मूर्तियां विचारों को कुंद भी करती हैं
प्रधानमंत्री स्पष्ट रूप से किसी विशेष छवि की वस्तु नहीं हैं लेकिन वह वही हैं जो उनको देखने के बाद महसूस होता है। एक वाकया है, स्टालिन ने लेनिन का जन्मदिन मनाना चाहा। उन्होंने रूसी क्रांति को स्वरूप देने वाले के प्रति अपना सम्मान प्रगट करना चाहा था और इसके लिए उन्होंने लेनिन की एक विशाल मूर्ति बनवाई और उनके जन्मदिन के अवसर पर उस का अनावरण किया गया। उस मूर्ति की डिजाइन स्टालिन ने ही तैयार करवाई थी और जब उस का अनावरण हुआ तो उसमें लेनिन कहीं नहीं थे। अंततोगत्वा, केंद्रीय समिति के एक सदस्य ने कहा कि कॉमरेड यह सार्वजनिक कला की एक बेहतरीन जगह बन गयी है। लगता है कि आप कोई किताब पढ़ रहे हैं । यह ऐसा नहीं प्रतीत होता की लेनिन को सम्मान दिया जा रहा है। स्टालिन ने कहा अच्छा, आप नहीं देख रहे हैं कि मैं एक पुस्तक पढ़ रहा हूं । इस प्रचार का अर्थ केवल एक उद्देश्य को पूरा करना था । जब कोई सरकार किसी आदर्श से संचालित होती है तो उसके संदेश बहुत साधारण होते हैं लेकिन जटिल होते हैं । वर्तमान की एनडीए सरकार ने अपने कार्यक्रम और अपनी पहल की सफलता को प्रचारित करने के लिए बहुत ज्यादा खर्च किया। अब अगर यह देखा जाए की लक्ष्य की उपलब्धि कितनी हुई है तो ऐसा लगेगा बहुत जटिल और गूढ़ बदलाव हो रहा है। सरकार की विज्ञापन नए नहीं है और मूर्तियां देश में कई जगह हैं, लेकिन विज्ञापन और उसका प्रस्तुतीकरण उसके ब्रैंड पर निर्भर करता है कि हम उससे क्या संदेश देना चाहते हैं। वह बार-बार जनता के मस्तिष्क पर एक तरह से आघात करता है और विचार शक्ति को कुंद कर देता है। उस ब्रैंड का कायल इंसान हमेशा उसी के बारे में सोचता है। अब इसमें जो पहला बदलाव है वह है कि नीतियों का प्रचार कैसे होता है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री की उज्जवला योजना की सफलता के दावे को ही लें। मूल रूप से, यह एक बचकानी स्थापना है। वहीं बचकाने मुहावरे वहां सुनने को मिलते हैं। पिछली सरकार के विज्ञापनों से इसमें एक अंतर था। इसमें एक संदेश आता है "एक ग्रामीण महिला कहती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मेरी जिंदगी को बचा लिया। उन्होंने मुझे गैस कनेक्शन के कठिन परिश्रम से मुक्त कर दिया।" इस विज्ञापन में प्रधानमंत्री को एक व्यक्तिगत रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ना कि दूर दिल्ली में बैठे एक नेता के रूप में।
उसी तरह "स्टैचू ऑफ यूनिटी" इतनी बड़ी बना दी गई है कि वह इतिहास की समझ से खौफ पैदा कर रही है । मूर्ति के बनने के बाद प्रधानमंत्री की दो तस्वीरें सामने आईं जो बता रही हैं कि प्रधानमंत्री अपनी छवि कैसी चाहते हैं। पहली तस्वीर में प्रधानमंत्री एक राजसी अंदाज में मूर्ति को बड़े संतोषजनक ढंग से देख रहे हैं और दूसरी मैडम तूसा के म्यूजियम में अपनी मोम की मूर्ति को स्पर्श करते दिखाई पड़ रहे हैं । नए भारत में जो प्रयास किए जा रहे हैं वह बहुत नए नहीं हैं। कमर्शियल विज्ञापनों में वस्तुतः सफल ब्रांड खुल्लम खुल्ला महत्वपूर्ण होते हैं। अगर हम साफ-साफ कहें तो यह कह सकते हैं कि शब्दों के अर्थ स्थाई नहीं होते बल्कि यह संदर्भ और इतिहास के अनुरूप नए अर्थ लेते रहते हैं। किसी चीज की ब्रांडिंग इसी तरह होती है । आज एक व्यक्ति हैं ,वह हमारे प्रधानमंत्री हैं। उनकी ब्रांड बनाने की कोशिश की जा रही है। ऐसी छवि बनाने की कोशिश की जा रही है। जिससे भविष्य की सफलताओं को और उपलब्धियों को जोड़ा जा सके। लेकिन, उनकी जटिलताएं और उनके वैचारिक गठन की जो परिधि है उसे अर्थो और संदर्भों से बहुत जल्दी रिक्त नहीं किया जा सकता। अगर राजनीतिक प्रोपेगंडा के रूप में देखें तो पूरी दुनिया में स्वस्तिक नाजी की पहचान है। इस प्रतीक चिन्ह के इतने विपरीत प्रचार हुए कि वह पश्चिमी दुनिया में सर्वसत्तावाद और बर्बरता का प्रतीक बन गया है। हिटलर के शासन में जातीय गौरव ,शक्ति और राष्ट्रवाद गौण हो गया। यहां भी वही बात है। क्योंकि एक आदमी को चाहे वह जितना भी लोकप्रिय हो उसे सरकार के कामकाज और जिम्मेदारी का अकेले श्रेय क्यों दिया जा रहा है ? चुनाव की राजनीति ने, लगता है सब कुछ बदल दिया है । अब ब्रैंड तैयार करने की कोशिश चल रही है । यह कोशिश दोहरी है। पहली कोशिश है अतीत और वर्तमान की किसी भी असफलता को इतिहास के पन्नों से मिटा दिया जाए। यह थोड़ा कठिन काम होगा। क्योंकि यहां अभी भी विपक्षी दल भी हैं और वे किसी भी अजेंडा का विरोध करते दिखते हैं। दूसरा एक वाचक के रूप में एक आदमी जो इतिहास और सियासत से जुड़ा हो उसकी छवि से सभी चित्र आसानी से मेल नहीं खाते । सरदार पटेल की इतनी बड़ी मूर्ति बनाकर भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। दूसरी तरफ, वह आकार लौह पुरुष से विपरीत है और राष्ट्र निर्माण की परियोजनाओं से अलग है।
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