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Monday, March 25, 2019

चीन, नेहरू और इतिहास के पन्ने

चीन, नेहरू और इतिहास के पन्ने

हरिराम पाण्डेय
चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले ही हमारे नेताओं के विमर्श की शालीनता बुरी तरह घटती जा रही है।  उसमें एक नया अध्याय तब जुड़ जाता है जब  वे नेता ऐतिहासिक रूप में गलत बातें करने लगते हैं। कोई कहता है "चौकीदार चोर है"  तो दूसरा जवाब में चीन को राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के मामले में उस नेता के बाप दादा को दोषी बताता है। अभी हाल में जब  राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने रोक दिया तब से यह बात कही जाने लगी है कि चीन को सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलाने में जवाहरलाल नेहरू की खास भूमिका थी। सोशल मीडिया में यह बात बहुत बुरी तरह वायरल हो चुकी है।  जिसे देखो अपना मंतव्य दे रहा है । इन मंतव्यों का इतिहास से कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन यह इतिहास के संदर्भ के रूप में  हमारे समाज के मानस के  भीतर पैठ रहा है और अपनी जगह बना रहा है। कुछ समय के बाद आप पाएंगे की यही इतिहास हो गया। लोकमानस ही इतिहास की धारा को तय करता है। इसका सबूत इस से मिलने लगा है कि कुछ लोग 2 अगस्त 1955 को मुख्य मंत्रियों द्वारा जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र का  हवाला भी देने लगे हैं- मुख्यमंत्रियों ने लिखा था - "अनौपचारिक रूप से अमरीका ने कहा था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल कर लिया जाये लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं और भारत को सुरक्षा परिषद में अपनी जगह ले लेनी चाहिए।"
    जवाहरलाल नेहरू ने 2 अगस्त 1955 को ही मुख्यमंत्रियों को लिखा कि " निश्चय ही हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इससे चीन  अलग-थलग पड़ जाएगा और यह चीन के साथ अन्याय होगा कि उसे सुरक्षा परिषद में नहीं ले जाया गया। " यह दोनों कथन  संदर्भ हीन हैं  और कहीं भी  किसी भी दस्तावेज में इनका जिक्र नहीं मिलता। 
      अलबत्ता नेहरू ने 27 सितंबर 1955 को लोकसभा में डॉ जे एन पारीक के प्रश्न कि " क्या भारत ने राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने के अनौपचारिक पेशकश को अस्वीकार कर दिया?" नेहरू ने इस प्रश्न के जवाब में कहा कि " औपचारिक और अनौपचारिक इसी तरह की कोई पेशकश नहीं हुई। कुछ अखबारों में  अस्पष्ट सा छपा था। जिसमें कुछ भी सच नहीं था। सुरक्षा परिषद का गठन राष्ट्र संघ चार्टर के आधार पर हुआ जिसमें कुछ खास देशों को ही स्थाई जगह मिली । इसमें तब तक कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जब तक चार्टर में कोई संशोधन ना हो। इसलिए सीट का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और ना भारत द्वारा अस्वीकार करने का।"
   तो सच क्या है
      अब प्रश्न उठता है सच्चाई क्या है? क्या अमरीका ने भारत को उस समय  राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में  एक स्थान के लिए औपचारिक या अनौपचारिक सुझाव दिया था। अगर दिया था तो नेहरू ने इसे क्यों नहीं स्वीकार किया? 
