भारत के सनातन धर्म और संस्कृति की गलत व्याख्या है हिंदुत्व
हरिराम पाण्डेय
न जाने किन दबाओं के अंतर्गत हमारे धर्माचार्यों और विद्वानों ने भारत के सनातन धर्म और संस्कृति के लिए हिन्दू और हिंदुत्व शब्द स्वीकार कर लिए और इसका प्रयोग आरम्भ हो गया. अब यह प्रयोग इतना पुराना और दृढ हो गया है कि इसे एक साथ बंद करना संभव नहीं है. फिर भी इसपर विचार ज़रूरी है.
दर असल , भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों ने अपनी समझ और सुविधा के लिए शब्दों का एक सेट तैयार किया. ये शब्द उन लोगों और उस क्षेत्र को समझाने के लिए था जिन्हें वे ना जानते थे और ना समझ पाते थे. समय के साथ देशी लोगों ने भी उन शब्दों को मान लिया औरे लापरवाही से अपना भी लिया. समय के साथ ये शब्द उनकी पहचान बन गए. यह पहचान उनकी परम्परा द्वारा दी गयी पहचान से सर्वथा विपरीत है. इन दिनों एक शब्द है हिंदुत्व. यह शब्द भारत के धर्म की संज्ञा है और हिन्दू संस्कृति- सभ्यता भारत की संस्कृति और सभ्यता का पर्याय बन गयी. इसकी समस्त गतिविधियाँ धार्मिक हो गयीं और दिशा भौतिकता के विमुख मान ली गयी. लेकिन यह गलत अवधारणा है. भारतीय सभ्यता मूलतः हिन्दू सभ्यता है यह मानना गलत है और भारतीय दर्शन के विरुद्ध है. भारतीय सभ्यता का मूल मनुष्य है और उसकी दशा है. पहले तो हमारी सभ्यता को धर्म का रूप दिया गया और फिर उसे मानने वालों को हिन्दू कह दिया गया. यह हमारे सनातन धर्म की व्यापकता को सीमित करने की चाल थी. यही नहीं ,मनुष्य के प्रति प्राचीन भारतीय अवधारणा को एक ख़ास प्रकार के दर्शन या कहें ईशशास्त्र से परिभाषित कर दिया गया जिसके अनुसार पाप और पुण्य की परिभाषा बदल दी गयी. इस ईशशास्त्र को मान्नाने वाले हिन्दू हो गए और जो इन्हें नहीं मानते वे अल्पसंख्यक हो गए , बाद में धार्मिक अल्पसंख्यक कहे जाने लगे.
अब बात यहाँ से आरम्भ करें कि हिंदुत्व भारत के बहुसंख्यक आबादी का धर्म है. पहले तो भारतियों की उदारता के कारण इसका विरोध नहीं हुआ , बाद में अंग्रेजों ने इसके धार्मिक प्रभाव को भांप लिया और इसका उपयोग करने लगे. न जाने क्यों गोपाल कृष्ण गोखले जैसे विद्वानों ने भी इसे स्वीकार कर लिया. इसका नतीजा यह हुआ कि अल्पसंख्यक का भाव समाज में स्थापित हो गया. यह स्थापना एक ऐसे समाज में हुई जहां मनुष्य के व्यापक सद्गुणों का मूल्य था और बहुसंख्यक या अल्प संख्यक के भाव का कोई अर्थ नहीं था या यह कहें कि यह भाव ही नहीं था. एक बार यह भाव स्थापित हो गया और फिर नए तरह का झगडा आरम्भ हो गया समाज में. इस झगडे का आधार अंक थे , संख्याएं थीं. मनोवैज्ञानिक तौर पर दोनों समुदायों का पतन हुआ और अपनी पहचान कायम करने के लिए हिंसा आरंभ हो गयी. आधुनिक भारत में सामाजिक हिंसा का मूल यही है.
