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Friday, June 29, 2018

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की 2019 के लिए तैयारी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की 2019 के लिए तैयारी

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह बुधवार को कोलकाता आये थे। उन्होंंने कहा कि हमें बंगाल से कम से कम 21 सीटें चाहिये। तृणमूल नेता ने उनकी इस बात पर टिप्पणी करते हुये कहा कि भाजपा मूर्खों के स्वर्ग में रहती है।दरअसल अमित शाह ऐसा इसलिये बोल रहे हैं कि उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कदमताल कर रहा है। दुनिया में यह पहला उदाहरण है कि खुद को एक सांस्कृतिक इकाई कहने वालाल संगठन अपने राजनीतिक इकाई के बाहों में बाहें डाल कर चल रहा है। वैसे ,यह केवल मोदी ही नहीं है जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेतृत्व का भी मानना ​​है कि संघ परिवार का भविष्य भी भाजपा पर निर्भर करता है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बारे में बातें  उसके विचारधारात्मक मूलसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उल्लेख के बिना शायद ही कभी पूरी होती हैं। चुनाव के दौरान संघ के समर्थन से ही भाजपा  2014 में सत्ता में आयी। तब से, संघ के नेताओं ने कभी भी नरेंद्र मोदी सरकार की कार्यशैली के विरोध में असहमति नही जताई है। कामकाज और इसकी आर्थिक नीतियों, जिनमें एयर इंडिया की बिक्री और सामान और सेवा कर भी शामिल हैं, का समर्थन किया है। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के दौरान संघ् ने सरकार के कई काम का विरोध किया था। अब कुछ भी हो,  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा  अब सहजीवी आलिंगन में आबद्ध हो चुके हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा की राजनीतिक मशीनरी के लिए कैडर प्रदान करता है, जिससे नई चुनावी जमीन तैयार करने में मदद मिलती है, जैसा कि इस साल की शुरुआत में त्रिपुरा में हुआ था।  जहां सैकड़ों कैडर उतरे और दो दशकों के सीपीआई (एम) के गढ़ पर कब्जा कर लिया। संघ ने अपनी सदस्यता का विस्तार रोक दिया और परिणाम स्वरूप  भाजपा   केंद्र में सत्ता में आ गयी। विपक्ष ने इस बढ़ती निकटता को समझने में जल्दबाजी की है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हालिया हमलों से यह जाहिर होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पार्टी और सरकार के साथ अपने संबंधों को बारीकी से देखा जाय तो पता चलेगा कि संघ स्वयं परिवर्तन की हड़बड़ी में है। गणवेश में बदलाव से युवा सदस्यों को आकर्षित करने, सदस्यों को साप्ताहिक और मासिक बैठकों का विकल्प देने के लिए दैनिक बैठकों पर जोर देना इत्यादि शामिल है। लोगों की व्यापक परीधी तक पहुंचने के अपने अभियान में अनुभवी कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को आमंत्रित करना और संघ के सदस्यों को उनका सम्बोधन इत्यादि सांस्कृतिक संगठन के राजनीतिक दृष्टिकोण की ओर इशारा करते हैं।  अब, अगले आम चुनावों में एक वर्ष से भी कम समय है  और भाजपा के मुख्य प्रचारक नरेंद्र मोदी के आस-पास की कुछ ऐसी चीजें हैं जो प्रशंसनीय नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुमानित 50 लाख अनुयायी हैं।  संदेश स्पष्ट है: मोदी सरकार के पुनर्मूल्यांकन को सुनिश्चित करने के लिए उन्हें चुनावी पहिये को घूमाना होगा।  2014 में, यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सामाजिक, आर्थिक और सुरक्षा मुद्दों पर यूपीए की असफलताओं के खिलाफ रैली की, तो दोनों के लिए यह राष्ट्रवाद है। संघ और भाजपा के पास एक चुनावी मशीन के रूप संघ के काडर हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों का मानना ​​है कि देश भर में फैले हुए विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रविरोधियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य मोदी सरकार को अस्थिर करना और इसे दूसरे कार्यकाल में सत्ता में आने से रोकना है। इसका उद्देश्य न केवल संयुक्त विपक्ष की संयुक्त शक्ति को जोड़ना है बल्कि यह संघ को हिन्दू अविभाजित परिवार के रूप में देखता है। यह केवल मोदी ही नहीं है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेतृत्व का भी  मानना ​​है कि संघ परिवार का भविष्य भाजपा के केंद्र में सत्ता में बने रहने में है। 