   हमारे देश की स्थिति  खास करके बंटवारे के बाद की जिओ पॉलिटिक्स और शीत युद्ध में उलझे इस दो ध्रुवीय विश्व में इस प्रश्न का उत्तर निहित है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड ने अपनी क्षमता बनाए रखने के लिए अविभाजित भारत के संसाधनों खासकर आर्थिक और मानव संसाधन का जमकर शोषण किया। 1945 के सितंबर में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया और ब्रिटेन की पूंजी भी खत्म हो गई । उस समय ब्रिटिश जनता इस बात के खिलाफ थी कि उपनिवेशों पर खर्च किया जाए । चर्चील की   पार्टी चुनाव में हार गई और भारत की आजादी का समर्थन करने वाली  लेबर पार्टी चुनाव जीत गई। क्योंकि भारत में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए और इसलिए 15 अगस्त 1947 को भारत को आजाद करने का दिन तय किया गया। कोई भी भारतीय चाहे वह सिख हो या हिंदू या मुसलमान , भारत में अपनी जमीन और अपने घर मकान छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन सांप्रदायिक दंगे भड़क गए।  भारत और पाकिस्तान के बीच खून की लकीर से बंटवारा हुआ। बहुत से लोग इधर से उधर गए और उधर से इधर आए। लगभग 10 लाख लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोग निर्वासित हुए। बंटवारे के बाद भारत एक विपन्न राष्ट्र हो गया। कोई उद्योग नहीं, कोई तकनीक नहीं, कमजोर अर्थव्यवस्था और पड़ोस में दुश्मन पाकिस्तान।
      लेकिन आजादी के बाद भी भारत को एकजुट करने का प्रयास जारी रहा। कुछ उपनिवेश और रियासत उस समय भी कायम थे। बंटवारे के बाद का भारत अमरीका के तहत नई गुलामी नहीं चाहता था। दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान की नौसेना को भी तहस-नहस कर दिया गया था और अमेरिका एक नई महा शक्ति के रूप में उभर चुका था। उसकी नौसेना में इतनी क्षमता थी कि वह पूरी दुनिया में घूम सकती थी। अगस्त 1948 से शीत युद्ध का संकर्षण आरंभ हो गया। अमरीका को यूरोप के बिखराव और उपनिवेशों , खासकर  पूरब,  दक्षिण,  पश्चिम एशिया और  तेल की दौलत से अमीर मध्य पूर्व एशिया से उपनिवेश के समाप्त होने से हुई कमी  उसे महसूस होने लगी। अमरीका की बहुत ही महत्वपूर्ण संचार लाइनें भारत के नीचे से गुजरती थीं। अमरीका ने लगातार इशारे शुरू कर दिए कि भारत अमरीकी नेतृत्व वाले शीत युद्ध समूह में शामिल हो जाए । बंटवारे के बाद का भारत बड़ी संख्या में छोटी छोटी रियासतों और छोटे छोटे प्रांतों  को एकजुट कर बनाया  गया भारत था । इसलिए तत्कालीन भारत की सरकार देश में एकता और एकजुटता कायम करने में ज्यादा दिलचस्पी रखती थी और वह अंग्रेजों को हटाकर अमरीकियों का गुलाम नहीं बनना चाहती थी। तत्कालीन सरकार कुर्बानियों के बाद हासिल इस राष्ट्र की संप्रभुता बनाए रखना चाहती थी। भारत को यह मालूम था कि शीत युद्ध  के कारण   दो समूहों में बंटे इस विश्व में भारत कभी भी आदर पूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सकता है। इसलिए इसने निर्गुट का विकल्प तैयार किया और बाद में धीरे धीरे रूस की तरफ कदम बढ़ाने लगा।
          कुल मिलाकर अमरीका से दूरी बनाए रखना और सोवियत संघ की तरफ झुकना भारत की रणनीति थी।  सोवियत संघ से भारत की कोई सीमा नहीं लगती थी और ना ही उसकी नौसेना की पहुंच यहां तक थी। इसलिए सोवियत संघ भारत पर कुछ लाद नहीं सकता था। उल्टे भारत को आर्थिक और सैनिक सहायता दे सकता था । दूसरी तरफ, अमरीका भारत से अड्डे चाहता था और वह  भारत के साथ ऐसा  बर्ताव करता था कि वह राजा हो। जैसे-जैसे शीत युद्ध परवान चढ़ता गया अमरीका को लगने लगा कि निर्गुट  भारत का सोवियत संघ की तरफ झुकाव एक भारी खतरा है। उसे डर था कि भारत सोवियत संघ को नौसैनिक अड्डे के लिए जगह दे सकता है। उधर , भारत सोवियत संघ की मदद से अपनी नौसेना को मजबूत कर रहा था।  