काहे इतनी चुप्पी है भाई
अब से लगभग 2 वर्ष पहले भारत की सरजमीं पर एक सर्जिकल स्ट्राइक हुआ था । इसके लिए कहीं जश्न नहीं मनाया गया। 8 नवंबर 2016 का दिन भारतीय मौद्रिक इतिहास मैं कभी नहीं भुलाया जाने वाला दिन होगा। 8 नवंबर 2016 की शाम प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश में घोषणा की कि 10 तारीख से 500 रुपयों और 1000 रुपयों के नोट रद्दी के टुकड़ों में तब्दील हो जाएंगे। इन 2 वर्षों से नोट बंदी और उससे जुड़ी प्रक्रियाओं से भारत की अर्थव्यवस्था और संस्थान लगातार नकारात्मक प्रभाव से ग्रस्त रहे हैं। उदाहरण स्वरुप केंद्र सरकार का रिजर्व बैंक और उसके गवर्नर उर्जित पटेल पर लगातार दबाव कि वह अर्थव्यवस्था में कुछ चमत्कार करें। नोट बंदी कितनी जायज है इस मामले में सरकार अधिकृत रूप से कुछ नहीं कह रही है। यहां यह चर्चा करना उचित है कि नोट बंदी के पीछे क्या कारण थे । प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणा में 3 लक्ष्यों का जिक्र किया । पहला था, भ्रष्टाचार तथा काले धन की कमर तोड़ देना, दूसरा था जाली नोटों के चलन को खत्म कर देना और तीसरा था आतंकवाद को मिलने वाले धन का स्रोत समाप्त कर देना। 9 नवंबर को गजट में यही 3 लक्ष्य बताए गए थे । लेकिन उसमें भ्रष्टाचार का जिक्र नहीं था। सरकार ने नोट बंदी को बहुत महत्त्व दिया और उसे कुछ इस तरह पेश किया कि लगता था भारतीय अर्थव्यवस्था में चमत्कार हो जाएगा। अब जैसे यह सुनकर हैरत होती है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि इसका उद्देश्य जाली नोटों के चलन को समाप्त करना और आतंकवाद को मिलने वाले धन के स्रोत को बंद कर देना है। लेकिन अब कौन बताए कि काला धन समाप्त होने के साथ यह दोनों खुद ब खुद समाप्त हो जायेंगे। यानी उपरोक्त दो लक्ष्य काले धन की समाप्ति से ही जुड़े हैं। यही नहीं, सरकार का कहना था कि 500 रुपयों और हजार रुपयों के जाली नोट खत्म हो जाएंगे ,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। साथ ही ₹2000 रुपयों के नए नोट जो छपे उनमें भी कुछ ऐसा नहीं था कि उनकी नकल न बनाई जा सके। 2000 रुपयों के जाली नोट बहुत बड़ी संख्या में पिछले साल ही पकड़े गए और उसके बाद से जाली नोट लगातार पकड़े जा रहे हैं। जहां तक आतंकवाद के खात्मे का प्रश्न है तो वह सिर्फ एक जुमला है । विशेषज्ञ जानते हैं कि आतंकवाद बहुत सीमित संसाधनों के बल पर चलता है और 2016 से अब तक इसमें कमी नहीं आई है।
अब इसका मुख्य उद्देश्य ही बचता है कि बाजार चलने वाले 86% 1000 रुपयों और 500 रुपयों के नोटों का चलन बंद कर देने से काला धन समाप्त हो जाएगा। सरकार के महाधिवक्ता ने नोटबन्दी पर दायर एक मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी कि इस सरकार का मानना था कि एक तिहाई नोट बैंक में नहीं लौटेंगे परिमाणतः नोट के बंद करने से काला धन खुद ब खुद समाप्त हो जाएगा। लेकिन जितने नोट छापे गए थे उनका 99.2% बैंकों में लौट आया। हां, यह स्पष्ट है कि ईमानदार लोग जो नोट लौटाने की कतार में खड़े थे उनसे ज्यादा बेईमान लोग थे। उन्होंने अपनी रकम जमा कराने की कई विधि खोज ली थी। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सरकार को सलाह दी थी कि नोट बंदी से कोई उपलब्धि नहीं होगी और कर चोरों का गिरोह अपनी रकम को जमा करने तरीके खोज लेगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने उनकी सलाह नहीं मानी और प्रधानमंत्री कार्यालय ने खुद यह फैसला किया। परिणाम यह हुआ कि काले धन का पूरा भंडार सफेद हो गया।