 

Thursday, June 28, 2018

बंगाल और बंगलादेश के समक्ष समान चुनौतियां 

बंगाल और बंगलादेश के समक्ष समान चुनौतियां 

1971 में पाकिस्तान से अलग होकर खुद को  बंगलादेश के नाम से नामित करने वाले इस देश ने अपनी आर्थिक वृद्धि से दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया है और यह अपने प्रतिद्वंद्वी को  पाकिस्तान को भी विकसित करने के लिए तैयार है। हाल में भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने लिखा है कि "बंगलादेश की  सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर सालाना लगभग 2.5 प्रतिशत अंक से अधिक हो गई है। इस साल, इसकी विकास दर के भारत को पार करने की संभावना है। बंगलादेश की जनसंख्या वृद्धि  की दर प्रति वर्ष 1.1 प्रतिशत है जबकि पाकिस्तान की 2 प्रतिशत है। बसु के अनुसार वहां  प्रति व्यक्ति आय प्रति वर्ष 3.3 प्रतिशत प्रतिशत अंक बड़ रही है जो पाकिस्तान की  तुलना में ज्यादा है। जल्दी ही बंगलादेश पाकिस्तान से आगे निकल जाएगा। "यह किसी ऐसे देश के लिए कोई उपलब्धि नहीं है जिसने पिछले 70 वर्षों में बहुत अधिक उथल-पुथल देखी  है। भारत के विभाजन के साथ बंगाल के दिल का भी विभाजन हसो गया और इसने लाखों लोगों के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। एक तरफ जीवन और संपत्ति का नुकसान और दूसरी तरफ  कहर पैदा करने वाले लोगों की कारगुजारियों के साथ, बंगाल को पश्चिम बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान में बांट दिया गया । हालांकि, पाकिस्तान के दो टुकड़ों के साथ भारत उनके बीच फैल रहा था। बंगलादेश मुख्य रूप से उर्दू के मुकाबले  "बांग्ला" भाषा के लिए अपने प्यार से पैदा हुआ था। जैसा कि पंजाब प्रांत में लाहौर, पेशावर या रावलपिंडी से भागने वाले लाखों पंजाबी भाषियों के साथ हुआ है। बांग्ला- बोलने वाले समुदाय में ज्यादातर हिंदू शामिल हैं, जो सीमा के पश्चिमी किनारे पर बसे हैं , ये भारतीय हैं।1971 में, बंगलादेश का जन्म हुआ। उस दौरान भारी रक्तपात हुआ था। अब, सवाल उठता है कि 2006 तक एक युवा देश, जिसे "गरीब" और "निराशाजनक" के रूप में देखा जाता था  अचानक इस तरह की आर्थिक प्रगति कर सकता है? दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल और भारत में इस तरह का कोई भी  उथल-पुथल  नहीं हुआ  लेकिन आर्थिक रूप से यह ज्यादा विकसित नहीं हो सका। बंगलादेश के आर्थिक विकास के कुछ कारण हैं जैसे महिलाओं के सशक्तिकरण, ग्रामीण बैंक और बीआरएसी जैसे गैर-सरकारी संगठनों के प्रयासों और सरकार द्वारा समर्थित कुछ जमीनी पहलों ने बंगलादेश की सफलता में योगदान किया है। परिधान उद्योग देश के आर्थिक विकास का एक और कारण है। यदि हम भारत और बंगलादेश के बीच तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तो  एक अलग तस्वीर देखने को मिलेगी।  दरअसल पुराने पड़ चुके  श्रम कानूनों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को रोका है। भारत में 1947 में बनाया गया औद्योगिक विवाद अधिनियम, कर्मचारियों को अनुबंधित  करने और अपनी श्रम शक्ति का विस्तार करने की फर्मों की क्षमता पर भारी प्रतिबंध लगाता है, अंततः अच्छे से ज्यादा नुकसान कर रहा है। आजादी के बाद से पश्चिम बंगाल की स्थिति को देखें। विभाजन का पहला शिकार जूट था उद्योग के रूप में उत्पादक और निर्माताओं को अलग कर दिया गया। 1977 से 2011 तक बंगाल पर दो मुख्यमंत्रियों का शासन था। इस दौर में ही  आतंकवादी व्यापार ,संघवाद, लॉकआउट, कारखानों को बंद करने और इसलिए कोई आर्थिक विकास नहीं हुआ। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 1981 में पश्चिम बंगाल में भारत के औद्योगिक उत्पादन का 9.8 प्रतिशत हिस्सा था जो 2000 के दशक में 5.1प्रतिशत तक पहुंच गया। बिजली और नए मुख्यमंत्री के बदलाव के साथ, चीजों में सुधार हुआ। 2014-15 में, पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था में उद्योग क्षेत्र के प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है। पश्चिम बंगाल भारत की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। ऋण का बोझ वर्तमान शासन अपने पूर्ववर्ती से विरासत में मिला है, यह वास्तव में एक सतत आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए एक कठिन काम है। हालांकि, तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आने के बाद वे राज्य के कर्ज के बोझ को कम करने में सक्षम हैं। लेकिन गिरावट के बावजूद, राज्य का कर्ज-जीडीपी अनुपात देश में सबसे ज्यादा है।

