विजयादशमी के अवसर पर
राम: शस्त्रभृतामहम्
राम की कथा द्वापर की है और “ राम: शस्त्रभृतामहम्” श्लोक अंश त्रेता का है. कई हज़ार साल के बाद गीता में कृष्ण ने कहा है कि “ राम: शस्त्रभृतामहम् अर्थात मै शस्त्रधारियों में राम हूँ. आज उसी राम को हम विजय के लिए याद करते हैं. राम तो सदा याद किये जाते हैं पर आज का महत्त्व ही अलग है. आज दशहरा है यानी विजयादशमी. कहते हैं यह राम के विजय का पर्व है. यहाँ विजय वाली बात बड़ी विरोधाभासी लगती हैं क्योंकि सब जानते थे, यहाँ तक कि रावण भी जानता था, कि राम को पराजित नहीं होना है. फिर विजय कैसा. जहां पराजय है ही नहीं वहा विजय कैसी. दरअसल यह राम और सीता के मिलन का पर्व कहा जाना चाहिए लेकिन न जाने समय के किस दबाव ने या व्याख्या के कौन से मनोविज्ञान ने इसे विजय की संज्ञा दे दी, यह कहना संभव नहीं है. लेकिन विजय की अपनी एक व्याख्या तो है ही. वस्तुतः राम और सीता का मिलन यानी देह और आत्मा का मिलन ,पृथ्वी और आकाश का मिलन , मृत्य और अमर्त्य का मिलन. इस मिलन में जो बाधा है वही रावण है . दस पाप उसके दस सिर हैं. हमारे भीतर पूरी राम कथा लगातार चलती रहती है कभी माया के रूप में कभी रावण से द्वंद्व के रूप में. हममे से बहुतो ने थ्री डाईमेंश्नल फिल्में देखी होंगी. पहली बार ऐसा लगता है कि दौड़ता हुआ घोड़ा हमारे ऊपर आ जाएगा और दर्शक थोड़ा दायें- बायें हो जाता है. कितने धोखे में रहते हैं हम. क्षण भर को झूठ सच हो जता और इसी झूठ को सच मानना माया है. राम दशहरे के दिन इसी माया का वध करते हैं. यही तो हर्ष है , यही त्यौहार है. वरना राम के हाथों में शस्त्र बड़ा अजीब लगता है. राम का स्वरुप एक काव्य प्रतिमा है , आँखें दया का सागर है और ऐसे में शस्त्र कैसा लगता है. यही नहीं , दिग्विजयिनीरामकथा का अगरविश्लेषण करें तो तीन बातें स्पष्ट होती हैं, जिसमें युद्ध प्रगल्भ नहीं है. जो बातें स्पष्ट होती हैं उनमें पहली तो राम के विजय का उद्देश्य आधिपत्य स्थापित करना नहीं था. महाकवि कालिदास ने मेघदूत में एक शब्द का प्रयोग किया है. वह शब्द है –“ उत्खात प्रतिरोपण ”, यानी उखाड़ कर फिर से रोपना. यह फसल के हित में होता है या उस क्षेत्र के हित में होता है जहां ऐसा किया जाता है. उस क्षेत्र के अयोग्य शासक को हटा कर उसी क्षेत्र के सुयोग्य शासक को वहां का आधिपत्य सौंपा जाता हैं। उस क्षेत्र की दुर्बलताएं अपने आप नष्ट हो जाती है.
दूसरी बात इस प्रकार की विजय यात्रा में तय था कि किसी सामान्य जन को सताया नहीं जाय.
तीसरी बात यह थी किविजय का उद्देश्य उपनिवेश बनाना नहीं था, न अपनी रीति नीति आरोपित करना था. अब प्रश्न है कि केवल राम का ही विजयोत्सव क्यों इतना महत्वपूर्ण है? इसका कारण है वह“ एक निर्वासित का उत्साह ” है, जिसने राक्षसों से आक्रांत अत्यंत साधारण लोगों में आत्मविश्वास भरा और जिसने रथहीन हो कर भी रथ पर आरूढ़ रावण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
ऐसी यात्रा से ही प्रेरणा ले कर गांधी जी ने स्वाधीनता के विजय अभियान में जिन चौपाइयों का उपयोग किया वे'रामचरितमानस’ की हैं - ' रावनु रथी बिरथ रघुबीरा. देखि बिभीषन भयउ अधीरा.' ऐसी विजय में किसी का पराभव नहीं होता,राक्षसों का भी पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ. राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई. उसी प्रकार जैसे अंग्रेजों का पराभव नहीं हुआ. अंग्रेजों की सभ्यता नेस्तनाबूद करने का कोई प्रयत्न भी नहीं हुआ, केवल प्रभुत्व समाप्त करके जनता का स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य था. इसलिए विजयादशमी महत्वपूर्णहै. हम कृषि संस्कृति वाले लोग आज भी नए जौ के अंकुर अपनी शिखा में बांधते हैं और उसी को हम जय का प्रतीक मानते हैं. आनेवाली फसल के नए अंकुर को हम अपनी जय यात्रा का आरंभ मानते हैं.
हमारे लिए विजययात्रा समाप्त नहीं होती, यह फिर से शुरू होती है,क्योंकि भोग में अतृप्ति,भोग के लिए छीना-झपटी, भय और आतंक से दूसरों को भयभीत करने का विराट अभियान, दूसरों की सुख-सुविधा की उपेक्षा,अहंकार, मद, दूसरों के सुख की ईर्ष्या- यह सभी जब तक हैं, कम हो या अधिक... विरथ रघुवीर.. को विजययात्रा के लिए निकलना ही पड़ेगा. आत्मजयी को इन शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए नया संकल्प लेना ही होगा. सभी विज्ञापनदाताओं ,पाठकों और हितैषियों की यह विजययात्रा शुभ हो.
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