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Saturday, November 17, 2018

फौजियों के मामले में क्या हुआ मोदी जी का वादा?

फौजियों के मामले में क्या हुआ मोदी जी का वादा?

नागरिक प्रशासन और सेना के बीच तनाव पिछले हफ्ते पहले विश्व युद्ध के युद्ध विराम दिवस पर आयोजित एक समारोह में एक बार फिर सामने आ गया। यह समारोह  9 से 11 नवंबर के बीच हुआ था । उस समय  भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू फ्रांस गए थे। वहां से लौटकर, शायद उनसे किसी ने कहा, उन्होंने कहा कि उस लंबे युद्ध में हमारी फौज के अवदान के बारे में हमारे देश के नौजवानों को जानना चाहिए। उन्होंने ऐसा कहा मानो वह युद्ध हमारा नहीं था। इस भावना को स्वीकृति देते हुए प्रधानमंत्री ने भी एक ट्वीट किया इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा वे पहले विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की शहादत स्मृति में हाइफा  और नियो चैपल में निर्मित स्मारक में भी गए थे। हमारे देश की आईएएस अफसर बिरादरी जो युद्धक संस्कृति के पक्ष में नहीं है वह भी शानदार फौजी समारोहों में शालीनता पूर्वक शामिल होते हैं । इस अवसर पर भी उन्होंने इंडिया गेट पर संयुक्त रूप से भारतीय  और ब्रिटिश  बैंड  का समारोह  आयोजित किया था। इसके लिए दो प्लान तैयार किए गए थे। जिसमें एक को अंतिम क्षण में रद्द कर ब्रिटिश हाई कमिश्नर के आवास पर कर दिया गया । दूसरा आयोजन था इंडिया गेट पर जिसमें प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को माल्यार्पण किया जाना था। इसमें दो ब्रिटिश जनरलों  को शामिल होना था लेकिन उन्हें अनुमति देने में बेवजह देरी कर दी गई । रक्षा मंत्रालय का गैर पेशेवर रवैये ने शर्मसार कर दिया। इस अवसर पर जो वृहद कार्यक्रम आयोजित हुआ था उसमें रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधी शामिल नहीं हुए और ना ही सेना के समारोह प्रभाग के प्रतिनिधि मेजर जनरल कलिता  ही उसमें शामिल हुए।  सबको याद होगा कि 2014 में जब प्रथम विश्व युद्ध आरंभ होने की तिथि की शतवार्षिकी मनाई गई थी तो उस समय इसी तरह के एक समारोह का आयोजन किया गया था और उस समारोह में तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली और सेना प्रमुख दलबीर सिंह ने बड़े जोर-शोर से भाग लिया था। इसमें तत्कालीन ब्रिटिश सुरक्षा सचिव माइकल फैलोन भी शामिल हुए थे उस दौरान गोरखा और रॉयल इंजीनियर्स के बैंड ने अविस्मरणीय प्रदर्शन किया था। इस समारोह में अवकाश प्राप्त सैनिक, इतिहासकार और प्रथम विश्व युद्ध के बारे में शोध करने वाले लोग भी शामिल हुए थे।  उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना के अवदान पर काफी ऐसा कुछ कहा था तो अब तक अनजान था। इस समारोह का दूसरा हिस्सा था ब्रिटिश इंडियन आर्मी की रेजीमेंट की डायरी को वापस करना। इसमें भारतीय सेना के जनरलों को आमंत्रित किया गया था लेकिन उन्हें अनुमति नहीं दी गई। उनकी  जगह  अवकाश प्राप्त जनरल शामिल हुए और उन्हें वह डायरी सौंपी गई । समारोह में पूर्व सेनाध्यक्ष वीएन शर्मा तथा पूर्व राज्यपाल  जनरल जेजे सिंह शामिल हुए थे । जनरल शर्मा ने अपने भाषण में इस आयोजन के लिए ब्रिटिश हाई कमिश्नर डोमिनिक आस्किट को धन्यवाद दिया। आस्किट ने अपने भाषण में कहा  कि यह निराश करने वाला तथ्य है कि भारत के राजनीतिक नेता अपने बच्चों को फौज में नहीं भेजते हैं  जबकि इंग्लैंड में ऐसा नहीं होता है। उनकी इस बात पर वहां जमा श्रोताओं की भीड़ ने "शर्म शर्म" के नारे लगाए। इससे एक बात तो साफ हो गई कि व्यवस्था के असहयोग से असंतोष पैदा हुआ है। क्योंकि यह समारोह  एक ऐसे अवसर की स्मृति में आयोजित किया गया था  जिसमें 1 लाख 40 हजार भारतीय सैनिकों में भाग लिया था जिसमें 74 हजार शहीद हो गए और 13 हजार फौजियों को शौर्य पुरस्कार मिला, जिनमें में 11 सैनिक विक्टोरिया क्रॉस प्राप्त करने वाले थे।
    इससे स्पष्ट है कि प्रथम विश्व युद्ध के सेनानियों का स्मरण करने वाले ब्रिटिश समुदाय की सोच बदल रही और वे भारतीय फौजियों के अवदान को मंजूर कर रहे हैं। इसी तरह भारतीय अधिकारी भी उस युद्ध में भारतीय  सेना की उल्लेखनीय भूमिका को मंजूर कर रहे हैं, लेकिन अभी भी इसे अपना युद्ध नहीं मानते। रियासत के जमाने की फौज का स्मरण दिलाने वाले तीन मूर्ति चौक का नाम बदलकर 2017 में तीन मूर्ति हाइफा चौक कर दिया गया  और इस अवसर  पर आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू उपस्थित हुए थे। इसमें  पहली बार फ्लैंडर्स पॉपी को खादी का बनाया गया था। भारत में गेंदे के फूल को इस अवसर के लिए चुना गया। क्योंकि केसरिया रंग आमतौर पर कुर्बानी का संकेत देता है और दूसरी बात कि यह फूल देश में सरलता से उपलब्ध है। इंग्लैंड में 2011 में सेना से संबंधित एक नियम बना जिसमें सेना की कुर्बानी को स्वीकार करने के लिए देश सरकार और फौज की नैतिक जिम्मेदारी दी गयी है । बाद में यह कानून बन गया और इसमें वयोवृद्ध फौजियों को शामिल किया गया। ताकि उनके साथ विशेष सलूक किया जा सके। भारत में अभी भी अवकाश प्राप्त सैनिक "एक रैंक एक पेंशन" के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसका मोदी जी ने बढ़-चढ़कर वादा किया था । सरकार का यह दावा कि इसने सेना के लिए वह सब किया है जैसा किसी सरकार ने नहीं किया था , खोखला है। क्या विडंबना है कि एक सरकार में चार-चार रक्षा मंत्री हैं, रक्षा का बजट सबसे कम है, वेतन में कई-कई गड़बड़ियां हैं। अतः रक्षा मंत्रालय की सुस्ती पर हैरत नहीं होनी चाहिए। पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने फौजियों को अपमानित करने वाले कुछ बाबुओं को सियाचिन भेजकर सबक सिखाया था लेकिन पिछले हफ्ते जो हुआ उसे सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं  होता नही दिख रहा है। अफसरशाही के व्यवहार और उसकी संस्कृति को बदलने की जरूरत है । यह समय कुछ ऐसा है कि सेना को भी अपनी उपस्थिति बतानी होगी। देश की जनता को एक ऐसा दिन तय करना होगा कि सारा भारत उस दिन गेंदे के फूल का माला पहने।

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