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Tuesday, November 6, 2018

आत्म का विस्तार है दीपावली

आत्म का विस्तार है दीपावली


वैदिक काल से मनुष्य के भीतर अंधकार का भय व्याप्त है और इसलिये वेदों में सबसे ज्यादा प्रकाश का ही उल्लेख है। सर्वादिाक प्राचीन ऋग्वेद में सबसे अधिक प्रकाश पर ही लिखा गया है। यथा, सा व्युच्छ सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसुनृते (अ.19,खंड3 श्लोक6 ) अर्थात हे, उषा आप हमें भरपूर धन और हमारे अंधेरे (प्राकृतिक और अज्ञान रूप दौनों) को नष्ट करने की कृपा करें। ऋग्वेद में ही उल्लेख है कि महर्षि भृगु ने अग्नि का संधान किया - इद्रं ज्योति: अमृतं मर्तेषु। यही नहीं, "सूर्यांश संभवो दीप:" यानी दीप सूर्य का अंश है।  इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ज्योतिर्मयता  हमारी चिरंतन प्यास है इसी की तुष्टि के लिये दीप की व्यवस्था हुई। दीपावली इन्हीं दीपों की पंक्तिबद्ध संरचना है , समूहबद्धता का लालित्य है और पंक्तिबद्धता में जो लय है वही तो धरा की उजास है। दीपावली की पौराणिक कथा है कि लंका विजय के बाद जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने दीपों की माला सजा दी। लेकिन यहां भी एक दर्शन है। दीपावली समाज और व्यक्ति के कुरूप पक्षों का नवीन रुपांकन है। अयोध्या के वासियों- चाहे वह किसी भी वर्ग का हो- ने दीप जलाये। यहां दीपों की भीड़ नहीं एक ज्यामिति थी और इसमें प्रकृति के अनेक रूप , रस , रंग ओर नाद थे। छांदोग्य उपनिशद में कहा गया है कि प्रकृति सर्वोत्तम प्रकाशरूपा है। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति प्रकाशोन्मुख है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों अंधकार से प्रकाश में जाने की बात कही है।हमारे देव प्रकाशवाची हैं इसलिये सूरज देव हैं और चांद की भी पूजा होती है क्योकि वह भी अंधकार से संघर्ष करता है।कहा जाता है कि शरीर पंचमहाभूतों- क्षिति, जल ,पावक, गगन, समीरा, - से निर्मित है और भी इसी से रचा गया है। दीपक पिंड से ब्रह्मांड के संयोजन का प्रतीक है। 


    यही नहीं अमावस की रात दीपावली का भी एक विशिष्ट वैदिक महत्व है। आरंभ में दीपक अंधकार को पराजित करता है उसी दिन से प्रकाश बड़ने लगता है और अंधेरा हारने लगता है। यह क्रम पूर्शिमा तक पूर्णिमा तक चलता रहता है और उसके बाद अंधकार से संघर्ष और उसे पराजित करने की प्रेरणा देकर चांद चला जाता है एक पखवाड़े के लिये। हर वर्ष दीपावली हमारी सफलता का पर्व है। सफलता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी का आसन कमल है और पंक में रहते हुये भी उससे अछूता रहता है यानी अकर्मण्यता से ऊपर उठकर कर्म करने वाले के यहां ही लक्ष्मी विराजती है।   


 प्रश्न है कि राम के आगमन पर दीपक ही क्यों जलाये गये? क्योंकि प्रकाश हमारे भीतर एक विशेष अनुभूति देता है। कृष्ण के विराट रूप को देखकर अर्जुन के मुंह से निकला था, दिव्य सूर्य सहस्त्रांणि। भारतीय संस्कृति का विराट प्रकाशरूपा है प्रकाश स्वयं में दिव्यता है और भगवान राम के आगमन पर यह दिव्य अभिव्यक्ति हुई थी। यहां एक तथ्य गौण है और वह है छाया, अंधकार का पारभासक अस्थाई स्वरूप। छाया बुराई की नीविड़ता नहीं है। राम ने जब नगर में प्रवेश किया होगा तो झिलमिलाती दीपमालिकाओं के प्रकाश में उनकी छाया तो जरूर बनी होगी जो उनके साथ - साथ चल रही होगी। उसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया।छाया यानी प्रकाश में अंधकार की उपस्थिति। यह प्रकाश के मार्ग आयी बाधा का निरुपण है।यह तबतक नहीं समाप्त हो सकता जब तक वहा भौतिक अस्तित्व प्रकाश के केंद्र में ना अवस्थित हो जाय। हमारे ऋषियों ने तमसो मा ज्यातिर्गमय: तो अवश्य कहा लेकिन छाया से मुक्त होने की साधना नहीं बतायी। यद्यपि इसमें ज्योति ज्ञान का प्रतीक है। छांदोग्य उपनिषद में इस छाया को सामाजिक समस्या के रूप में निरूपित किया गया है। सामाजिक समस्या के तीन कारण बताये गये हैं वे हैं, अज्ञान ,अन्याय और अभाव। किसी भी देश और काल में ये उपस्थित रहेंगे और इनका शमन केवल ज्ञान से ही हो सकता है।   


