संस्थानों में अराजकता
सीबीआई के भीतर की अराजकता साधारण लड़ाई नहीं है। बल्कि यह सरकार के भीतर एक गंभीर संकट है। यह ऐसा संकट है जो एक ही झटके में सारी साख को मटियामेट कर देगा। यह समस्त प्रकरण एक अमंगल की रचना कर रहा है । इन दिनों सरकार की कोई ऐसी संस्था नहीं है जो सुदृढ दिखे और यह गड़बड़ सीधे प्रधानमंत्री की चौखट तक पहुंच गई है। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि कोई भी राजनीतिक संस्थान खुलकर इस पर बोलने की जरूरत नहीं समझता। अभी हाल में जो आरोप लगे उससे ऐसा लग रहा है राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान भी इस लड़ाई में घसीटा जाएगा। इस समस्त घटनाक्रम का हर पहलू दहला देने वाला है। यह लोगों की नजर में इसलिए आ गया सीबीआई के दो बड़े अफसर एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे। इन आरोपों में वास्तविकता चाहे जो हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई कि सरकारी प्रणाली के भीतर समस्त अवरोध और संतुलन बिगड़ गया है। नियुक्ति के नियम भंग कर दिए गए हैं। कुछ देर के लिए मान ले कि राकेश अस्थाना में कोई दोष नहीं है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि सरकार एक आदमी को अधिकार पूर्ण स्थिति में नियुक्त करने के लिए हस्तक्षेप कर रही है। इससे साख पर आंच तो आ ही रही है और यह असाधारण रूप से गलत है । वरिष्ठ नेतृत्व के स्तर पर यह केवल एक विधि नहीं है कि प्रार्थी को सजा नहीं मिली है अथवा मिली है बल्कि यह भी देखना होता है कि यह कितना अधिकार सक्षम है। पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया है। यहां जनता में विभ्रम है कि कोर्ट किस बात की जांच करेगा और किसको रहस्यमय ढंग से भगवान भरोसे छोड़ देगा। अदालत को एक रक्षा मामले में सीधे हस्तक्षेप करने में कोई मलाल नहीं हुआ लेकिन जब उसने यह कहा कि सीबीआई की स्वायत्तता बनाए रखनी चाहिए और उसकी बात नहीं मानी गई तब उसकी पलक तक नहीं झपकी। उल्टे अदालत ने सीबीआई की स्वायत्तता को बनाए नहीं रखा और एक ऐसी संस्था को अधिकार दे दिया जो सदा से राजनीतिक सत्ता के हाथों की कठपुतली रही है । अदालत के काम करने का ढंग अपारदर्शी है , चाहे वह सार्वजनिक सुनवाई हो या कोई और । अदालत कोई संसदीय समिति नहीं है जो सरकार के गोपनीय दस्तावेजों को बंद लिफाफे में ग्रहण करें और इसे कुछ पक्षों को देखने दे । यहां कहने का मतलब यह है कि अदालत सीबीआई की साख को कायम रखता है या नहीं और क्या सरकार की विभिन्न संस्थाओं की साख को कायम रखना अदालत का काम है या उसका काम तय करना है कि दोषी कौन है या निर्दोष कौन है? अजीब सा लगता है कि सीबीआई से ज्यादा कोशिश इस मामले में अदालत कर रही है।
स्पष्ट कहें तो ,अदालत संस्थानिक " पावर प्ले " में लगी है। वह कानून और न्याय के नियमों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही है। वह अपनी सरलता कभी सीबीआई पर जाहिर करती है कभी सीवीसी पर । रिपोर्ट दायर करने के लिए महज दो हफ्ते दिए उस संस्था को जिसके एक बड़े अफसर ने कहा था कि" मैं जानता हूं की संगठन बहुत बड़ा योद्धा है" लेकिन यह योद्धा किसी काम का है या नहीं इस बात की निगरानी करने के लिए भी एक वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति हुई है। सीवीसी की रिपोर्ट और माननीय न्यायाधीश के आदेश में क्या संबंध है यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। क्या अदालत सीवीसी की सामान्य प्रक्रिया पर विश्वास करती है और अगर करती है तो फिर न्यायधीश की क्या जरूरत कि वह जांच करें। सर्वोच्च न्यायालय सही काम करने की कोशिश कर रहा है ।
अब बात आती है सीबीआई की। यह एक संस्थानिक गड़बड़ है जहां देश का आम आदमी यह तय नहीं कर पा रहा कि वह रोए या हंसे । क्या सीबीआई ने ढेर सारे भ्रष्ट और दोषी दो भर गए हैं और यह हम इसलिए जान गए हैं कि सीबीआई के अन्य अधिकारी ऐसा कह रहे हैं ,या फिर इसमें कोई इस तरह की बात नहीं है केवल आपसी कुश्ती का अखाड़ा बन गया है या फिर सीबीआई में ऐसे कई लोग हैं जो अन्य अफसरों को भ्रष्ट और दोषी के रूप में देखते हैं। किसी भी तरह से सीबीआई की साख पर ही आंच आ रही है और जनता पशोपेश में है कि वह क्या करे । क्या वह ऐसे अफसरों के बीच घिर गई है जो भ्रष्ट हैं । यह कितना मर्मस्पर्शी है कि सीबीआई का अफसर या तो किसी अपराध का दोषी है या उसका कोई सहयोगीअफसर उस पर आरोप लगा रहा है । यदि सीबीआई के अधिकारी अपने सहकर्मियों के बीच सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं तो कल्पना कीजिए आम आदमी इसका क्या अर्थ समझेगा । अब एक सीबीआई अधिकारी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर सीधा आरोप लगाया है कि वह जांच में हस्तक्षेप करते हैं। इस तरह के आरोप पर बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि यह किसी भी ईमानदार आदमी को पथभ्रष्ट कर सकता है। अजीत डोभाल के बारे में आरोप को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन डोभाल को तो समझना चाहिए इस मामले में सरकार अपने ही किए में फंस गई है । क्योंकि यदि सीबीआई के एक अफसर द्वारा लगाए गए आरोप शक के लिए पर्याप्त नहीं है तो फिर प्रश्न उठता है सीबीआई निदेशक का तबादला क्यों किया गया और वह भी बिना किसी उचित प्रक्रिया के? क्या इसी तरह का मापदंड राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ भी अपनाया जाना चाहिए? इस मामले में सीबीआई का एक अधिकारी अदालत में बयान देने को तैयार है। यहां एक और गंभीर खतरा है कि सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और अन्य सरकारी संस्थानों के बीच एक विवर्तनकारी परिवर्तन कर दिया है । राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार किसी को भी तलब कर सकता है और इसके कारण राजनीतिक और अफसर शाही के तंत्र दरकिनार हो गए हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद सर्वोच्च हो गया है। हाल के आरोपों के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को अधिकार देना चिंता का विषय है । लेकिन भारतीय संस्थानों में बहुत ज्यादा तन्यता है वह इसे सुधारना भी जानती है और यह उलझा हुआ मामला सुलझ ही जाएगा।
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