केवल काला धन सफेद नहीं हुआ बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी इसके दुष्प्रभाव हुए। 2016 के नवंबर में तो हर आदमी जो सरकार का समर्थक था वह नोट बंदी के बारे में सुनने को तैयार नहीं था। लेकिन अब हर कोई मान रहा है कि विकास दर पर इसके नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। विपक्ष का दावा है कि इससे विकास दर लगभग 2% कम हो गई है लेकिन सरकार का कहना है कि यह गलत है । विकास दर में गिरावट जरूर हुई है पर वह तात्कालिक है और जल्दी ही उसे ठीक कर लिया जाएगा। विशेषज्ञों का मानना है कि 2016 में जनवरी से सितंबर के बीच लगभग विकास दर 7.9% थी जो कि नोटबंदी के बाद घटकर 5.7% हो गई। अगर इस आंकड़े को मानें तो इस साल लगभग अर्थव्यवस्था में 2.55 लाख करोड़ की कम वृद्धि हुई है। यही नहीं, नोट बंदी से सबसे ज्यादा प्रभाव रोजगार पर पड़ा है निवेशकों के पास धन नहीं था और बैंक खाली थे इससे असंगठित क्षेत्र में भारी छटनी हुई। बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए । सबसे ज्यादा प्रभाव निर्माण क्षेत्र पर पड़ा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई। क्योंकि यह पूरी अर्थव्यवस्था खेती पर आधारित है और खेती के लिए धन नहीं मिल सका । लघु और मझोले उद्योग भी प्रभावित हुए। रियल एस्टेट क्षेत्र में भी अच्छा खासा प्रभाव पड़ा। क्योंकि, इनमें अधिकतर काम नगदी के बल पर होता है लिहाजा पूंजी के अभाव में बड़ी संख्या में कारोबार बंद हो गए। आंकड़ों को अगर मानें तो लगभग 15 लाख रोजगार खत्म हो गए और यह सब सामान्य होने में कई वर्ष लग जाएंगे।
यही नहीं नोट बंदी से सरकार की आमदनी पर भी असर पड़ा । हालांकि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में बताया गया है कि नोटबंदी के बाद सरकार को 16000 करोड़ का लाभ हुआ। लेकिन नोटों की छपाई और बैंकों के एटीएम को ठीक करने में हुए खर्च से सरकार को भारी हानि हुई ।बैंक अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। सरकार ने नोट बंदी के दौरान कहा था कि इससे बैंकों की दशा सुधरेगी लेकिन उसके बाद बैंकों की हालत खस्ता हो गई। नहीं लौटाए जाने वाले कर्ज में वृद्धि हुई है और ब्याज बढ़ने से कारोबारी कर्ज लेने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं । दूसरी तरफ, जो नोट बैंक में लौट आए उन पर बैंकों को ब्याज देना पड़ता है , इससे बैंकों का खर्च बढ़ गया है। यही कारण है कि बैंक अपना खर्च पूरा करने के लिए ग्राहकों पर तरह -तरह के शुल्क लगा रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार बैंकों की दशा सुधरने में अभी समय लगेगा। यही नहीं, सरकार का दावा है कि नोटबंदी के बाद महंगाई कम हुई है लेकिन लेकिन बाजार के अनुसार महंगाई घटी नहीं है। उल्टे कर्ज माफी के कारण सरकार पर जो आर्थिक दबाव पड़ा है उससे महंगाई और बढ़ने की आशंका है।
अलबत्ता नोटबंदी के कारण डिजिटाइजेशन एक बड़ी उपलब्धि हुई । नोटबंदी की इस उपलब्धि को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश शामिल नहीं किया। यह तो उन्हें राह चलते मिल गई ।जिन उपलब्धियों को उन्होंने लक्ष्य बनाया था वह प्राप्त नहीं हो सकी। अब सरकार की तरफ से इस बारे में किसी प्रकार का उत्तर नहीं दिया जा रहा है । चारों तरफ चुप्पी है।
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