 दीपावली मानव के प्रकाश अभीप्सु संस्कृति के लघु और विराट का समन्वयन है। दिया लघु है और दीपावली  लघुता का सम्मान है। दीपक मनुष्य की कर्मशक्ति का तेजोमय प्रतीक है। हमारे भावों का द्योतक और अनागत का संकेत है। 


    रूक्षेर्लक्ष्मी विनाश: स्यात श्वेतेरन्नक्ष्यो भवेत 


   अति रक्तेशु युद्धानि मृत्यु: कृष्ण शिखीशु च


 दीपावली अंधेश्रे पर विजय का असीम उल्लास है, पराजित अमावस का उच्छावास है और मनुष्य के चिर आलोक पिपासा के लिये आलोक वर्षा है। प्रकृति में प्राश और अंदाकार का संतुलन है। इसीलिये कहते हैं कि " जड़ - चेतन गुण - दोष मय विश्व कीन्ही करतार। " प्रकृति के इस द्वैत गुण को दुनिया के लगभग सबी पाणियों ने स्वीकार कर लिया परंतु केवल मनुष्य एक ऐसा प्राणि है जिसने प्रकृति के अंधकार को चुनौती दी और और उजाले की सृष्टि का प्रयास किया। उजाला यानी आलोक चेतना है , कर्मण्यता है और इसीकारण आलोक वरेण्य है।यही कारण है कि प्रकाश की इच्छा मनुष्य में आरंभ् ा से रही है और पत्थर रगड़ कर अग्नि स्फुलिंग उत्पन्न करने से लेकर आज परमाणु प्रदीप तक मनुष्य की प्रकाशयात्रा का प्रमाण है। 


     दिपावली से संलग्न भौतिक तत्वों के उपयोग की परम्परागत शैली अब समाप्त हो चुकी है तथा यह त्योहार चूंकि लक्ष्मी के पूजन से आरंभ होता है इसलिये बाजार इसपर हावी हो गया। यद्यपि बाजार का असर लगभग सबी त्योहारों पर पड़ा है परंतु दीवाली कुछ ज्यादा ही प्रभावित हो गयी है। इससे अपने देश के बाजार को ही नहीं विदेशी बाजारों को भी लाभ हो रहा है। उदाहरणस्वरूप चीन के बाजार। वहां की बनी लक्ष्मी गणेश की लघु प्रतिमाये इन दिनों आम हो गयीं हैं। बधाई संदेशों के लिये मोबाइल - स्मार्टफोन से से संदेश के चलते उनकी वहाक कम्पनियों को प्रचुर लाभ होता है। लक्ष्मी अर्थात धन और दीपावली लक्ष्मी का पूजन है परंतु ज्ञाान की आलोक यात्रा का श्रीगणेश भी है और यही कारण है कि लक्ष्मी के साथ गणेश भी पूजे जाते हैं। दीपावली का देश के सभी भागों में आयोजन और लक्ष्मी गणेश का पूजन यह संकेत तेता है कि   धन ही सब कुछ नहीं है बल्कि इसकी रक्षा के लिये साहस और मानसिक दृ्ढ़ता के साथ - साथ सामाजिक एकता भी जरूरी है। दीपावली यह बताती है कि मनुष्य के मन कामनाओं के साथ- साथ ज्ञान का वास होना भी आवश्यक है ताकि हम अपब्नी संवेदना से दूसरों के दुख जान सकें। इसीलिये ईश्वर ने मनुष्य को धन के साथ विचार भी दिया है। मनुष्य दुनिया का सर्वादिाक विचारशील प्राणी है अतएव दिवाली बताती है कि मनुष्य आत्मुग्धता के अंधियारे से बाहर निकले और सम्वेदना का दीपक प्रज्वलित करे।


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