इसबार भाजपा मंदिर के सहारे
लोकसभा के चुनाव का युद्धघोष आरंभ हो चुका है और इस चुनावी समर की रणनीति भाजपा ने तैयार कर ली है। वह एक तरफ तो सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा कर राष्ट्रीय भावनाओं को भड़काना चाहती है वहीं राममंदिर का मसला उठा कर देश में हिंदुत्व की भावनाओं की चिंगारी को हवा देने की तैयारी कर चुकी है। जहां तक राममंदिर का प्रश्न है उसमें जमीन के किस टुकड़े पर कोर्ट फैसला देना है इस पर विवाद है, परंतु भाजपा को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इसमें लम्बा वक्त लग सकता है क्योंकि अभी अदालत को यह तय करना है कि जमीन के मसले पर सुनवाई कब से हो। भाजपा इतना इंतजार नहीं कर सकती। उसके पास वक्त नहीं है। अगले तीन चार महीनों में लोकसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा हो सकती है। इसकी तैयारी के लिये सबके पास इतना ही समय है। राममंदिर को भाजपा अपने घोषण पत्र से हटा नहीं सकती यह सदा से उसमें कायम रहा है पर इसे अब तक कभी गंभीर राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया गया। हर चुनाव में जैसे हर दल कहता है कि सत्ता में आने पर यह करेंगे वह करेंगे उसी तरह राम मंदिर मुद्दे पर औपचारिकता ही रहती है। औपचारिक इस लिये कि हमेशा वह राममंदिर की बात करती है लेकिन जब केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी तब साढ़े चार साल में ऐसा नहीं लगा कि वह राम मंदिर बनाना चाहती है। अब जब चुनाव के चंद महीने बच गये हैं तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा अचानक मुखर हो गये कि राम मंदिर बनाने का काम सरकार को कानून बनाकर या अध्यादेश जारी कर करना चाहिये। लेकिन क्या किसी कानून या अध्यादेश की वैधता वैसे समय में कायम रह सकती है जब उस पर विवाद हो और फैसला सुप्रीम कोर्ट में हो? हालांकि , संभावना है कि सरकार अगले दो या तीन महीनों में ऐसा कदम उठाये। अगर ऐसा होता है तो कानून अथवा अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी जा सकती है। लेकिन इससे क्या होगा? यहां एक मनोवैज्ञानिक स्थिति पैदा होगी। मतदाताओं के मन में आयेगा कि भाजापा ने तो कोशिश की. वह राममंदिर बनाना चाहती है इसीलिये तो उसने कानून बनाया या अध्यादेश जारी किया। बाद में अदालत चाहे जो फैसला कर पार्टी रामंदिर को एक मुद्दे के तौर पर कैश करा चुकी होगी। लेकिन यहां एक सवाल और है कि क्या यह कदम चुनाव में विजय की गारंटी दे सकता है? यह बात अभी से कोई नहीं कह सकता। लेकिन संघ और भाजपा के पास इसे छोड़कर विकल्प भी तो नहीं हैं। यह समयसिद्ध है कि 1984 से अब तक इसी के बल भाजपा की तीन बार सरकार बन चुकी है। हालांकि, तीनों सरकारें गठबंधन की ही थीं पर तीनों में एक बुनियादी फर्क था वह कि जहां अटल जी विगत दो सरकारों में भाजपा का बहुमत नहीं था और वह कह सकती थी कि सहयोगी दलों के दबाव के कारण मुदिर बनाना संबव नहीं था पर मोदी जी की सरकार का गठबंदान में प्रचंड बहुमत है तो वह वोटरों को कैसे समझायेगी। इसीलिये कानून या अध्यादेश वाली राह चुनी गयी। अतएव यह तय है कि आने वाले दिनों में रामंदिर को लेकर कुछ बहुत बड़ा होने वाला है।
पिछला लोकसभा चुनाव सबको याद होगा। उसके प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता की उम्मीदों को आसमान पर पहुंचा दिया था। उनके वादे बड़े-बडे थे पर वे पूरे नहीं हो सके। अब भाजपा उन्हीं वादों को लेकर फिर से मतदाताओं के बीच नहीं जा सकती। राममंदिर मसले पर देश में सबसे ज्यादा गर्मी 1992 की सर्दियों में थी जब दिसम्बर में विवादित ढांचा ढाहा गया था। उस घटना के बाद जिन राज्यों - उत्तर प्रदेश , राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश - में भाजपा सरकारें थीं वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। लेकिन 1993 में जब इन राज्यों में चुनाव हुए तो विश्लषकों के आकलन के विपरीत कहीं भी भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। यू पी में तो सपा और बसपा गठबंधन ने रामंदिर की राजनीति को धूल चटा दी। 2019 के ल6ोकसभ चुनाव के ठीक पहले यू पी में सपा और बसपा गटबंधन पर फिर से बात निकली जबसे यह बात उठी है तबसे उत्तर प्रदेश में भाजपा सभी उपचुनाावों में पराजित होती रही है। बिहार में भी भाजपा और राजग लगातार चुनाव हार रहे हैं। ये दोनों राज्य भाजपा के लिये बेहद खास हैं क्योंकि 2014 में इन राज्यों में इसे लोकसभा की 93 सीटें मिलीं थीं। 2019 के महासमर के निर्णायक यही दो राज्य रहेंगे। इसलिये रालममंदिर के साथ- साथ इन दो राज्यों के घटना क्रम भी कारक तत्व होंगे। इन दो राज्यों में भाजपा के मुद्दों की टक्कर रामाजिक न्याय की राजनीति से होगी।
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