरी तरफ सरकार ने उच्च शिक्षा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. यू जी सी के अनुदान में 55 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी. सभी नए पाठ्यक्रम स्ववित्त पोषित कर दिए गए. इसका मतलब सरकार बच्चों की पढाई ढांचागत समर्थन देने से कतराने लगी है. नतीजा हुआ कि कॉलेजों में यह बोझ बच्चों पर डाला जाने लगा. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की फीस अनाप शनाप बधाई जाने लगी. सुनकर हैरत होती है कि पंजाब विश्वविद्यालय की फीस 1110 प्रतिशत बढ़ाई गयी, आई आई टी बॉम्बे की फीस 55 प्रतिशत बढ़ाई गयी और होस्टल के शुल्क में 300 प्रतिशत वृद्धि कर दी गयी. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एम फिल की सीटों में कटौती कर दी गयी.सरकार का शिक्षा में दूसरा अवदान है कि उसने उच्च शिक्षा को छात्रों की पहुँच से बहार कर दिया. एम् फिल और पीएच डी के लिए चुने गए छात्रों को छात्रवृति की राशि 5000 और 8000 रूपए में बुरी तरह कटौती कर दी गयी. दलितों और आदिवासियों को मैट्रिकुलेशन के बाद मिलने वाली छात्रवृति की कुल राशि को जान बूझ कर रोक दिया गया है. जब छात्रों ने इसका विरोध किया तो उन्हें आधिकारिक तौर पर या ए बी वी पी के माध्यम से तंग किया जाने लगा. छात्र हितों पर इस अनवरत प्रहार ने शिक्षा पद्धति के मूल उद्देश्य चेतना – चिंतन को ही चौपट कर दिया. इसके उपउत्पादन के तौर पर संस्थानों में जाती पांति का भेद दिखाई पड़ने लगा. पहले केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के 35 केन्द्रों में “ सोशल इन्क्लुजन और सोशल पालिसी पढ़ाया था उसे बंद कर दिया गया. दुर्भाग्यवश इन केन्द्रों की अनदेखी होने लगी. लाखों दलित छात्र जो छात्रवृतियों पर निर्भर थे वे अब अधर में हैं. यही नहीं शिक्षा संस्थानों में रिक्तियां नहीं भरी जा रहीं हैं उच्च शिक्षा में शिक्षकों की 43 प्रतिशत जगहें खाली हैं. मूलतः संस्कृत का शब्द है यह सिक्ष धातु में अ प्रत्यय लगाने से बना है जिसका अर्थ हैं सीखना , शिक्षा संस्थानों का खुलापन , उदारता और भेद हीनता छात्रों को सीखने तथा शिक्षा के मूल उद्देश्य चिंतन और चेतना को प्राप्त करने में मददगार होता है. सरकार की नीतियों ने न शिक्षा संस्थानों को ऊँचाई हासिल करने दे रही है और ना छात्रों विचारशीलता पनपने दे रही है. विश्वविद्यालय मनुष्यता, सहिष्णुता और विचार को बढ़ावा देते हैं इससे सत्य का संधान होता है. लेकिन इन दिनोएँ विश्वविद्यालयों की स्थोती चिंताजनक होती जा रही है. कीज़ विश्वविद्यालय के कुलाधिपति( चांसलर) श्री अच्युत सामंत ने एक बार कहा था कि “ किसी देश का भविष्य उसके शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है. शिक्षा में विकृति धीरे धीरे देश की संस्कृति को नष्ट कर देती है.” अगर सरकार शीघ्र नहीं चेतती है तो देश का ख़ास कर भारत का विचार क्षतिग्रस्त हो जाएगा और आनेवाली संतति हमे माफ़ नहीं करेगी.
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