अमरीका को यह संदेह होने लगा कि कहीं बाद में भारत हिंद महासागर पर अपना वर्चस्व कायम न कर ले। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने की पेशकश के इशारे के रूप में उसने भारत को रिश्वत देने की कोशिश की। यह याद रखना जरूरी होगा कि पेशकश का यह संकेत कोई परोपकारी नहीं बल्कि उसके साथ एक शर्त भी जुड़ी थी कि भारत को उस के खेमे में शामिल होना होगा। ऐसे इशारे खुल्लम खुल्ला रूप में पहले 1950 में मिले और उसके बाद 1955 में। इसी वर्ष यानी 1955 में ही भारत ने  सोवियत संघ से संबंध बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाया।
         अब चूंकि  भारत अमरीका की साजिश में नहीं पड़ा तो  उसने इसे संतुलित करने के लिए पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाया । 1954 में पारस्परिक  सुरक्षा सहायता  समझौते पर   हस्ताक्षर  के बाद से अमरीका और पाकिस्तान का सहयोग आरंभ हुआ।  उसके बाद पाकिस्तान को दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सीटो ) में शामिल कर लिया गया। बाद में इराक ने इसे 1958 में छोड़ दिया तो इसका नाम बदलकर मध्य संधि समझौता (सेंटो) कर दिया गया। 1959 में अमरीका ने पाकिस्तान से एक द्विपक्षीय समझौता किया और उसके बाद पाकिस्तान को एशिया में अमरीका का सबसे अच्छा दोस्त समझा जाने लगा। अमरीका ने पाकिस्तान को हथियार देने शुरू किए। इसके दो उद्देश्य थे। पहला कि भारत को भूमि और वायु क्षेत्रों से खतरा बना रहे  ताकि वह नौसैनिक सुविधाओं के निर्माण से अपना ध्यान हटा दे और केवल सैनिक और वायु सैनिक सुविधाओं को संपन्न करने में लग जाए  ताकि पाकिस्तान से मुकाबला किया जा सके।  पचास  वर्षों के भारत सरकार के बजट इसके गवाह हैं।
         अब सवाल उठता है कि क्या चीन को भारत की कीमत पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सदस्यता मिली। रिपब्लिक ऑफ चाइना दुनिया की उन चार महा शक्तियों में से एक था जिसने  1944 में  डमबर्टन  ओक्स कॉन्फ्रेंस में राष्ट्र संघ के ड्राफ्ट चार्टर पर काम किया था। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का गठन 1949 में हुआ था। इसके बाद जून 1950 से जुलाई 1953 तक कोरिया का युद्ध हुआ ताइवान का संकट आया और उसमें अमरीका ने चीन के खिलाफ परमाणु बम के इस्तेमाल की धमकी भी दी थी। 1960 तक इसके संबंध पूर्ववर्ती सोवियत संघ से खराब हो गए। पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने पहला परमाणु परीक्षण किया । राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में रिपब्लिक ऑफ चाइना को ही पांच स्थाई सदस्यों के साथ 1971 तक रखा गया। जब राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव संख्या 2758 पारित किया गया तो रिपब्लिक ऑफ चाइना का नाम बदलकर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना किया गया। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि 1955 से 1971 तक अगर अमरीका सचमुच चाहता तो वह भारत को सुरक्षा परिषद में शामिल करा सकता था।
            बेशक यह सोचना बड़ा मोहक लगता है कि आज हम जो कुछ भी हैं वह कुछ विशिष्ट और अयोग्य नेताओं के कारण हैं। सच तो यह है कि  हमारी कुछ मजबूरियां थीं और कुछ जिओ पॉलिटिक्स का तकाजा था। कोई भी नेता देश के महत्वपूर्ण हित से समझौता नहीं कर सकता। यद्यपि बाद के नेता भी इन्हीं कठिनाइयों से दो-चार हुए हैं।  ये कठिनाइयां उन नेताओं क्या थीं। वे थीं भौगोलिक स्थितियां, जनसांख्यिकी ,संसाधन, अर्थव्यवस्था और पर्याप्त सैनिक  क्षमता जिस  के कारण उत्पन्न कमी को दूर वे नहीं कर सकते थे। हमारे कुछ नेता अभी भी कोशिश में हैं लेकिन जब वे नाकाम होते हैं तो दोष अपने पूर्ववर्ती नेताओं पर डाल देते हैं क्योंकि अपनी नाकामी छिपाने का यही सबसे आसान तरीका है।

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