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Sunday, November 18, 2018

देश में यह विरोधाभास क्यों

देश में यह विरोधाभास क्यों


भारत में कानून के शासन पर संकट छा रहा है। कागजों पर हमारी संस्थाएं और हकीकत में वो कैसे काम कर रही हैं इन दोनों में बहुत फर्क होता जा रहा है। पुलिस के  अफसरों में भ्रष्टाचार ,अत्याचार और गरीबों के शोषण आदतें पड़ रही है और हिंसा शासन का 

 औजार हिंसा होती जा रही है। अभी 2 दिन पहले की घटना है। बंगाल के रामपुरहाट के एसडीओ ने पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव से उसी डिवीजन के एसडीपीओ की शिकायत की लिखित शिकायत की  जिसमें कहा गया है कि वह अफसर थाने में जाकर पुलिस के अफसरों से दुर्व्यवहार कर रहा था। सीबीआई के दो अफसरों के बीच जो हुआ  वह पूरा देश जानता है। पुलिस व्यवस्था में अधिकारी के तौर पर एसडीपीओ पहली सीढ़ी  है और सीबीआई के निदेशक इस क्रम में सर्वोच्च हैं । भ्रष्टाचार और अत्याचार की घटनाएं तो अक्सर सुनने तथा देखने में आती हैं ,खास कर के सबका निशाना बोलने के अधिकार को छीनना होता है। जब मोदी जी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने कहा था कि "न खाऊंगा न खाने दूंगा ,भ्रष्टाचार मिटा कर दम लूंगा । "आज हालात यह हैं कि भ्रष्टाचार , पारदर्शी सरकार , व्यवस्था  और सुरक्षा के मामले में डब्ल्यू जे पी  रूल आफ लॉ  इंडेक्स  17 -18  के अनुसार 113 देशों की सूची में भारत का स्थान 62 वां है ,जो अत्यंत गरीब मुल्क नेपाल से भी नीचे नेपाल 58 वें स्थान पर है ट्यूनीशिया मंगोलिया और घाना जैसे देश भी हमसे अच्छी स्थिति में हैं। हमारे सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार और विलंब से न्याय की घटनाएं किसी से छुपी नहीं हैं। सांविधानिक ध मूल्यों को लगातार  निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा नजर अंदाज किया जा रहा है । हाल में हमारे वित्त मंत्री ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाया और संविधान को मानने वालों और भक्तों के बीच  दरार पैदा कर दी। आज हम वजूद के खतरे से जूझ रहे हैं। जब भी संविधान के लक्ष्य और उसकी अनिवार्य भूमिका कि हम तुलना करते हैं तो पाते हैं कि वह स्तर से नीचे गिर रहा है। कट्टरपंथी बहस बढ़ रही है और बहस की गुणवत्ता धीरे-धीरे घटती जा रही है । मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं । संविधान का उद्देश्य था कि संस्थान एक राह  से चलेंगे और उससे समाज में परिवर्तन आएगा लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
        भारत कानून के शासन के संदर्भ में सिद्धांत और व्यवहार के मामले में भारी विरोधाभास से गुजर रहा है और इसका नागरिकों पर गंभीर प्रभाव हो रहा है । दुनिया के सभी समाज में कागज पर जो लिखा है वह और व्यवहार में जो हो रहा है वह दोनों में फर्क रहता है लेकिन भारत में इस विरोधाभास को चुनौती नहीं है । न्यायपालिका कैसे काम करे, क्या यह सही ढंग से काम कर रही है या इसके काम करने के ढंग को सुधारना होगा?  हम यह सवाल अपने से नहीं पूछते। इस विरोधाभास से लोकतंत्र में समानता और मूलभूत अधिकार को खतरा पैदा होते जा रहा है। आप कहेंगे  कानून के शासन के खिलाफ भारत में  असहमति के नारे नहीं लग रहे हैं । इसका कारण है कि आवाज को धीरे धीरे कुंद किया जा रहा है। हम खुद को एक कार्यात्मक अराजक समाज या अकार्यात्मक लोकतंत्र मानें, इसका चयन हमें खुद करना होगा। आप कह सकते हैं हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि बड़ी-बड़ी  रैलियों में हमें  अपनी बात सुनाने के लिए आमंत्रित करते हैं लेकिन कितनी बड़ी विडंबना  है कि  सार्वजनिक जीवन से सार्थक बहस खत्म होती जा रही है। ऐसा एक बार में नहीं हुआ है । यह एक अनवरत प्रक्रिया है और इसका मुख्य कारण राजनीतिक दलों के भीतर लोकतंत्र का खात्मा , ताकतवर नेताओं का उदय और चुनाव के खर्चे तथा भ्रष्टाचार में वृद्धि है । लोकजीवन में व्याप्त इन गुणकों ने  समाज में सार्थक बहस को समाप्त कर दिया। अब  कोई बहस को बर्दाश्त ही नहीं करना चाहता। बहस को समाज में पुनः स्थापित करने के लिए हमें राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को प्रोत्साहित करना होगा तथा चुनाव में भ्रष्टाचार को कम करना होगा। दोनों बहुत कठिन काम हैं।
      दूसरी बात आती है कानून के शासन या कहें रूल आफ लॉ को कैसे बचाया जाए?  उसकी कैसे हिफाजत की जाए ? सचमुच यह बड़ा कठिन काम है ।सिद्धांत रूप से कहें तो सभी संस्थानों को अपने नियमों के अनुरूप काम करना होगा और  लोगों में  कानून की  इज्जत करने की प्रवृति बढ़ानी होगी। लेकिन क्या यह संभव है ? इसके लिए कौन खड़ा होगा ?प्रश्न ही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? अदालतों में 270 लाख मामले लंबित पड़े हैं। जजों का अभाव है ।मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती है । अगर प्रभावशाली ढंग से मामलों की सुनवाई हो तो यह मामले निपट सकते हैं।  हमारे देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या है। भ्रष्टाचार का हर मामला एक चैलेंज है। क्योंकि देश जितना ज्यादा भ्रष्ट होगा उस देश में कानून का शासन उतना ज्यादा कमजोर होगा। हमें भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक जंग छेड़ने होगी । भ्रष्टाचार केवल पैसों से संबंधित नहीं है। तरह-तरह की जरूरतों के सामने झुकना भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है और इसे खत्म करने के लिए प्रणालिगत और दृढ़ प्रयास करने होंगे ।अक्सर देखने में आता है कि पुलिस और राजनीतिज्ञ सांठगांठ करके नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं और  काल्पनिक सार्वजनिक हित के नाम पर उस क्रिया का औचित्य बताते हैं। यहां मुख्य बात यह है कि ऐसे मौकों पर पुलिस और राजनीतिज्ञ सार्वजनिक हित तथा नैतिकता को तुरंत सामने रख देते , इसी बहाने बोलने की आजादी छीन लेते हैं । इसके लिए सभी पार्टियां दोषी हैं, कोई कम कोई ज्यादा।
        


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