2012 से 2017 के बीच 7.2 प्रतिशत की वार्षिक औसत वृद्धि के साथ, राज्य देश की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहा है। देश की 10 सबसे बड़ी राज्य अर्थव्यवस्थाओं में से पश्चिम बंगाल मध्य प्रदेश और गुजरात के बाद है। हालांकि, इस तरह के विकास से राजकोष में अधिक राजस्व जमा नहीं हो सका है। कर राजस्व का हिस्सा अन्य राज्यों की तुलना में कम रहा है। पश्चिम बंगाल में वृद्धि कृषि क्षेत्र द्वारा संचालित थी। 2015-16 में, राष्ट्रीय क्षेत्र के 1.1प्रतिशत के मुकाबले कृषि क्षेत्र में वृद्धि 5.55 प्रतिशत बढ़ी थी। राज्य में पिछले पांच सालों में उच्चतम बैंक ऋण प्रवाह दर्ज किया गया है। भूमि की कमी के कारण बंगाल में औद्योगिक विकास होने की संभावना नहीं है। सिंगूर की पराजय  के बाद वाम मोर्चा ने सत्ता गवां दी और राज्य की बागडोर ममता बनर्जी के हाथों में आ गयी। भूमि के जबरन अधिग्रहण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे औद्योगिक केंद्र या राजमार्ग जैसे विकास बुनियादी ढांचे के विस्तार की संभावनाओं को गंभीर रूप से सीमित हो गया है। 2015 की एक रिपोर्ट में "पश्चिम बंगाल गंभीर विश्लेषण में बीमार स्वास्थ्य स्थिति ", उत्कल विश्वविद्यालय के पीके राणा और बीपी मिश्रा ने ने 2015 में प​िश्चम बंगाल पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। जिसके अनुसार रिक्तियों और कर्मचारियों की अनुपस्थिति; वितरण में शहरी  समृद्ध पूर्वाग्रह और सुविधाओं का उपयोग, दवाओं की कमी और क्षेत्र स्तर पर अन्य आवश्यक आपूर्ति और  कर्मचारियों की कम कटिबद्धता   के कारण  पश्चिम बंगाल  की प्रगति असमान रही है। रिपोर्ट में कहा गया है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ की हड्डी बनने वाले ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में बुनियादी ढांचे, कर्मचारियों और आवश्यक दवाओं की कमी है। "इसी तरह की समस्याएं बंगलादेश और बंगाल दोनों को पीड़ित करती हैं। बंगलादेश में वृद्धि को बनाए रखने के लिए भ्रष्टाचार और असमानता जैसे मुद्दों को हल करना महत्वपूर्ण है, और यही सीमा के इस हिस्से पर भी लागू होता है। एक और बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल यह है कि नेतृत्व का राजनीतिक एजेंडा क्या है? यह  किसी भी देश की नीतियों और वातावरण को निर्धारित करता है। केवल एक सुरक्षित और धर्मनिरपेक्ष वातावरण एक सक्षम प्रशासन द्वारा उचित विकास सुनिश्चित कर सकता है।

