पुराने सिपाही जा रहे हैं नए चौकीदार आ रहे हैं
भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी के बाद अब मुरली मनोहर जोशी को भी टिकट नहीं दिया । कानपुर से उनकी जगह उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सत्यदेव पचौरी को टिकट दिया गया है। 2014 में मुरली मनोहर जोशी ने नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी सीट खाली की थी और कानपुर से चुनाव लड़े थे। पचासी वर्षीय जोशी भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से हैं। 6 बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सांसद रह चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी के इस कदम पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि पार्टी वरिष्ठ नेताओं का सम्मान नहीं कर रही है।
उधर भारतीय जनता पार्टी के इस कदम से ऐसा लग रहा है कि यह एक सुविचारित बदलाव है और पार्टी नए चेहरों को सामने लाना चाहती है। यह भी दिखाना चाहती है कि परिवारवाद काम नहीं करता। उच्च पदस्थ सूत्रों का मानना है कि पुराने सिपाहियों में से कुछ को टिकट नहीं दिए जाने का मतलब है कि इसे नए नेताओं के व्यापक समूह में वितरित करना । यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी यह भी जताना चाहती है की वह नौजवानों पर भरोसा करती है और उन्हें कुछ जिम्मेदारियां सौंपना चाहती है । यही नहीं इससे यह भी संदेश दिया जा रहा है कि अन्य पार्टियों की तरह परिवार की इसमें कोई प्राथमिकता नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की सूची यह भी बताती है कि पुराने लोगों को आराम करने दिया जाए ।इसमें वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी, कलराज मिश्र, भगत सिंह कोश्यारी और बीसी खंडूरी भी शामिल हैं, जो इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे।
वयोवृद्ध नेताओं को टिकट नहीं दिए जाने का तर्क समझ में आया लेकिन यह बात समझ से परे है की पार्टी के चार चार मंत्रियों ने चुनाव न लड़ने का फैसला किया है। यह सामान्य बात नहीं है। अब देखें 13 बार लोकसभा चुनाव लड़कर और 8 बार विजयी रहने वाले और सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकॉर्ड कायम करने वाले रामविलास पासवान लोकसभा से नहीं राज्यसभा के सांसद बनना चाहते हैं। जबकि उनका एक भी विधायक नहीं है और भाजपा ने उनकी मांग को स्वीकार कर लिया है। भाजपा ने आश्वासन भी दिया है कि उन्हें असम से राज्यसभा भेजा जाएगा। यही नहीं, पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज लोकसभा और राज्यसभा में जाती और आती रहीं हैं। वह तीन बार मध्य प्रदेश के विदिशा से चुनाव जीत चुकी हैं। उन्होंने भी चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। 6 बार की सांसद उमा भारती भी चुनाव नहीं लड़ रहीं हैं। आखिर ऐसा क्यों?
2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ बिल्कुल गिर गया था तो उन के तीन मंत्रियों ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। यह बात समझ में आती है। लेकिन अगर मोदी सरकार के मंत्री चुनाव नहीं लड़ रहे हैं तो थोड़ा अजीब लग रहा है। क्योंकि मोदी सरकार की लोकप्रियता कथित रूप से शिखर पर है और ऐसे में कम से कम पांच मंत्रियों ने क्यों चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया और कई मंत्रियों ने चुनाव क्षेत्र बदलने का फैसला किया है । यही नहीं ,छत्तीसगढ़ में भी उलटफेर की आशंका है। दिल्ली में भी कई पुराने सिपहसालारों के टिकट काटे जायेंगे। बिहार की बात तो विचित्र लग रही है। पिछली बार भाजपा ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ कर 22 सीटें जीती थी। लेकिन इस चुनाव में वह सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है। 5 सांसद यहीं कम हो गए। आखिर क्या कारण है ?
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिन सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ रही है अगर मनोवैज्ञानिक तौर पर इस सोच का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि पार्टी या तो अपने सहयोगी दलों के साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार कर रही है या फिर उसके मन में केवल जीतने की इच्छा है। इसलिए इस पर गंभीरतापूर्वक सोचना जरूरी है कि मोदी सरकार के कई मंत्री चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि भाजपा एनडीए के सांसदों को यह भरोसा है कि हवाई दावे चाहे जो हों चुनाव जीतने के समीकरण कुछ अलग होते हैं । पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि हम चौकीदार हैं आप हमें वोट दीजिए और हम चौकीदारी करेंगे । जब राफेल का मामला उछला और विपक्ष ने घोटाले के आरोप लगाने शुरू कर दिए तो एक नारा चल पड़ा "चौकीदार चोर है । " सरकार सफाई दे नहीं सकती थी क्योंकि इससे विवाद और बढ़ता तो इसने अपने सभी मंत्रियों को अपने टि्वटर अकाउंट में नाम के पहले चौकीदार जोड़ने को कह दिया। इसे कुछ इस तरह पेश किया गया कि अब सभी मंत्री काम छोड़कर चौकीदारी करने लगे हैं । लेकिन यह भाजपा की सोची समझी गई रणनीति थी । वह चाहती थी उससे कोई गंभीर सवाल ही न पूछा जाए और इसमें उसे सफलता मिल गई। यह तो तय है कि भाजपा इस चुनाव में उस मनोदशा में नहीं है जिस मनोदशा में 2014 में हुआ करती थी। चुनाव नहीं लड़ने का फैसला करने वाले मंत्री और सांसद इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं। लेकिन, यह भी ध्यान रखें कि मोदी और शाह के लिए यह चुनाव केवल चुनाव नहीं है बल्कि उनके अस्तित्व का सवाल है। परिणाम के बारे में कुछ भी कहना अभी उचित नहीं है लेकिन यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि इस चुनाव में भाजपा की मनोदशा बदली हुई है।
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