मोदी और पटेल आमने सामने
यद्यपि मोदी और पटेल के आमने सामने के मुकाबले की बात कहना तकनीकी रूप से बहुत सही नहीं है ,क्योंकि सरकार के हर फैसले के लिए प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार होता है। लेकिन जहां तक नोटबंदी का प्रश्न है वह मोदी जी की व्यक्तिगत अस्मिता की तरह था। मोदी जी नवंबर और दिसंबर 2016 तक इसे जायज और कामयाब बताते रहे थे। उनके भगत लोग भी इसी को लेकर काफी प्रचार कर रहे थे। उसके बाद से ही मामला बिगड़ने लगा। 2 वर्ष के बाद अब जबकि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कह दिया कि नोट बंदी से अर्थव्यवस्था को आघात पहुंचा है तो बात कुछ दूसरी हो गई । राजनीतिक फैसलों में अधिकार का ज्यादा केंद्रीकरण समस्या पैदा करता है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने 11 नवंबर को वाशिंगटन में कहा की नोट बंदी और जीएसटी भारत की आर्थिक विकास के रास्ते में रुकावट बन रहे हैं और जिस 7% विकास दर की बात की जा रही है वह देश की मौजूदा समस्या को हल करने में कारगर नहीं है। यही नहीं, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक तरह से सरकार पर तंज करते हुए कहा कि हमने दुनिया में सबसे बड़ी मूर्ति बनाई है। यह प्रदर्शित करती है कि जहां संकल्प होगा वहां सफलता मिलेगी, लेकिन क्या यह संकल्प "दूसरी जगह " नहीं दिख सकता है।
हालांकि, उर्जित पटेल ने इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की । उनकी चुप्पी को उनकी स्वीकारोक्ति समझा जा रहा है। इसके बाद भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच का विवाद अब चौराहे पर आ गया है । जब से यह विवाद उभरा है तब से तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह वर्चस्व की लड़ाई है और इसे टाल देना चाहिए। दोनों पक्ष अपने-अपने अपने स्थान से पीछे हट जाएं। क्योंकि, सार्वजनिक शासन के लिए व्यवस्था में तरलता ज्यादा जरूरी है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि रिजर्व बैंक की जमा पूंजी पर हाथ डालना सही नहीं है। लेकिन एक प्रश्न है कि सरकार ने रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड अपने राजनीतिक समर्थकों को भर दिया है और तब इस तरह के फैसले करने की बात चल रही है । क्योंकि इस तरह के फैसले अक्सर प्रबंधन स्तर पर ही निपटा दिए जाते हैं।
बोर्ड का काम मार्गदर्शन करना है ना कि पेशेवर प्रबंधन में दखल देना । तकनीकी मामलों में फैसले करने का काम पेशेवर प्रबंधन का है और उस पर ही छोड़ देना चाहिए। वैसे अब तक जो टिप्पणियां देखने को मिली हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि बहुसंख्यक विश्लेषक रिजर्व बैंक के पक्ष में हैं। बैंक को यह परामर्श भी दिया जा रहा है किवह अपना रवैया लचीला रखे और विचार विमर्श के रास्ते खुले रखे । सरकारी पक्ष का मानना है कि रिजर्व बैंक के पास जरूरत से ज्यादा पूंजी जमा हो गई है। उसे यह पूंजी सरकार को दे देनी चाहिए, ताकि उसका उपयोग आर्थिक विकास में हो सके । यह पूंजी तो आखिर सरकार की ही है । वैसे रिजर्व बैंक को उसकी बजाहिर नाकामियों के बावजूद जवाबदेह नहीं ठहराया गया है। रिजर्व बैंक को सरकार से विवाद में पड़ना ही नहीं चाहिए। दोनों पक्षों को टकराव से बचने के लिए जो भी सलाह दी जा रही है उस पर अमल थोड़ा कठिन लगता है। अर्थव्यवस्था पर सच में दबाव है। इसके अलावा यह विवाद व्यक्तित्व का भी है। रिजर्व बैंक के गवर्नर वस्तुतः एक बड़े पदाधिकारी हैं। लेकिन निहायत सख्त और संवादहीन से लगते हैं। पिछले कई गवर्नर भी सख्त थे पर संवाद हीनता उनमें नहीं थी। वह बातचीत को तैयार रहते थे। पिछले कुछ गवर्नर्स को जिस तरह अपने पद से जाना पड़ा वह शोभनीय नहीं था। वर्तमान गवर्नर का कार्यकाल अभी बाकी है और सरकार भी उन्हें समय से पहले चलता करने के मूड में नहीं दिखती। इधर रिजर्व बैंक के दो डिप्टी गवर्नर के हालिया बयान से पता चलता है कि उसके आला अफसर सख्त रुख अपनाए हुए हैं । अगर केंद्रीय बोर्ड की अगली बैठक में सरकार ने इनके हाथ बांधने की कोशिश की तो हो सकता है वे इस्तीफा दे दें। इसका बड़ा ही नकारात्मक राजनीतिक असर होगा। आर्थिक मामलों में सरकार की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है । हालात यह हैं कि उसे अभी तक कोई मुख्य आर्थिक सलाहकार तक नहीं मिल पाया है। अगर रिजर्व बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर ने इस्तीफा दे दिया तो सरकार को इन पदों के लिए उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री मिलना मुहाल हो जाएगा। अगर वह विदेश से ला कर किसी को इन पदों पर बैठाती है तो राजनीतिक हलकों में इतनी आलोचना होगी सरकार के लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो जाएगा।
ऐसी स्थिति में चतुराई से काम लेना ही सरकार के लिए मुफीद होगा। सरकार ने अगर अड़ियल रुख अपनाया उसका असर आने वाले चुनाव में दिख सकता है। राजनीतिक हालात अभी से यह संकेत दे रहे हैं कि सरकार जोखिम नहीं उठा सकती।
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