जेटली को गुस्सा क्यों आया?
इन दिनों वित्त मंत्री अरुण जेटली साहब और उनकी पार्टी की सरकार बड़ी सांसत में पड़ी हुई है। रिजर्व बैंक से रस्साकशी चल रही है, सुप्रीम कोर्ट से भी गड़बड़ है और सीबीआई को लेकर मामला ही उल्टा पड़ गया है। ऐसे में बड़ा अजीब लगता है जब अरुण जेटली सत्ता के पृथक्करण पर बोल रहे हों। उन्होंने हाल में अटल बिहारी वाजपेई स्मृति व्याख्यानमाला में निर्वाचन से प्राप्त अधिकारों को कमजोर करने और गैर जिम्मेदार संस्थानों को अधिकार देने का समर्थन करने का विरोध किया। तब से स्वदेशी जागरण मंच ने जेटली की इस बात का समर्थन शुरू कर दिया । स्वदेशी जागरण मंच आर एस एस की आर्थिक इकाई है। एक अकादमिक ने भी इसका समर्थन किया है। इमानदारी से कहें तो वर्तमान की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पहली नहीं है जिस पर इस तरह की बातें करने के आरोप हैं और ना अरुण जेटली ही पहले ऐसे मंत्री हैं जिन्होंने निर्वाचित संस्थाओं के अत्याचार की बात कही है। उनका कहना है की जो लोग निर्वाचित होकर नहीं आते हैं वे उन संस्थाओं पर हुकुम चलाते हैं जिन्हें हर 5 साल पर जनता की अदालत से अधिकार प्राप्त होता है । जब राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ निशाने पर होते हैं तो वे अधिकारों के दायरे को लांघने की दलील देते हैं । यहां उनके कहने का अर्थ है कि लोकतंत्र में जवाबदेही का मूल तंत्र चुनाव है और जो लोग चुनाव नहीं लड़ते हैं वह बुनियादी तौर पर जवाबदेह नहीं हैं । सामने वाले दल को सार्वजनिक महत्व के विषयों पर निर्वाचित प्रतिनिधियों से प्रश्न करने का अधिकार नहीं है । बिना किसी पार्टी को सामने रखे जेटली के इस तर्क की समीक्षा जरूरी है। पहली बात कि सरकार की विभिन्न शाखाओं के बीच खींचतान का मतलब केवल वर्चस्व की लड़ाई नहीं है यह वास्तविक स्थितियों को लेकर की हो सकती है, खास करके ऐसे समय में तनाव की संभावना अधिक हो जाती है जब मानवीय प्रयासों के सभी क्षेत्रों में नए-नए विचार सामने आते हैं और तकनीक तेजी से विकसित हो रही हो। दूसरे शब्दों में अधिकारों के विभाजन के सिद्धांत पर उस समय सवाल उठ सकते हैं जब संस्थानों को किसी भी कार्य के लिए तत्पर रहने को कहा जाए। ऐसी स्थिति में उस समय यह और जरूरी हो जाती है जब संकीर्ण विचारों के कारण या कानून के शासन में उस कार्य का जिक्र नहीं होने के कारण कोई संस्थान किसी कार्य से या सरकारी आदेश इंकार करता है।
देश में हाल में जो विवाद उत्पन्न हुआ अगर उसके कारणों की परीक्षा करें तो भ्रष्टाचार के सामान्य कारणों के अलावा दो बातें सामने आती हैं और वह है सब जगह सर्वशक्तिमान सरकार की मौजूदगी तथा प्रसामान्यता को फिर से संयोजित करने के प्रयासों को चुनौती देने वाले मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता जैसे बुनियादी तथ्यों से मुकाबले के दरवाजे बंद होने के बाद हर विवाद, ऐसा लगता है कि, निर्वाचित सरकार के खिलाफ एक षड्यंत्र है। लेकिन यह सही नहीं भी हो सकता है । दूसरी बात कि चुनाव लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और साथ ही जवाबदेही का एक महत्वपूर्ण तंत्र भी है । लेकिन व्यवहारिक तौर पर मतदान के समय मतदाताओं के पास बहुत सीमित विकल्प होते हैं ।खासकर सारी चीजें घूम फिर कर भ्रष्टाचार और व्यक्ति पर केंद्रित हो जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि जिस व्यक्ति को चुना जाता है वह आदर्श नहीं भी हो सकता है या उस ग्रुप का भी हो सकता है जो किसी विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्र में वर्चस्व रखता है। इस तरह से निर्वाचित व्यक्ति अपने चुनाव क्षेत्र के लिए जवाबदेह होता है। इसके विपरीत घटक दलों के पारस्परिक संबंधों के साथ सत्ता के शतरंज को खत्म करने के विभिन्न तरीकों का अगर इसमें इस्तेमाल किया जाए तो लाभ हो सकता है लेकिन जब इन्हें एक साथ उपयोग में लाया जाता है तो यहां भ्रष्टाचार और विघटन का विवाद शुरू हो जाता है । यह विवाद या इससे मिलते जुलते विवाद नए नहीं हैं। इस तरह के विवाद से भारतीय जनता अच्छी तरह परिचित है। चुनावों के बीच की अवधि में निर्वाचित व्यक्तियों पर अत्याचार बातें उठने लगती हैं और इसी दरम्यान ऐसी भी बात निकलती है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को संविधान से अधिकार प्राप्त हैं ।
जब निर्वाचित लोगों द्वारा प्राथमिकताओं को लागू करने और जो कानून उन्होंने बनाए हैं उनकी व्याख्या की उम्मीद की जाती है तो कार्यपालिका और न्यायपालिका की अपनी जिम्मेदारी के पालन की उम्मीद की जाती है कि जो उन्हें दायित्व संविधान की तरफ से मिली है। वह उस जिम्मेदारी को पूरा करने में कहीं चूकती नहीं है। सरकार की विभिन्न शाखाओं में मौन और टिकाऊ संबंध ना संभव है और ना अपेक्षित हैं। क्योंकि यह सत्ता के संतुलन बिगड़ने या फिर जड़ता के कारण ही संभव होता है। निर्वाचित और अनिर्वाचित दोनों के लिए आवश्यक है धैर्य से बातों को सुनें , ताकि लोकप्रिय अपेक्षाओं और मसलों को सही प्राथमिकता प्राप्त हो सके। इस प्रक्रिया में बातचीत जरूरी है। प्रश्न उठता है कि यह कितनी उत्पादक है । यह वार्ता करने वालों की सोच पर निर्भर करता है। लेकिन जेटली साहब बिना यह सोचे आपे से बाहर हो गए। उन्होंने अनिर्वाचित संस्थान के कार्यों को एक तरफ से अधिकार के दायरे का अतिक्रमण कह दिया। उनकी नाराजगी कितनी वाजिब है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
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