राजनीतिज्ञों पर रोक क्यों नहीं
जब बात कश्मीर की आती है तो सरदार वल्लभभाई पटेल को उद्धृत किया जाने लगता है लेकिन जब बात अयोध्या की आती है शायद ही सरदार पटेल को याद किया जाता है । अयोध्या मसले को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता का आदेश दिया। ऐसे में सरदार पटेल की एक बात याद आती है। सरदार पटेल ने कहा था कि "अयोध्या मामले का दोनों समुदायों की पारस्परिक सहिष्णुता और सदिच्छा के आधार पर सर्वमान्य हल होना चाहिए। " इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि वे भी वही चाहते थे जो पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अयोध्या मामले के बारे में चाहते थे। सरदार पटेल को कठोर हिंदू हृदय सम्राट के रूप में जाना जाता है और सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए याद किया जाता है ,लेकिन सरदार पटेल अयोध्या मामले का राजनीतिकरण नहीं करना चाहते थे, यह बात कहीं नहीं कही जाती। दुर्गा दास द्वारा संपादित "सरदार पटेल्स कॉरस्पॉडेंस वॉल्यूम 9" के अनुसार " वस्तुतः वे (सरदार पटेल) नहीं चाहते थे कि अयोध्या मामला मुस्लिमों की सहमति के बगैर हल किया जाए।" अयोध्या मसले को लेकर गड़बड़ी 1949 के नवंबर में शुरू हुई। विख्यात इतिहासकार और गांधी दर्शन के विद्वान किशोरी लाल मशरूवाला के अनुसार "संत अक्षय ब्रह्मचारी ने 13 नवंबर 1949 को अयोध्या का दौरा किया और वहां देखा कि कब्रिस्तान में एक मकबरे की खुदाई हो रही है।" मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने इसके विरुद्ध अयोध्या के सिटी मजिस्ट्रेट को आवेदन किया पर कोई लाभ नहीं हुआ। अक्षय ब्रह्मचारी ने भी सिटी मजिस्ट्रेट से भेंट की लेकिन कुछ नहीं हो सका । उल्टे 15 नवंबर 1949 की रात में ब्रह्मचारी पर हमला हुआ। " 19 अगस्त 1950 के हरिजन में किशोरी लाल मशरूवाला ने लिखा है कि "मकबरे को खोले जाने के बाद वहां 9 दिनों का रामायण पाठ हुआ उसके बाद बाबरी मस्जिद के सामने कुछ दिनों तक भोजन और प्रसाद बंटते रहे। इसके साथ ही वहां लोगों को जमा किया जाने लगा और भाषण दिए जाने लगे जिसमें कहा जाने लगा कि बाबरी मस्जिद को तोड़कर राम मंदिर बनाया जाए। उसी दौरान कुछ और धार्मिक स्थलों को तोड़ दिया गया। शहर में धारा 144 लागू कर दी गई । 23 दिसंबर 1949 को सुबह 9 बजे बाबरी मस्जिद में भगवान राम की प्रतिमा स्थापित कर दी गई। दूसरे दिन लोगों को वहां दर्शन के लिए आमंत्रित किया जाने लगा और जब लोग एकत्र होते थे तो यह भाषण दिया जाने लगा कि पाकिस्तान में कोई भी मंदिर छोड़ा नहीं गया है तो फिर अयोध्या में वे मंदिर या कब्रिस्तान नहीं रहने देंगे। महात्मा गांधी, नेहरू और कांग्रेस सरकार पर भी भाषणों में हमले किए जाने लगे। पुराने कांग्रेसी भी इस प्रचार को हवा देने में लगे हुए थे यहां तक कि कुछ कांग्रेसी विधायक भी इसमें शामिल थे।" इस दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को एक तार भेजा। इसके बाद सरदार पटेल ने भी एक पत्र लिखा। उन्होंने इस गैर जिम्मेदारी के बारे में निर्देश दिए। नेहरू टेलीग्राम का उल्लेख कर पटेल ने यह कहा कि "बंटवारे के घाव ने यह स्थिति पैदा की है धीरे-धीरे यह घाव भर जाएगा लेकिन यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि हम इस समूह को लाभ उठाने का मौका देते हैं। क्योंकि यह मामला दोनों समुदायों की सहिष्णुता और सदिच्छा के आधार पर तय किया जाना चाहिए ।"सरदार पटेल ने स्पष्ट लिखा , "यह मसला शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जाना चाहिए इसे बलपूर्वक सुलझाए जाने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है। किसी भी दबाव मूलक प्रवृत्ति या धमकी का उल्टा प्रभाव होगा।"
सरदार पटेल इस मामले को बहुत प्रचारित करने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन राम मंदिर के नाम पर जो प्रचार शुरू हो चुका था उस को नहीं रोक सके। ब्रह्मचारी ने इसी मसले को लेकर 22 अगस्त 1950 को अनशन आरंभ किया। विनोबा भावे तथा उत्तर प्रदेश सरकार के हस्तक्षेप के बाद भी 32 दिनों तक यह अनशन चलता रहा। उस समय लाल बहादुर शास्त्री उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री हुआ करते थे। उन्होंने अक्षय ब्रह्मचारी को लिखा कि "अयोध्या में सही स्थिति लाने के लिए सरकार ने सभी प्रबंध किए हैं और यदि कोई कमी रह गई है तो इसे पूरा करना हमारा कर्तव्य है। इसमें सब के सहयोग की जरूरत है खास करके वातावरण ऐसा बनाया जाना चाहिए कि जो लोग वहां रहते हैं वे शांति और सौहार्दपूर्ण ढंग से जी सकें( हरिजन 30 सितंबर 1950)।"
इसके बाद के वर्षों में अयोध्या में राम मंदिर हिंदू पुनरुत्थान और मुस्लिम विरोधी प्रचार का तंत्र बन गया। 1990 में विख्यात गुजराती पत्रकार रमेश ओझा ने मधु लिमए और लालकृष्ण आडवाणी के सहयोग और निर्देशन में इस विवाद का वास्तुसम्मत हल खोजने की कोशिश की और लिखा "यह मामला धार्मिक नहीं राजनीतिक है और संप्रदायिक आधार पर हिंदुओं को राजनीतिक रूप में संगठित करने का मौका नहीं चूकना चाहिए( संदेश साप्ताहिक परिशिष्ट 10 मार्च 1990 पेज 8 )।" कहा जा सकता है कि जब राम के नाम के पत्थर तैर सकते हैं तो कौन जानता है कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर मसले का अपने राजनीति भविष्य के लिए किसने इस्तेमाल किया।
इस मामले में ताजा स्थिति को लेकर गड़बड़ी यह है सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की प्रक्रिया को मीडिया में आने से रोक दिया है लेकिन राजनीतिज्ञों पर इस तरह की रोक कायम नहीं है । अब मीडिया इसे कहीं भी प्रकाशित नहीं कर सकता है ना इसकी रिपोर्ट कर सकता है लेकिन राजनीतिक नेता वोट के लिए इसे उपयोग में ला सकते हैं। उन्हें कोई नहीं रोक सकता। वे राम जन्म स्थान पर मंदिर बनाने से रोके जाने को लेकर प्रचार करेंगे। वह मतदाताओं को यह बताएंगे कि मंदिर बनाने से हिंदुओं को रोका जा रहा है।
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