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Wednesday, March 20, 2019

रंग ,रस ,शब्द और सुगंध की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली

रंग ,रस ,शब्द और सुगंध की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली

निशीथ काल के बाद की  कुछ घड़ियां  बीतते ही कोयल ने कुक भरी, पपीहे ने पुकारा" पी कहां" और निशा ने उषा को रवि की ओर धीमे से धकेला।  उषा का चेहरा सुर्ख हो गया। चेहरे की लाली आकाश मैं फैल गई।  रथ पर सवार सूरज ने अपने रथ पर रखे रंगो को धरती पर फैला दिया । संपूर्ण धरा रंगो से नहा गई। पीले फूलों से लदे सरसों की पतली कमर बलखाती हुई गाने लगी,
रहे बदलते करवटें हम तो पूरी रात
अब के जब हम मिलेंगे करनी क्या क्या बात
गढ़े कसीदे नेह के हम तो पूरी रात
अब जब  मिलेंगे हम करनी क्या क्या बात
उधर पलाश ,हरसिंगार, अमलतास और अशोक फूलों से लदी पूरी प्रकृति पुलकित हो गई । दूर क्षितिज पर धरती और आसमान एक दूसरे के आलिंगन में बंधे दिखने लगे। हेमंत के पियराये पत्ते झर गए और जीर्ण वसन विहाय प्रकृति ने नया परिधान धारण कर लिया। गांव की गलियों से कंकरीट के जंगलों- शहरों- तक होली का उमंग उमड़ता दिखाई पड़ने लगा। प्रकृति ने  सबकी आंखों में वसंत का अंजन आंज दिया। विजयादशमी के अगरु, धूप, चंदन से चर्चित दिन एक साथ फूलों से लदे दिवस में बदल गया। शायद ऐसे ही किसी दिन विदुर के घर कृष्ण आए थे और दरवाजे पर उनकी आवाज सुनकर विदुर पत्नी आनंद  विभोर होकर स्नानागार से निर्वस्त्र बाहर आ गई थी। लेकिन कृष्ण को प्रेम दिखा देह नहीं। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि हम कहां से लाएं ? यह संवेदनशीलता हमारे भीतर अगर आ जाए तो हमारा हर पल होली में बदल जाए। संपूर्ण जीवन एक उत्सव बन जाए , एक समारोह बन जाए। विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन की उत्सव धर्मिता को बंद नहीं होने देना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। हमारी हंसी, हमारी खुशी परमात्मा द्वारा प्रदत्त है और जब हम हंसते हैं तो उसी परमात्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, कृतज्ञता जाहिर करते हैं।
       होली एक ऐसा त्यौहार है जो हमें बताता है कि हम यानी मानव समुदाय प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जाहिर करना सीखें और कम से कम एक दिन उस कृतज्ञता के भाव में विभोर हो जाएं तो हमारे समुदाय की इकाई मनुष्य में ईमानदारी  और स्वाभिमान कायम रहेगा। हमारे पुराणों के रचयिता ऋषि बिंबो से लोक की कहानियां रचते थे। होलिका दहन की कहानी भी कुछ ऐसी है। होली के एक दिन पहले हम अपने भीतर से अभावों, लोकैषणा और वासना का होलिका दहन कर श्रद्धा और निष्ठा के प्रह्लाद को यदि बचा सकते हैं तो हमारा जीवन सुखमय रहेगा। हर पल उत्सव रहेगा । यही नहीं होली से जुड़ी एक कहानी और भी इसलिए होली को मदन उत्सव भी कहते हैं । शिव की समाधि को भंग करने जब कामदेव अपने पुष्प वाण ले कर गए और भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र को खोलकर उसे भस्म कर दिया तो वहां मौजूद प्रकृति के नटखट पुत्र वसंत के लिए यह स्थिति वरदान हो गई । वह अनंग व्यापक होकर प्रकृति में समा गया।  यही कारण है कि वसंत में काम स्तवन की गुनगुनाहट सुनाई पड़ती है।
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
    कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं "अधोगत  काम विधाता और हमसे कई अनर्थ करवाता है। बलात्कार और हत्या करवाता है। लेकिन काम उन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण, उमा - महेश ,कालिदास, टैगोर और गेटे जैसे वरदान देता है। होली के रंग में सराबोर ,अबीर गुलाल से रंगा मन जब उल्लास के पंखों पर उड़ता  है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय हो जाता है। तब होली अपनी पूरी मादकता के साथ लहराती है।
इसीलिए तो होली का सौंदर्य और उसके धुन प्रकृति और नारी के बिंबो से आगे बढ़कर लोकगीतों की धुनों में में समा गए और लोकगीतों का यह आनंद सरस प्रदेश शब्दों में गुंथकर भदेस लोकगीतों में आ गया। होली शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले आनंद की सहज अभिव्यक्ति है । यही कारण है कि आज बेशक जीवन के अर्थ बदल गए हैं महानगरीय जीवन में एक अभिजात्यता आ गई है और होली के रंग को भी औपचारिकता में डालने की कोशिश की जाती है लेकिन इससे यह फीका नहीं पड़ता। कृष्ण नृत्य और गायन के उपासक थे, ठिठोली उनकी प्रिय थी। इसलिए आज भी होली की खुशी राधा कृष्ण आख्यान के बिना पूरी नहीं होती। होली भारतीय दर्शन में प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति है और संदेश है कि प्रेम के बिना जीवन व्यर्थ है। प्रेम और आनंद केवल शरीर का सुख नहीं है यह आत्मा का भी श्रृंगार है। विषयों के बीच अलिप्त रह कर कर्म करना गीता का संदेश है और यही संदेश होली के लिए भी है कि मदन रस में डूब कर भी वासना से दूर रहना ही आनंद  विभोर हो जाने की अवस्था है। राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंपृक्त हैं  और तब भी एकात्म हैं। यही कारण है कि आधुनिकता के इस युग में भी जीवन का सत्य कायम है ,होली की ठिठोली कायम है। होली का आनंद हमारे भीतर अब भी रोमांच पैदा करता है और और बसंत पूरी मादकता के साथ लहकता है।

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