पटाखे 'हिंदू धर्म' से कैसे जुड़ गए ?
समाज विज्ञान में राजनीति समाज के विचार परिवर्तन का बहुत सशक्त औज़ार है। इसमें होता कुछ दिखता है और असर कुछ और होता है। अब इसी दिवाली की बात लें। सबसे पहले तो कोलकाता के वासी धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इस वर्ष दीवाली में आतिशबाज़ियों का कम उपयोग किया और शहर का प्रदूषण स्तर अन्य शहरों की तुलना में कम रहा। सांस की तकलीफ वाले वृद्धों को थोड़ी राहत मिली। लेकिन उत्तर भारत के अन्य शहरों में यह हालत नहीं है। अब सवाल है कि हिन्दू धर्म के नाम पर आतिशबाज़ी का उपयोग कैसे जायज है? जरा गौर करें , जिन क्षेत्रों में हिंदुत्ववाद का जोर है उन क्षेत्रों में आतिशबाजियों का ज्यादा उपयोग हुआ और प्रदूषण का स्तर भी ज्यादा रहा।यह सब हुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद।अब खबरें मिल रहीं हैं कि कुछ लोग कानून के शासन को कमजोर करने में लगे हैं। वे इस बात को बढ़ावा देने में लगे हैं हिन्दू धार्मिक मान्यताओं की सुनवाई कोर्ट में नहीं हो सकती। दूसरी तरफ कुछ न्यायाधीशों ने इस विचार को स्पष्ट करना शुरू कर दिया है कि धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं से संबंधित मामलों पर न्यायालय निर्णय नहीं ले सकते हैं ।
अनंत विविधता के इस देश में न्यायिक प्रणाली को ध्वस्त करने की साज़िशें शुरू हुईं हैं । कोई भी व्यक्ति नैतिक विवेक और प्राकृतिक न्याय के प्रति प्रतिकूल अमानवीय व्यवहार या नैतिक रूप से आपराधिक प्रथाओं को न्यायसंगत साबित करने के लिए याचिका दायर कर सकता है।
वह समय था जब पोप या खलीफ़ा, काजी या कोई अन्य धार्मिक नेता अपने समुदाय के लिए पवित्र पुस्तक की व्याख्या करने के उद्देश्य से सांप्रदायिक एकाधिकार का दावा करता था,जो अमान्य करता था उसके बहिष्कार के खतरे थे। एक आधुनिक राज्य में व्यक्तियों, समूहों या नागरिकों और सरकार के बीच सभी विवादों के निर्णय का अधिकार अदालतों में पास है। उसके अधिकार क्षेत्र में विभिन्न धर्मों के विवादित मुद्दे भी शामिल हैं।
इतिहास के अनुसार ईसा मसीह के जन्म से कुछ सदी पहले चीन में किसी ने पटाखों का 'आविष्कार' हुआ था। कुछ समय बाद बारूद ने से और अधिक आवाज़ के साथ विस्फोट की शुरुआत हुई। तबसे लगातार आतिशबाजी के स्वरूप में बदलने के लिए प्रयास जारी हैं। कई रसायनों के अलावा, धातु के कणों और कलात्मक कल्पना के साथ मिश्रित खनिजों ने आतिशबाज़ी के क्षितिज को बढ़ाया। शाब्दिक रूप से आतिशबाज़ी का अर्थ आग से खेलना है। पश्चिम ने कथित तौर पर स्वीकार किया है कि यह चीन शुरू हुआ था । यह मंदिरों में धार्मिक उत्सवों का हिस्सा नहीं था।धीरे-धीरे आतिशबाजी चीन से बाकी दुनिया में निर्यात गयी। 15 वीं शताब्दी के अंत से पहले भारत में आतिशबाजी का कोई उल्लेख नहीं है।
वेरथमा जैसे विदेशी यात्रियों ने विजयनगर साम्राज्य में इसके उपयोग का जिक्र किया है। उसी काल में उड़ीसा के गजपति प्रताप चंद्र रुद्र देव द्वारा संकलित कौतुक चिंतमणि में आतिशबाज़ी को महंगे मनोरंजन के रूप में वर्णित है, तथा यह शासकों और बहुत अमीरों के लिए उपयुक्त है।
पटाखे का एक आवश्यक घटक बारूद प्राचीन भारत में अज्ञात था। सभी उपलब्ध सबूत बताते हैं कि मध्ययुगीन काल में अरबों और मंगोलों के साथ बारूद और आतिशबाजी भारत आए। अब अगर कोई भारतीय दावा करता है कि आतिशबाजी उनके पारंपरिक उत्सवों के लिए आवश्यक है सही नहीं है। कुछ अन्य स्थान और लोग हैं जहां आतिशबाजी सार्वजनिक उत्सव का हिस्सा है, लेकिन वे सभी चीन का ही अनुकरण के माध्यम हैं।
हम भूल जाते हैं कि हम पटाखों को केवल दशहरा या दिवाली या छठ तक ही सीमित नहीं रखते हैं। क्रिकेट मैच जीतने या नगरपालिका चुनाव जीतने अवसर पर भी इसका उपयोग करते हैं।
बारात के दौरान आतिशबाजी से यातायात को अवरुद्ध करना कबसे धर्मसंगत हो गया। इसे धर्म से जोड़ना लोगों को एक क्रूर गैर-धार्मिक उन्माद के लिए उकसाने का पर्याप्त उदाहरण है।
भारत में आतिशबाजी उद्योग तर्कसंगत रूप से सबसे क्रूर शोषक उद्योगों में से एक है। इस उद्योग में बच्चों को अमानवीय और अत्यंत खतरनाक परिस्थितियों में श्रम करने के लिए बाध्य किया जाता है। शिवकाशी, तमिलनाडु बाल श्रम के लिए कुख्यात है। पटाखे बनाते समय कई बार दुर्घटनाएं हुईं जिसमें मौतें भी हुईं लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला ।
निष्पक्ष विद्वान-अनुवादकों की कोई कमी नहीं है जो साबित कर सकते हैं कि प्राचीन काल से हिंदुओं द्वारा बुराई पर विजय के रूप में आतिशबाजी के प्रयोग को 'साबित' कर सकते हैं। लेकिन पौराणिक कथाओं, किंवदंती को समकालीन भारत ने लात मार दिया है।
दीपावली का मतलब है कि प्रकाश का जश्न और आतिशबाज़ी का जुनून केवल खतरनाक व्याकुलता साबित कर सकता है। हम सचमुच आग से खेलकर जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। टैगोर की कविताओं में एक पंक्ति है जिसमें कहा गया है कि जहां कोमल मिट्टी के दीपक की चमकदार रोशनी के साथ आतिशबाजी के क्षणिक चमक तुलना गलत है।
इतने सारे ऐतिहासिक और पैराणिक प्रमाणों के बावजूद आतिशबाजी को धर्म से जोड़ना और उस प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर अदालत को नीचा दिखाना एक तरह से सामाजिक सोच को भयभीत कर अपना वर्चस्व कायम करने का षड्यंत्र है। वर्चस्व के लोभ में ये लोग यह भी नहीं सोचते कि भविष्य के समाज पर इसका क्या प्रभाव होगा? साथ ही प्रदूषण के बढ़ने से वातावरण पर क्या प्रभाव होगा?
ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा
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