अगर यह सही है कि भारतीय सभ्यता ही हिन्दू सभ्यता है तो मुस्लिम भी यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि भारत की सभ्यता में उनका अवदान नहीं है क्या? मार थोमा के भारतीय इसाई भी ऐसे ही सवाल उठा सकते हैं. मुस्लिम लगभग 8 सदी तक भारत का अविभाज्य अंग बने रहे, सीरियाई इसाई जो दुनिया के सबसे प्राचीन इसाई है वे भी भारत में 19 वीं सदी तक कायम रहे. इस तरह के प्रश्नों का क्या उत्तर होगा? भारतीय सभ्यता की सही पहचान सनातन धार्मिक है हिन्दू नहीं. हिन्दू शब्द भी हमारे प्राचीन ग्रंथों में यहाँ तक कि आरंभिक मध्य युगीन साहित्य में कहीं नहीं मिलता. हमें इतिहास में जो पढ़ाया जाता है कि 8वीं शताब्दी में जब अरब हमलावरों ने भारत पर हमला किया तब हिन्दू शब्द बना. बताया जाता है कि यह शब्द सिन्धु के पार वाले क्षेत्र के लिए था और चूँकि अरबी “ स ” नहीं बोल सकते और “ स ” को “ ह ” बोलते हैं इसलिये सिन्धु से हिन्दू हो गया, पर उस समय भी इसका धर्म से कोई नाता नहीं था. पर यह व्याख्या गलत है. ना जाने समय के किस दबाव में इसे विद्वानों ने इस व्याख्या को स्वीकार किया यह तो मालूम नहीं है पर अरबी “ स “ को “ स “ बखूबी बोल सकते हैं वरना वे सुलेमान और सलमा कैसे बोलते थे और बोलते हैं?
इसी तरह हिंदुत्व ऐसा कोई शब्द नहीं था जिसका धर्म से नाता हो. हिन्दू जिस धर्म को मानते हैं उसे नाम देने की कोशिश में 16वीं सदी में कैथोलिक मिशनरियों ने कैथोलिसिज्म की तर्ज़ पर हिन्दुइज्म गढ़ दिया. 16वीं सदी से पूर्व हिंदुत्व शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है. यह शब्द गढ़ने का कारण था कि भारत की धार्मिक विविधता कैथोलिक मिशनरियों की समझ से परे थी और वे सबका एक समान नाम देना चाहते थे. इससे पहचान की दोहरी गलती हुई. पहली कि विभिन्न आस्था , विश्वास और कर्मकांडों को एक फर्जी नाम देने की और फिर उसे धर्म मान लेने की. यह गलती आज तक चल रही है.
अब प्रश्न उठता है कि क्या आज हिन्दू और हिंदुत्व ने हमारी आत्मानुभूति को बदल दिया है? इन दो शब्दों ने हमें राजनितिक छद्म में विभाजित कर दिया. जीवन की सम्पूर्णता से कट गया भारतीय जन. इसका नतीजा हम आज की बेवजह हिंसा के रूप में देख रहे हैं. यह प्रश्न सेमनेटिक्स या अर्थ विज्ञान से नहीं जुडा है. यह भारतीय सभ्यता के मूल तत्व – धर्म या सनातन धर्म से - से आबद्ध है. हम धर्म से ऐसे समय में विमुख हो गए जब इसकी सबसे ज्यादा ज़रुरत थी. इसी तरह सेकुलर शब्द को भी गलत समझा गया. जो अर्थ देश वासियों को समझाया गया वह है “ सर्व धर्म समभाव “ , या , किसी भी धर्म को नहीं मानना. ये दोनों भाव गलत है. भारतीय संस्कृति अनिवार्यतः सेकुलर है. विश्व के सम्बन्ध में इसका नजरिया कहीं बाहर से लिया गया नहीं है बल्कि नैसर्गिक है. यह विश्व और शरीर दोनों नाशवान है. भारत का धर्म सेकुलर व्यवस्था का है , यह किसी “ सुपरपवार” के आदेश से उतरा हुआ नहीं या आया हुआ नहीं है. भारत का हर विचार धर्म पर आधारित है और धर्म का अर्थ है जो धारण करने योग्य है. यह कोई व्यवस्था नहीं है है यह अनिवार्यतः जीवन शैली है और जीवन में निहित है.यह सबको अपनी सुविधा के अनुसार जीने का हक देता है. .
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