यह दुविधा कैसी ?
एक जमाने में पी वी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह को मौनी बाबा कहा जाता था। वे किसी मौके पर कठोर फैसले नही लेने के लिए बदनाम थे।यही बात अटल बिहारी वाजपेयी के साथ भी थी।मोदी जी की छवि इससे विपरीत थी। गत वर्ष डोकलाम में चीन के साथ विवाद के वक्त, अमरीका के साथ चल रहे टैरिफ के विवाद के समय यहां तक कि भुगतान संतुलन जैसे बाहरी मामलों को जिस शानदार ढंग से मोदी जी निपटाया उससे उनकी छवि और मजबूत हो गयी। लेकिन इसके साथ ही जबसे वे सत्ता में आये तबसे अबतक कई ऐसे वाकये हुए हैं जिससे ऐसा लगता है कि जब वह समस्याओं से घिर जाती है तो अम्नेसिया का शिकार हो जाती है।वह किसी फैसले पर अडिग रहती है नहीं है। वह यह नही देख पाती कि किस दिशा में कदम उठाना है। फिलहाल सी बी आई के मामले में ऐसा ही दिख रहा है। इसके पहले एम जे अकबर का मामला आया था उस समय भी सरकार की हालत ऐसी ही थी कि उसे सूझ ही नहीं रहा है क्या करना है। लगता है कि जब संकट की घड़ी आती है तो मोदी जी तय नहीं कर पाते कि क्या करना है?
यह प्रश्न अगर किसी नेता के सामने रखा जाय तो वह सीधे कहेगा कि मोदी जी में क्षमता नहीं है कठोर फैसले लेने की। कुछ नेता कहेंगे कि मोदी जी अहंकारी हैं। लेकिन दूसरे देशों से जब कोई मामला उलझता है तो मोदी जी बेहद समझदारी से निर्णय लेते दिखते हैं। और ऐसे मौके पर नेताओं की बात गलत दिखाई पड़ती है।
लेकिन अगर अफसरशाही में यह प्रश्न उछाला जाय तो उत्तर अलग मिलेगा। बड़े अफसर मोदी जी के प्रति नरम हैं खासकर अवकाश प्राप्त अफसर। वे एकदम अफसरशाही की सुस्त चाल का समर्थन करते दिखेंगे।वे कहेंगे कि सरकार को कोई भी फैसला जल्दीबाजी में नहीं करना चाहिए ना ही ऐसा करते दिखना चाहिए। हर फैसले की दिशा में बढ़ने की समयसिद्ध प्रक्रिया होती है और उसी प्रक्रिया के अनुरूप फैसला किया जाना चाहिए। किसी भी मामले में उसके सभी पक्षों की समीक्षा की जानी चाहिए। सुनने में यह बात सही लगती है पर हर घरेलू मसले में ऐसा सही नहीं है। के मामले आईओसी होते हैं जिनमें एक हफ्ते की देरी भी मतदाताओं को नाराज कर सकती है और विपरीत विचार बना सकते हैं, खास कर जब चुनाव निकट हो तो डर और बढ़ जाता है। अफसरों की बात को इन उदाहरणों से बल मिलता है कि मोदी जी जल्दीबाजी में कई फैसले किये जो गलत साबित हुए इसमें नोटबन्दी , जी इस टी, खाते में सीधे रुपया भेजने की योजना इत्यादि सबसे बड़ा उदाहरण है। जल्दीबाजी में गलत निर्णय करना एक तरह से मोदी जी आदतों में शामिल है और प्रभावशाली शासन पर इसका क्या असर पड़ेगा इसका अंदाजा लगाना कठिन है। इस वजह से आलोचकों का कहना है कि मोदी जी का सरकार पर से नियंत्रण घटता जा रहा है।
मोदी जी के गलत फैसलों का प्रभाव उनकी ऐसी छवि बना रहा है कि वे नैतिकता की परवाह नहीं करते। वे निरंकुश हैं और उनके साथी उनसे डारे हुए हैं। मोदी जी को यह समझना होगा कि राजनीति में डराने - धमकाने वाली छवि अच्छी नहीं होती। इसके बारे में भगत लोग तर्क दे सकते हैं कि अनुशासन अच्छी बात है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि पार्टी में निराशा बढ़ती जा रही है वह यह नहीं सोचती कि बेशक 2014 में उसे बहुमत मिला लेकिन उसे महज 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे। अगर विपक्ष ने भा ज पा के खिलाफ संयुक्त उम्मीदवार दिया तो हवा बदल सकती है।
तीन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं और तीनों हिंदी भाषी राज्य है। इनमें लोकसभा की कुल 65 सीटें हैं जिनमें 2014 में भाजपा को 62 सीटें मिलीं थींऔर राजस्थान तथा मध्य प्रदेश उसे 55 प्रतिशत वोट मिले थे। अगर इन तीन राज्यों में भाजपा को जरा भी नुकसान हुआ तो लोकसभा चुनाव में मुश्किल आएगी। 2014 में भाजपा की बड़ी जीत का अर्थ था कांग्रेस का खराब प्रदर्शन । अगर तीन राज्यों में कांग्रेस को जरा भी फायदा हुआ तो भाजपा के लिए बुरी खबर है।
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