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Wednesday, November 21, 2018

बिगड़ गई है सियासत की आबोहवा

बिगड़ गई है सियासत की आबोहवा

अगर सियासत की आबोहवा मापने की  कोई मशीन होती तो यह पता चलता कि हमारे देश की सियासत की हवा दिल्ली की हवा से भी ज्यादा दूषित है। अभी इन दिनों जो बड़े चुनाव हुए और उनमें जो हुआ उससे ज्यादा  दूषण किसी ने अपनी हाल की स्मृति में नहीं देखी होगी। अतीत में मतदाताओं के मूड जमीनी स्तर पर हुआ करते थे। इन दिनों सोशल मीडिया के चलते  हमारे देश के राजनीतिक वैचारिक वातावरण में भारी सियासी धुंध छाई हुई है और उसके पार कुछ स्पष्ट दिखना मुश्किल है। यह काल कोई साधारण काल नहीं है। यह अवांतर सत्य का जमाना है। ऐसे जमाने में न राजनीतिज्ञ और ना मीडिया चाहती है कि सच सामने आए और जो बात वे फैलाना चाहते हैं उसकी राह में रोड़ा बने। इसलिए अर्ध सत्य ही बातचीत का आधार बनता है। यहां कोई संत नहीं है दोनों पक्ष जल के तल को गंदा करने के दोषी हैं। चारों तरफ मोर्चे खुल गए हैं । केवल मीडिया ही बुरी तरह नहीं बंटी है और पक्षपात पूर्ण हो गई है बल्कि सोशल मीडिया का भी ध्रुवीकरण हो गया है, और इसमें बहुत ज्यादा जहर भर गया है। सामाजिक हल्के में यहां तक कि परिवारों में भी  दरारें दिख रही हैं।  इधर कुछ दिनों से हमारी राजनीतिक बातचीत का स्तर भी गिर रहा है।  यह केवल भारत तक ही सीमित नहीं है , पश्चिमी देशों में भी ऐसा हो रहा है खासकर अमरीका में । यद्यपि मोदी डोनाल्ड ट्रंप नहीं है पर उदारवादी समूह उन्हें इस गिरावट के लिए  लिए दोषी बता रहा है। राहुल गांधी मोदी के साथ 2014 की खुंदक मिटाने में लगे हैं और उन्हें राफेल सौदे जीएसटी और नोट बंदी से जोड़ रहे हैं।
     भाजपा कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार के आरोपों  के आधार पर सत्ता में आई लेकिन विगत 5 वर्षों में यूपीए के जमाने के घोटालो को बंद नहीं किया जा सका। मोदी और भाजपा दोबारा भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बना पा रही है । इसके अलावा कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और सत्तारूढ़ दल कठिनाई में दिखाई पड़ रहा है। वैसे भी चुनाव में जो सत्तारूढ़ दल होता है वह  कुछ आलोचना का शिकार होता ही है । इसके फलस्वरूप मोदी और अमित शाह गांधी परिवार पर अब बहुत ज्यादा छींटे  नहीं कस पा रहे हैं । अब वे कितने कारगर होते हैं या तो 11 दिसंबर के बाद ही पता चलेगा। लेकिन निश्चित तौर पर इससे समस्त राजनीतिक प्रणाली में कुछ न कुछ प्रदूषण तो भर ही रहा है और निकट भविष्य में इससे मुक्ति  की उम्मीद भी नहीं है । अब अगर भाजपा के पास हवा का रुख पलट देने की कोई बहुत बड़ी योजना है तो मालूम नहीं, लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं लग रहा है। 