Wednesday, June 27, 2018

विश्वास बहाली सबसे जरूरी

विश्वास बहाली सबसे जरूरी

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी- भाजपा गठबंधन के टूटने के बाद राज्य अधिक अनिश्चितता की ओर बढ़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य कई कठिन दौर से गुजर चुका है और बढ़ती अशांति इसे और अधिक संकट में डुबा सकती है। स्थिति को ताकत से संभालने के  नरेंद्र मोदी सरकार के  दृष्टिकोण से राज्य में शांति नहीं कायम हो सकी। वास्तव में, कई लोगों का मानना ​​है कि आज की स्थिति 2007 से भी खराब है। जब कुछ लोग  कश्मीरियों को भड़काने और उनके खिलाफ अश्लील टिप्पणियां करने में  लगे थे तो अदूरदर्शी   सरकार ने उन लोगों को (जिनमें से कई सत्तारूढ़ भाजपा का समर्थन कर रहे हैं) रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया , तो कश्मीरियों में भारी  भावनात्मक दुराव हो गया। एक बार भरोसा टूटने   के बाद, इसे फिर से कायम करना बेहद मुश्किल हो जाता है। सरकार को तेजतर्रार या हिंसा समर्थकों के उकसावे में आने के बजाए भरोसा कायम करने , सर्वसम्मति बनाने और आत्मविश्वास निर्माण उपायों को करना  करना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर की अनिश्चित वास्तविकताओं को देखते हुए  देश की सुरक्षा दरकिनार कर दी जाय। भाजपा नेताओं ने अक्सर कहा है कि भारतीय सेना को राज्य में खुली छूट दे दी गयी थी। फिर भी, हिंसा को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हो सकी और उल्टे  हमारे सामने एक और जटिल स्थिति उत्पन्न हो गयी है। यह याद रखना चाहिए कि सेना का काम राजनीतिक समाधान  ढूंढना नहीं है क्योंकि उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। यह काम राजनीतिक नेतृत्व का है और यह अपना काम करने में इच्छुक देखी गयी है। भाजपा को 2019 के लिए अपनी गणना और अपने महत्वपूर्ण मतदाता वर्ग को ध्यान में न रख कर  देश के सर्वोत्तम हितों में राज्य में बढ़ती अशांति को कम करने के साधन ढूंढने चाहिए। इसे अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए "टुकड़े- टुकड़े " गिरोह जैसे शब्दों का उपयोग करने से बचना चाहिये और उन लोगों को भी  हतोत्साहित करना चाहिए जो ऐसा कह रहे हैं बेशक वे सरकार के समर्थक ही क्यों ना हों।  कहने में ऐसे शब्द कोई उद्देश्य नहीं हैं बल्कि सोशल मीडिया में भड़काऊ प्रवृत्तियों को पैदा  करने के लिए काम करते हैं। चूंकि राज्य गवर्नर के शासन के एक और कार्यकाल से गुजर रहा है ऐसे में  केंद्र सरकार को तनाव को कम करने के अवसरों पर ध्यान देना चाहिए। पहले ही बात चल  रही है कि गवर्नर का शासन में कैसे केंद्र सरकार भुजाओं के जोर वाली कायम करेगी। सरकार के लिए समझदारी होगी यदि वह औसत कश्मीरी को और अलग - थलग होने  से बचाये। वर्तमान  गवर्नर का कार्यकाल जल्द ही समाप्त हो रहा है (और उसकी अवधि को विस्तारित करने की संभावना भी नहीं है), सरकार को ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति करने पर विचार करना चाहिये  जिसके पास दक्षता और अनुभव का सही मिश्रण हो। ऐसा व्यक्ति हो जो राज्य के बेहतर प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सैन्य और राजनीतिक दृष्टिकोण दोनों की बारीकियों को समझता हो।  

