अब लोग बात भी नहीं करते
भारतीय समाज में एक अजीब मानसिक परिवर्तन हुआ है। मानसिक परिवर्तन क्यों हुआ यह खोजना तो मनोवैज्ञानिकों का विषय है, लेकिन देखने से पता चलता है कि लोग कुछ खबरों के आधार पर विचार बना लेते हैं और उस विचार का विरोध करने वालों से बातचीत ही नहीं करते । एक जमाने में भारतीय तर्कशील हुआ करते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक "अरगुमेंटेटिव इंडियंस" में लिखा है कि "भारतीय सभ्यता और संस्कृति के लिए बहस बहुत जरूरी है।" लेकिन, इन दिनों बहस का यह तत्व हमारे समाज ,खासकर शहरी समाज से धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। हाल में हुए एक सर्वे के अनुसार दुनिया भर में राजनीतिक रूप से विभाजित लोगों में भारतीय सबसे ज्यादा हैं। अंतरराष्ट्रीय मार्केटिंग रिसर्च कंपनी इप्सोस के अनुसार पूरी दुनिया में 24% ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि अगर कोई राजनीतिक रूप से उन से मतभेद रखता है तो वह बात करने के लायक नहीं है। लेकिन भारत में 35% ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि राजनीतिक रूप से विरोधी विचार रखने वालों से बातें ना की जाएं । इप्सोस ने 27 देशों के 20 हजार वयस्कों से 26 नवंबर से 7 दिसंबर के बीच बातचीत की थी। जिन भारतीयों से बातचीत की गई उनमें से अधिकांश शहरी ,पढ़े लिखे और संपन्न लोग थे। इस सर्वे में यह भी दिखाया गया कि भारत में जो विपरीत राजनीतिक विचार रखते हैं उनसे बातचीत नहीं करनी चाहिए। उनमें से 44% भारतीयों का यह मानना है की विपरीत राजनीतिक विचार रखने वाले लोग उन जैसे लोगों की परवाह नहीं करते । ऐसे विचार रखने वालों का वैश्विक औसत 31% है। 43% लोगों का मानना है कि विपरीत विचार रखने वाले लोग देश की परवाह नहीं करते ,उन्हें देश से प्रेम नहीं है। इन सब के बावजूद भारत में बहुत से लोग ऐसे हैं जो विपरीत राजनीतिक विचारधारा वाले लोगों से बातचीत करते हैं। भारत में 56% लोग ऐसे हैं जो विपरीत राजनीतिक विचारधारा वाले लोगों से सप्ताह में कम से कम एक बार तो जरूर बतिया लेते हैं । जबकि वैश्विक स्तर पर ऐसे लोगों की संख्या 35% है ।
यही नहीं भारतीय फेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे प्लेटफार्म की ताकत को लेकर ज्यादा आशान्वित हैं। 63% लोगों का मानना है कि सोशल मीडिया ने सत्ता में कायम लोगों और आम जनता के बीच के अवरोधों को खत्म कर दिया है। जब कि दुनिया भर में 44% लोग ही ऐसा सोचते हैं । भारतीय फेसबुक और ट्विटर की ताकत को बहुत ज्यादा मानते हैं और एक तरह से यह सत्तासीन लोगों से सीधी बातचीत करने के उनके सपनों को पूरा करते हैं।
इप्सोस द्वारा सर्वे के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि अधिकांश भारतीय सोशल मीडिया को बातचीत करने का माध्यम मानते हैं । बहुत कम लोग ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि सोशल प्लेटफॉर्म विखंडन की प्रक्रिया को गति देते हैं। भारत में कुछ महीनों के बाद चुनाव होने वाले हैं और इस समय पुलवामा हमले को लेकर पूरा देश तनाव में है या कह सकते हैं कि आवेशित है । ऐसे में राजनीतिक ध्रुवीकरण की उम्मीद बहुत ज्यादा है ,क्योंकि 1971 के बाद के दिनों में ऐसा कभी हुआ नहीं है। ध्रुवीकरण की इस स्थिति को और मजबूत बनाने तथा विस्तृत करने के उद्देश्य से हो सकता है चुनाव के पहले एक बार फिर पाकिस्तान के किसी हिस्से पर हमला हो। इससे राष्ट्र प्रेम के विमर्श का दायरा और विस्तृत हो जाएगा। पुलवामा की घटना के बाद देश प्रेम के विमर्श पर मीडिया के माध्यम से सत्ता पक्ष का नियंत्रण नई ऊंचाइयों को छू रहा है। राष्ट्र की सुरक्षा का सवाल और जंग सा माहौल लोगों के भीतर सत्ता पक्ष के लिए मंजूरी के भाव जगा रहा है। उसमें ध्रुवीकरण की स्थिति कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन कर रही है कि लोग खुद-ब-खुद यह सोचने लगे हैं कि ऐसे माहौल में कुछ कहना ठीक नहीं। माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि विमर्श और बिम्बों के माध्यम से लोगों को यह समझाने की कोशिश हो रही है कि सेना और सरकार में कोई फर्क नहीं है । यह मान लिया जाए कि जिस तरह सेना आलोचना से परे है उसी तरह सरकार भी आलोचना से परे है। यह एक करिश्मा है तर्कों का। राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला मीन मेख की अनुमति नहीं देता। यह एक विशेष स्थिति होती है । चुनाव में एक नया करिश्मा हो सकता है। चुनाव के नतीजों के बारे में अभी कुछ कहना बहुत सही नहीं होगा। लेकिन इस बात का सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या होगा।
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