       हाल   की रैलियों में अगर मोदी जी के चेहरे को किसी ने नोट किया हो तो यह साफ पता चलता है कि वे थके थके से दिख रहे हैं। उनके चेहरे पर तनाव स्पष्ट है। मोदी जी समय को भांपने के लिए मशहूर हैं लेकिन कहीं न कहीं हर बार चूक जा रहे हैं। अब जैसे मोदी जी ने बहुत देर से आर्थिक सुधार किया अगर यह पहले हुआ होता तो अब तक मोदी जी उस आघात से उबर चुके होते और अभी उनके पास पैंतरे बदलने का वक्त होता । अब इसके बारे में कई दलीलें हैं । कुछ लोग कहते हैं उस समय मोदी जी को बड़े चुनाव जीतने थे खासकर उत्तर प्रदेश के, यही नहीं राज्य सभा में अपनी संख्या बढ़ानी थी। उसके बिना महत्वपूर्ण कानून पारित करवाना मुश्किल था। भूमि सुधार विधेयक पारित नहीं होने से उनको बहुत आघात लगा। इसके बाद जो बची  ताकत थी उसके बल पर उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी लागू कर दिया यह देखे बिना कि उससे उबरने का वक्त नहीं है उनके पास। यही नहीं राज्यों में पुराने नेताओं को बदल नहीं सके।  शिवराज सिंह चौहान हो या रमन सिंह या वसुंधरा राजे सिंधिया सबके खिलाफ जनता में रोष है। अब लोगों में यह संदेश जा रहा कि पार्टी के दबाव के कारण मोदी जी ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि, इतने बड़े नेताओं को हटाने का मतलब था कि केंद्र में इन्हें मंत्री पद देना और इससे एक नई चुनौती सामने आ जाती जो, उनके लिए कठिन होती।  यह भी कहा जा रहा है कि मोदी जी को अफसरशाही और उनकी टीम ने भी नीचा दिखाया है। मोदी जी की सबसे बड़ी जो खूबी है वह है कि वे कॉरपोरेट स्टाइल के प्रशासक हैं ।  नोटबंदी और जीएसटी में वे ऐसा कुछ नहीं कर सके। समाज कल्याण के कई कार्यक्रम भी नहीं लागू हो सके और अब सीबीआई का मामला यह बता रहा है कि वे सब कुछ अपने नियंत्रण में नहीं रख पा रहे हैं।
         यह तो स्पष्ट है कि विपक्षी दलों ने हमेशा कोशिश की है की संवेदनशील मामलों में सरकार को न्यायपालिका ताक पर रख दे। नतीजा हुआ कि सरकार की कई सही उपलब्धियों पर से भी लोगों का ध्यान हट गया। उदाहरण के लिए वित्तीय समावेशीकारण और डिजिटाइजेशन जैसी उपलब्धियां गौण हो गईं। विदेश नीति के मामले में भी विकास हुआ है लेकिन जो आलोचक हैं वे इसकी भी आलोचना कर रहे हैं। पिछली तिमाही से ज़ी एस टी और मैक्रोइकोनॉमिक सूचकांक सुधार के संकेत दे रहे हैं लेकिन आपसी तू तू - मैं मैं में यह अच्छी खबरें भी दब जा रही हैं। विपक्षी दल प्रधानमंत्री पर आरोप लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री सोचते हैं कि वह गलत नहीं कर सकते । विपक्ष का कहना है कि प्रधानमंत्री कभी सही कर ही नहीं सकते। लेकिन जिस तरह कांग्रेस के 60 वर्षों के शासन को इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता उसी तरह मोदी जी के 5 वर्षों को भी बट्टे खाते में नहीं डाला जा सकता है। मोदी जी लोगों को यह बता सकते हैं उन्होंने ईमानदार शुरुआत की है और इस काम को खत्म करने के लिए और 5 वर्ष चाहिए । उसी तरह विपक्ष भी लोगों को यह विश्वास दिला सकता है कि "मोदी हटाओ" के नारे  के बावजूद कई और विकल्प हैं।
      अंततः यह जनता पर निर्भर है कि वह क्या फैसला करती है। किसी भी सही निर्णय पर पहुंचने के लिए समूची तस्वीर का जायजा लेना जरूरी है और इसके लिए बहुत बड़ा शोधन कार्यक्रम चलाना होगा ताकि धुन्ध छंट   जाए और हवा साफ हो जाए।

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