सरकार जो कुछ भी तय करती है, उसे ध्यान में रखना चाहिए कि इसे पुनर्निर्माण की कठिन प्रक्रिया शुरू करने के लिए भारत के लोगों और विशेष रूप से कश्मीर (साथ ही भारत में अल्पसंख्यकों) के लिए सही संकेत भेजने की जरूरत है। खोया हुआ विश्वास, अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ते अपराधों और जम्मू-कश्मीर में बढ़ते संघर्ष के साथ, सरकार इससे इनकार नहीं कर सकती है। इसे विश्वास बहाल करने और लोगों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने के लिए तेजी से कार्य करने की आवश्यकता है।  प्रदर्शनप्रिय सरकार को गहन संदेशों के महत्व का एहसास होना चाहिए जो भारत के सामाजिक ढांचे को  हुये नुकसान को पूर्ववत बनाने  में मदद करे।

Tuesday, June 26, 2018

कश्मीर  के लिये यही सही समय है

कश्मीर  के लिये यही सही समय है

पाकिस्तान यह साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देंगा कि घाटी में रहने वाले लोगों की परेशानियों का कोई जवाब  गवर्नर का शासन नहीं है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से गटबंधन वाली सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला करने के बाद जम्मू-कश्मीर  में 20 जून, 2018 को आठवीं बार   गवर्नर का शासन लागू किया गया। अब यह सोचने का समय है कि विकास आतंकवाद विरोधी अभियानों को कैसे प्रभावित करेगा, विशेष रूप से घाटी में युद्ध विराम रमजान के बाद अप्रभावी हो गया है। क्या यह घाटी में गोलियों से हुये छिद्रों को उजागर कर  रहा है, या यह सामान्य रूप से जीवन जीने की शुरूआत है? क्या जम्मू-कश्मीर में हताहतों की संख्या बढ़ेगी? क्या वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर गोलीबारी बढ़ जायेगी। ऐसे ढेर सारे सवाल अनुत्तरित हैं। राज्यपाल एनएन वोहरा ने जब घटी का कार्यभार संभाला तब से ही वहां की स्थिति बिगड़ने लगी। वास्तव में, यह गिरावट कुछ समय पहले शुरू हुई। जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन ऑल आउट की शलुरूआत के साथ ही हालात काबू में आने लगे थे। हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी  बड़ी संख्या में मारें गये थे। लेकिन इधर कुछ समय से भर्ती बढ़ने लगी और  स्थानीय युवाओं में आतंकवाद  में शामिल होने में अधिक उत्साह दिख रहा है। पत्थरबाजी का एक कारण  आतंकवादियों की मदद भी है। यह घाटी में एक खतरनाक विशेषता रही है जिसका उत्तर अभी तक नहीं मिला है। 'युद्धविराम' के दौरान ग्रेनेड का उपयोग भी देखा गया।  आतंकवादियों द्वारा नागरिकों, छुट्टी पर गये सैन्य कर्मियों और पुलिस अधिकारियों की हत्या के कुछ सनसनीखेज मामले भी हुये हैं।  राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी और सेना के राइफलमैन औरंगजेब को लक्ष्य के रूप में स्पष्ट रूप से प्रभाव के लिए चुना गया था। हत्याओं ने अंतिम संस्कार में जन भागीदारी को संभवतः वहां के समाज में एक दरार के रूप में तैयार किया गया। यह दरार  आतंकवादी संगठनों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन था। एलओसी के पास दर्रे खुले हैं। घुसपैठ के लिए यह सबसे अच्छा मौसम है। सीमा पार की गोलीबारी इतनी ज्यादा है कि सीमावर्ती गांवों में नागरिक शांति से नहीं रह सकते हैं। विशेष रूप से सीमा सुरक्षा बलों के जवानो के मारे जाने की घटना चिंता का कारण  है। दोनों सेनाओं के डायरेक्टर जनरलों में सैन्य अभियानों को लेकर विचार विनिमय का थोड़ा असर पड़ा है। यद्यपि ऑपरेशन  के  निलंबन के दौरान 23 आतंकवादी मारे गए , लेकिन संभवतः आतंकवादी समूहों ने इस अवसर को अपने आप को पुनर्गठित करने और अपने नेटवर्क को मजबूत करने की अवधि के रूप में उपयोग किया। अब श्रीनगर में नयी ​स्थिति से यह पता चलता है कि घाटी में समस्याओं के लिए  रातोंरात समाधान नहीं है। जहां तक ​​आतंकवाद विरोधी अभियान का सवाल है, सुरक्षा बलों को कम राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, संचालन की प्रक्रिया काफी हद तक वही रहेगी। नागरिकों  की मौत और क्षतिपूर्ति कम से कम रखने की कोशिश होगी और  ठोस खुफिया-आधारित सूचनाओं का संचालन करने की आवश्यकता है।  