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Friday, November 2, 2018

भ्रष्टाचार अभियान का क्या हुआ ?

भ्रष्टाचार अभियान का क्या हुआ ?

मोदी जी जब 2014 में लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उनके भाषणों ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। खास कर उनके दो जुमलों - अच्छे दिन आएंगे और ना खाऊंगा और ना खाने दूंगा- ने जैसे जादू कर दिया था। जब उन्होंने सत्ता संभाली तो लोग टकटकी बांध कर अच्छे दिन की बाट जोहते रहे पर वो कहां आये ? जहां तक खाने देने का सवाल है तो इसे रोकने के लिए अबतक की सबसे ताकतवर संस्था सी बी आई खुद रिश्वत खोरी के झमेले में फंस गई। मोदी जी के शासनकाल में दो बड़े मामले - राफेल सौदा और सी बी आई के अंदरूनी झगड़े ने भ्रष्टाचार उन्मूलन के उनकी साख को गंभीर आघात पहुंचाया है। यही नहीं,  इससे इस दिशा में सरकार द्वारा उठाये गए विभिन्न कदमों की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में आ गयी। इससे यह पता चलता है कि व्यक्तिगत अभियान अखबारों की सुर्खियों में आने के लिए नोटबन्दी जैसे कदमों से  भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। हो सकता है इससे ऐपकालिक लाभ हो पर समाज में कायम प्रवृति को नहीं बदला जा सकता। प्रवृति को बदलने की सारी कोशिशें तब व्यर्थ हो जातीं हैं जब इसके लिए बनी मुख्य संस्थाएं अपना विश्वास खोने लगतीं हैं। सी बी आई को सरकार के पिंजरे का तोता कहा जाता था लेकिन हाल की घटनाओं से लगता है कि तोता राम-राम बोलना छोड़ कर आपसी चुगलखोरी में जुट गया । सी बी आई ही जब भ्रष्टाचार से युक्त हो तो फिर जांच की उम्मीद ही क्या है? अब इसने अबतक जो भी किया है चाहे वह लालू यादव का चारा घोटाला हो या कार्ति चिदंबरम का मामला हो या शारदा घोटाला अब तो सबको  सियासी बदले की भावना से किया गया कहा जा सकता है। ऐसी हालत में जबतक  सी बी आई  पर  नियंत्रण रहेगा इसे  स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता है। 
  यही हाल राफेल सौदे का भी है। इसमें बहुत बड़ा घोटाला है ऐसा नहीं किया जा सकता है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से सरकार कुछ ऐसा कर रही है जैसे कुछ छिपाना चाह रही हो। अब यदि इस मामले में बहुत कम भी छिपाना हो या इसमें कुछ ऐसा हो जिससे मामूली सी शर्मिंदगी उठानी पड़े तब भी भ्रष्टाचार उन्मूलन को  अपने राजनीतिक प्रचार का मुख्य मसला कहने में जो आत्माभिमान था वह तो कुछ कम हो ही जायेगा। भ्रष्टाचार के विरोध में कोई भी जंग इस तरह नहीं जीती जा सकती है। वस्तुतः भ्रष्टाचार को शुद्ध नैतिक संघर्ष का मसला बनाना ही गलत है। इसमें पराजय सुनिश्चित है, क्योंकि इसकी जड़ें समाज में गहरी पैठी हैं। इसे अच्छे और बुरे जैसे दो भागों में नहीं विभाजित किया जा सकता है। भ्रष्टाचार मिटाने में सबसे बड़ी बात है कि इसके खिलाफ जंग के लिए ज़रूरी है अच्छी नीति , अच्छी अर्थ व्यवस्था और इसे सही समायोजन में उपयोग करने के लिए दृढ़ शक्ति। दवा का साइड इफेक्ट भी होता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए पौष्टिक भोजन और व्यायाम जरूरी है टैब दवा भी कारगर होती है । अगर सरकार डंडे के बल पर भ्रष्टाचार मिटाने निकली है तो अर्थ व्यवस्था को भी हानि पहुंचेगी।
     टैक्स की चोरी रोकने और जी एस टी को लागू करने के लिए हैम मोदी जी को दोषी नहीं कह सकते। लेकिन इसका एक पक्ष और भी है। अगर आप टैक्स चोरी के रास्ते बंद करते हैं और भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसते  हैं तो विकास और रोजगार पर कुछ समय के लिए असर तो पड़ेगा ही। जो पैसा रिश्वत या अन्य भ्रष्ट माध्यमों से आता है उसे उत्पादक कार्यों और अर्थ व्यवस्था  में वापस  लौटाने में समय लगता है। मोदी जी की गलती यह है कि उन्होंने भ्रष्टाचार को अपनी  नैतिक बाजी मान  ली।  यह अर्थ  व्यवस्था को बाद में लाभ पहुंचाएगी लेकिन उससे पहले मतदाताओं की वाहवाही खत्म हो जाएगी। वाजपेयी जी ने मतदाताओं के जिस बदलते मन को 2004 में संकझ लिया था मोदी जी उसे शायद 2019 में समझेंगे।    

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