अपने बच्चों को बचाइए
अगर खबरों को सही मानें तो इन दिनों बच्चे स्कूल में पढ़ने वाले अपने "कुछ भिन्न बिरदारी" के साथियों को यह कहते सुने जा रहे हैं कि "पड़ोसी देश जाओ" । अब से पहले आए दिन बहुत सारे नेता अपने विरोधियों को यह कहते सुने जाते थे। वह अक्सर अपने राजनीतिक विरोधियों से कहते थे कि "पाकिस्तान जाओ।" उस समय यह बात एक बेलगाम कथन की तरह लगती थी और समझा जाता था कि यह वक्त के साथ खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । अब राजनीतिक विरोधियों के लिए बात बेबात नारे लगाए जाते हैं कि " पाकिस्तान जाओ" या "वह पाकिस्तान समर्थक है। " यह बातें अनुगूंजित होकर जनता के बीच पहुंचती हैं और वहां से बच्चों के बीच । इस तरह की बात करने वाले लोगों को क्या यह फिक्र है या कभी उन्होंने सोचा है कि ऐसी स्थिति में भावी पीढ़ी का क्या होगा ,भावी भारत का क्या होगा? शायद उन्होंने इस पर कभी सोचा नहीं। क्योंकि जिनका इरादा समाज को इस तरह की मनोस्थिति में ले आना है वह तो इस हालत को अपनी सफलता मान सकते हैं। लेकिन गौर करें कि जब समाज में ज्यादातर लोग खासकर के नौजवान लोग अपने से अलग विचारों वालों से नफरत करने लगें और उन्हें नीचा दिखाने के लिए हिंसक होने लगें तो हमारा समाज कैसा होगा? कोई भी समाज विज्ञानी यह सलाह देगा कि ऐसी नफरत की आग से अपने बच्चों को बचाया जाय। इसका एकमात्र तरीका है कि वयस्क इसकी हानि को समझें। लेकिन शायद ऐसा नहीं हो रहा है। क्योंकि हमारे देश में जो विचारधारा मूलक राजनीति का बोलबाला है उसे इसकी कोई फिक्र नहीं है। यह सोचने की कोई जरूरत नहीं समझी जा रही है कि अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लोभ में बच्चों की दुनिया को तबाह किया जा रहा है।
इतिहास गवाह है कि दुनिया भर में धर्मांधता से जुड़े राष्ट्रवाद को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले समूह कुछ लोगों की सत्ता को कायम करने में लगे रहते हैं। इसलिए वे वंचित तबके और बच्चों को सिर्फ उपयोग के लायक ही मानते हैं। विशेष रूप से धार्मिक भावनाओं के आधार पर खड़ी राजनीति सदा हाशिए पर खड़े ऐसे समाज का औजार के रूप में उपयोग करती है जो अपनी रोजाना की जरूरतों से उलझे रहते हैं और सही संदर्भों को नहीं समझ पाते। अगर इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा ऐसे रास्तों से चल कर बड़ी हुई पीढ़ी मानवीय मूल्यों से कितना दूर हो जाती है और अपने समाज को कितना कलंकित करती है। स्कूल में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चों की दुनिया से हम सब गुजर कर ही आए हैं और हममें से सबको याद होगा की चूरन चटनी पर भी तीखे झगड़े हो जाते थे, लेकिन कुछ ही घंटो में फिर सब साथ ही हंसने बोलने लगते थे। यह स्थिति वयस्कों के समाज में भी हो यही उम्मीद भी की जाती है और इसी की कोशिश भी होनी चाहिए। एक सद्भावना पूर्ण समाज की उम्मीद बच्चों से बनती है। यही कारण है कि स्कूल जाते छोटे-छोटे बच्चे न केवल बच्चे हैं बल्कि समाज की उम्मीद भी हैं।
अब देश के भविष्य के बिंब के रूप में यह बच्चे अगर अपने कुछ साथियों के मन में डर या अलगाव की भावना केवल इसलिए पैदा करते हैं कि वह उनसे अलग धर्म का है। यह देश के लिए चिंता का विषय है। इससे सामाजिक सद्भाव कम होगा और यह एक बड़े समुदाय को देश के भीतर ही अलग-थलग महसूस करने पर बाध्य कर देगा। दरअसल बिना किसी उद्देश्य के धार्मिक भावनाओं की दुनिया में जीने वाले समाज को दूसरे धार्मिक पहचान वाले लोगों से नफरत करने के लिए उकसाना आसान होता है। जो लोग इसे राजनीति के औजार के रूप में उपयोग करते हैं उनका उद्देश्य समाज पर राजनीतिक और मानसिक रूप से शासन करना होता है। ऐसी स्थिति में कुछ खास तबके का समाज के बाकी हिस्से पर हावी रहना सुनिश्चित किया जाता है। इसी छोटे से तबके का अधिकांश संसाधनों पर अधिकार होता है। कह सकते हैं कि धार्मिकता की राजनीति समाज के एक बहुत ही छोटे हिस्से की सत्ता को कायम करने का हथियार होती है। इसके लिए मनुष्य की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर उनमें असुरक्षा का भाव भरते रहना ज्यादा जरूरी होता है। यह एक तरह से विचारों को मारने का सिलसिला है । धर्म आधारित राजनीति करने वाले पहले विरोधी के रूप में समाज के किसी हिस्से को टारगेट करते हैं और उनमें कृत्रिम खौफ पैदा करते हैं तथा राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों के माध्यम से इस हवा को कायम रखते हैं। साथ ही संचार माध्यमों का आक्रामक इस्तेमाल चलता रहता है। अब क्योंकि बच्चे बहुत जटिल बातें नहीं सोच सकते इसलिए ना चाहते हुए भी बच्चे इसके उपभोक्ता हो जाते हैं और उनका मानस धार्मिक पहचान को एक अलग सिद्धांत के रूप में देखने लगता है। इसका लाभ सामाजिक ढांचे में कुछ जातियों के वर्चस्व की यथास्थिति है बनाए रखने के रूप में दिखाई पड़ता है। जब कुछ नेता अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत बनाने के लिए के लिए उपयोग करते हैं और पाकिस्तान जाओ जैसे लहजे में अपने विरोधियों पर हमला करते हैं तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनकी हरकत भविष्य में कैसे समाज रचना करेगी। हालांकि फिलहाल दो सम्प्रदायों की शिनाख्त के बीच देखने में यह दूरी आ रही है लेकिन यह ज़हर तो हमारे समाज में पहले से मौजूद रहा है। अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि स्कूलों में कुछ बच्चों ने दोपहर का खाना इसलिए खाने से मना कर दिया कि उसे बनाने वाली महिला दलित थी। दलितों या पिछड़ी जातियों के लोगों के प्रति सवर्ण बच्चों का व्यवहार अक्सर जातिगत भेदभाव से नियंत्रित होता है। यह भेदभाव समाज में पहले से व्याप्त है इसलिए किसी का ध्यान नहीं जाता। अगर यही भेदभाव धर्म की पहचान से नियंत्रित होने लगे तो इस पर चिंता जरूरी है।
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