हालांकि, सुरक्षा बलों को खुफिया जानकारी पर कार्य करने की स्वतंत्रता होगी। 'युद्धविराम' के दौरान कई ऑपरेशन शुरू करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि बहुत से ऑपरेशंस ने इस कदम की विफलता को संकेत दिया होगा। अब, यह साबित करने के लिए पाकिस्तान द्वारा एक ठोस प्रयास किया जाएगा कि राज्यपाल का शासन कश्मीर की परेशानियों का कोई जवाब नहीं है। जिस पद्धति का प्रयास किया जाएगा वह नया नहीं है। वह घाटी के हर संसाधन का उपयोग करेगा, विरोध प्रदर्शन, पत्थरबाजी, आतंकवादी हमलों आदि से शुरू होने वाली गतिविधियों के विस्तार को बढ़ावा देगा। चुनाव के लिए तैयार राजनीतिक दलों के साथ, पाकिस्तानी और आईएसआईएस झंडे के प्रदर्शन के लिए राजनीतिक बैठकों का उपयोग करने के अवसर होंगे।  राजनीतिक संगठनों को बदनाम करने की रणनीति आतंकवादी संगठन अपनायेंगे  और खुद को सामान्य कश्मीरियों के लिए एकमात्र उम्मीद के रूप में पेश करेंगे। आईएसआईएस इसे राजनीतिक  की बजाय इस्लामी आंदोलन के रूप में पेश करने का प्रयास करेंगे। असल में, दिल्ली ने हाल ही में कुछ कट्टरपंथी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया है जिनमें आईएसआईएस इत्यादि शामिल हैं। चुनाव दूर नहीं हैं और ,  राजनीतिक बैठकों में आतंकवादी व्यवधान संभव है। हालांकि, पाकिस्तान के हैंडलर्स को इस तथ्य को समझना होगा कि नागरिकों की हत्या से जनता भड़क अठेगी। मतदाताओं में डर पैदा करने और उन्हें मताधिकार  का इस्तेमाल करने से इनकार करने के लिए चुनावों के आसपास , इस तरह के व्यवधान की उम्मीद की जा सकती है। जहां तक ​​राज्य में नए नेतृत्व का सवाल है, इसे बिना किसी हस्तक्षेप के उचित बल के उपयोग की अनुमति देनी चाहिए। वर्तमान स्थिति अविश्वसनीय नहीं है। यदि हमें एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव चाहिए तो यह जरूरी है कि आतंकवादी तंजीमों  को लगातार दबाया जाए और उनके प्रत्यक्ष नेटवर्क को नष्ट कर दिया जाए। केवल तभी लोगों को साहस से बाहर निकलने और अपने मधादिाकार का उपयोग करने के लिए सही परिस्थितियां पैदा की जा सकती हैं। आतंकवाद विरोधी कार्रवयी निरंतर आक्रामक हसोनी चाहिये।  प्राथमिकता के आधार पर सुरक्षा बलों को तंजीमों को खत्म करना होगा। ऑपरेशन के निलंबन के दौरान स्थानीय भर्ती में वृद्धि को साबित करने के सबूत  नहीं हैं। नए प्रशासन और सुरक्षा तंत्र को पत्थरबाजी   का जवाब खोजने की जरूरत है। इसमें केवल पत्थर फेंकने वालों से लड़ना शामिल नहीं है बल्कि इन गतिविधियों का आयोजन  करने वाले नेतृत्व और नेटवर्क को  नेस्तनाबूद करना भी शामिल है। दूसरी बड़ी समस्या मारे गए आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में उपस्थिति है। अक्सर, आतंकवादी इन सभाओं में शामिल होते हैं और हवा में अपनी मैगजीन को खाली करते हैं, जबकि उनके कामरेड अपने संगठनों और पाकिस्तान के झंडे उठाते हैं। लोगों को ऐसी घटनाओं में भाग लेने से प्रतिबंधित करना मुश्किल होगा। साथ ही, आतंकवादियों को युवाओं को प्रेरित करने के लिए इन अवसरों का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। आतंकवादियों को अंतिम संस्कार में शामिल करने और खुलेआम अपने हथियारों और फायर पावर को प्रदर्शित के दौरान टारगेट करने के लिए स्नाइपर्स का उपयोग किया जा सकता है। तथ्य यह है कि आतंकवादी कोई बड़ा हमला नहीं कर सकें। 

Monday, June 25, 2018

समाज और सियासत पर बढ़ रहा खतरा 

समाज और सियासत पर बढ़ रहा खतरा 

आजादी के बाद से ही निष्पक्षता- तटस्थता खतरे में है। महात्मा गांधी  से लेकर शुजात बुखारी तक की हत्या केवल इसलिये हो गयी कि वे किसी एक गुट या पक्ष के साथ ना हो कर तत्कालीन घटनाओं में बीच की राह तलाश रहे थे। संवाद के माध्यम से समाधान की ओर बढ़ने की वकालत कर रहे थे। इन दिनों देश में बुद्िध्जीवियों और विचारकों पर यह जोर पड़ रहा है कि वे स्पष्ट करें कि किस विचारधारा के हिमायती​ हैं। लोकतंत्र के पांचवें खंभे के तौर पर धीर-धीरे विकसित हो रहे सोशल मीडिया में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि किसी एक विचार को लेकर कितने विरोधी विचार सामने आते हैं। खास कर , ऐसे विचार देखने सुनने को मिलते हैं जो सोचने समझने मेधा को कुंद कर ते। तटस्था को इनदिनों सियासी पाखंड करार दिया जा रहा है। कुछ लोग इसे राजनीतक अवसरवाद और मौके का इंतजार कह रहे हैं और बार- बार कहा जा रहा है कि

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

कश्मीर से कन्या कुमारी तक तटस्थ शब्द के दर्शन का गलत अर्थ समझा और समझाया जा रहा है। यह शब्द दरअससल निष्पक्षता के बहुत करीब है। आप एक ऐसी ​ स्थिति की कल्पना करें जिसमें किसी घटना के दोनो पक्ष सत्य से अलग हैं और आप उनदोनों पक्षों से अलग होकर सत्य का पक्ष अपनाते हैं और दोनों से अलग अपना पक्ष रखते हैं तो यह तटस्थता है। अब ऐसी स्थिति में एक पक्ष को महसूस होता है कि वह विरोधी पक्ष का समर्थन कर रहा है और फिर इसी मनोभाव के कारण दोनों आपके दुश्मन हो जाते हैं। आज क्या हो रहा है कि देश में अधिकांश लोग किसी ना किसी पक्ष के सााथ हैं या उसके खिलाफ हैं। कुछ लोग एकदम चुप हैं। ऐसे चुप्पी निरपेक्षता है तटस्थता नहीं। गलती से निहित स्वार्थी लोग निरपेक्षता को तटस्थ कह दे रहे हैं। घटना या किसी स्थिति से मुंह मोड़ लेना तटस्थता नहीं है, सच का साथ देना तटस्थता है। तटस्थ लोग इसी लिये बहुत कम हैं और उनका कोई गुट नहीं है। अगर वे चाहें भी एक गुट बनाना तो यह गलत हो जायेगा। वे लोग सदा दलबंदी का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले गांधी की हत्या पर या राण प्रताप की के युद्ध पर बहस चली थी और उसमें इतिहास की तटस्थता को गुटबंदी से व्याख्यायित करने की कोशिश की गयी, दलबंदी के बल पर अपराध का औचित्य प्रमाणित करने कोशिश होती है , जो इसके विरोध में कहता है उसे प्रताड़ित होना पड़ता है। अमूर्त लोकवर्ग उसके पक्ष में नहीं खड़ा होता है।रिा ध्यान से देखें तो लगेगा हमारा समाज बुरी तरह से राजनैतिक ध्रुवों पर एकत्रित हो रहा है। केवल ध्रुव के चयन का विकल्प है हमारे पास, किसी एक प्रचलित विचारधारा को अपनाने की सहूलियत है आम आदमी के पास। दरअसल वह विचारधारा खुद में चरम सत्य होने का अहंकार पाल लेती है और अपने पीछे चलने वालों को हिंसक बनाने की संभावना से लैस होती है। हर नयी बात की तीखी प्रतिक्रिया होती है और हिंसा चाहे वह कर्म की हो या बातों की उसका औचित्य प्रमाणित करने का प्रयास होता है। चारों तरफ विचारधारात्मक घटाटोप है और विभिन्न गुट इसमें अपनी मशालें जलाये घूम रहे हैं। चारों तरफ उसे हराया और उसकी सरकार बनवाया जैसी बहस चल रही है। यह अंदोरा ऐसा है जिसमें अरस्तू से लेकर गांधी तक गुम हो गये लेकिन उम्मीद है कि अंदोरे के ऊपर तने आकाश में नये सितारे पैदा होंगे। दूसरी तरफ जिन्होंने सितारों को गुम करने की क्रिया को बल दिया वे बड़े शान से कहते हैं कि चलो देश की लाज बच गयी। 

कौन रोता है वहां इतिहास के अध्याय पर 

जो आप तो लड़ता नहीं,

कटवा किशोरों को मगर,

आश्वस्त होकर सोचता,

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?

कबीर ने कहा है कि "घूंघट के पट खोल .... " , यह घूंघट का पट संकीर्ण विचारधारा या दलबंदी है इससे बाहर निकलने पर ही​ सत्य का दर्शन होगा। सोचिये आज क्या हालत है कि हमें नक्सलियों से लेकर कश्मीरियों तक से बातचीत करने के लिये एक तटस्थ आदमी नहीं मिल रहा है ओर अगर मिल भी गया तो वह सबको एक समझौते के लिये तैयार नहीं कर पायेगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा संगठन या नहीं दिखता जिसका कहा सभी मानें। राष्ट्र संघ् केवल अपनी लाज बचाता सा दिखता है। समाज खतरे में है।अगर अभी नहीं चेता गया तो आने वाला कल कितना खतरनाक होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।