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Wednesday, March 6, 2019

युद्ध ही विकल्प नहीं है

युद्ध ही विकल्प नहीं है

एक राष्ट्र के रूप में भारत को यह मालूम नहीं है कि आधुनिक हथियारों से लड़ा जाने वाला युद्ध कैसा होता है। "फॉरेन पॉलिसी" पत्रिका ने लिखा है कि भारतीय मीडिया युद्ध को लेकर पागल है - "वार क्रेजी" है। ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि भारतीय मीडिया खासकर टेलिविजन न्यूज नेटवर्क खून का प्यासा हो गया है। उसी तरह सोशल नेटवर्क में भी आम आदमी इसी तरह का  बर्ताव कर रहा है ,इनमें ऐसे लोग ज्यादा हैं जो केवल आग लगाना चाहते हैं।
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है
फैलती है लपटें विषैली व्यक्तियों की सांस से
ये ऐसे लोग हैं जिन्हें युद्ध का कोई तजुर्बा नहीं है पर युद्ध को लेकर अति उत्साही हैं। लंबा अरसा हो गया जब भारत ने युद्ध लड़ा था। छोटे-मोटे आतंकी हमलों से निपटने की घटना को छोड़कर तो आज की नई पीढ़ी खासकर नौजवान युद्ध के बारे में जानते ही नहीं हैं।  वे गौरवशाली युद्ध और विजय के बारे में भारी मुगालते में हैं। जिन सिपाहियों ने या सैनिकों ने पहला और दूसरा विश्व युद्ध लड़ा है वह हमारे बीच नहीं हैं और हैं भी तो इस लायक नहीं रह गए हैं कि हमें इसके बारे में चेतावनी दे सकें। आज जो फौजी हैं वे 1971 के बाद के हैं और किसी भी मुकम्मल युद्ध में शामिल नहीं हुए हैं। भारतीय फौज विगत 30 वर्षों से आतंकवाद, उग्रवाद, कट्टरवाद और विद्रोह से लड़ रही है और इसी में एक सिपाही का जीवन गुजर जाता है। बहुत कम ऐसा हुआ है जब भारतीय फौज ने बराबर रसद आपूर्ति, हथियार आपूर्ति और वायु सेना की मदद को एक साथ मिलाकर कोई बड़ा हमला किया हो जो भी हमले हुए हैं वह  छोटे-छोटे आतंकी संगठनों को नेस्तनाबूद करने के उद्देश्य से हुए हैं ,जिनमें दोबारा रसद और हथियार की आपूर्ति की जरूरत नहीं पड़ी है। यह कोई युद्ध नहीं है। हमारे देश के नौजवान लगातार युद्ध की मांग कर रहे हैं लेकिन ना उन्होंने युद्ध देखा है ना युद्ध से उनका साबका पड़ा है ।1965 और 71 के जंग के जमाने में जो लोग थे उन से पूछिए उनका जीवन इन युद्धों से कैसे प्रभावित हुआ था खासकर के सीमावर्ती इलाकों के लोगों के जीवन के बारे में जानने की कोशिश की जाए । 1962 और 1999 का युद्ध एक खास क्षेत्र तक समिति था और बहुत से लोग यह महसूस नहीं कर पाए सचमुच खूनी जंग लड़ी जा रही है। युद्ध एक शहर या एक क्षेत्र को कई गुना आतंकित कर सकता है।
        युद्ध का तार्किक उद्देश्य दुश्मन को घुटनों पर खड़ा करना होता है। युद्ध के दौरान विकसित देश ज्यादा प्रभावित होते हैं। जहां तक पाकिस्तान का प्रश्न है वह एक समर नैतिक मूर्खताओं वाला देश है और उस पर मैकेनाइज्ड फौज से दबाव बनाना खतरनाक है । क्योंकि उसके परमाणु धैर्य की सीमा रेखा बहुत छोटी है। अतएव पाकिस्तान से  युद्ध की स्थिति में हमें इसके लिए पहले से तैयार होना पड़ेगा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद या कहें कि उसके दौरान ही युद्ध का स्वरूप औद्योगिक हो गया । बड़े पैमाने पर कारखानों में हथियार और गोला बारूद बनने लगे तथा फौज का स्वरूप विस्तृत हो गया। दूसरी तरफ, शहरों को नेस्तनाबूद करने के लिए हवाई हमले शुरू हो गए ,क्योंकि विजय के लिए पूरे देश को समाप्त करना युद्ध का उद्देश्य बन गया। युद्ध की मांग करने वाले लोग आम जनता के जीवन की व्यथा को नहीं देख पाए हैं। दूसरे विश्व युद्ध का जापान में जो वॉर मेमोरियल बना है उसमें स्कूल जाती लड़की का स्वरूप याद करें जो हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम की चपेट में आ गई थी।
युद्ध को पहचानते सब लोग हैं 
जानते हैं युद्ध का परिणाम अंतिम ध्वंस है
आधुनिक युद्ध में सैनिक और आम आदमी के बीच की रेखा खत्म हो गई है। आज युद्ध का अर्थ दुश्मन के कल कारखानों और औद्योगिक संयंत्रों को समाप्त करना है ताकि वह हथियार या उससे जुड़े साजोसामान ना बना सके। इस तरह के हमलों के चपेट में देश के वैज्ञानिक, कुशल कारीगर ,अत्यंत दक्ष इंजीनियर और आम आदमी भी आ जाते हैं तथा  मारे जाते हैं।  ये ऐसे लोग हैं जो एक बर्बाद देश को दुबारा तैयार कर आबाद कर सकते हैं। एक कहावत है कि युद्ध राजनीतिज्ञ आरंभ करते हैं सैनिक लड़ते हैं और जन समर्थन के आधार पर वह चलता है तथा नागरिक इसका निशाना बनते हैं।  बीमा वाले भी युद्ध में हुए नुकसान का खामियाजा नहीं देते । जरा सोचिए 155 मिलीमीटर का एक गोला 200 से 500 करोड़ रुपये  के एक मॉल को धूल में मिला सकता है। 
लड़ना उसे पड़ता मगर जीतने के बाद भी
रणभूमि में देखता है 
जब वह सत्य को रोता हुआ
बेशक भारतीय जनता पाकिस्तान से और उनकी करतूतों से ऊब चुकी है और उसे सबक सिखाने की मांग करनी उचित भी है। लेकिन जब उनके घर- बार और परिवार वाले युद्ध के निशाने पर आएंगे तो क्या युद्ध की मांग करने वाले यही लोग उसे वह बर्दाश्त कर सकते हैं। क्या आईसी 814 विमान के अपहरण की तरह कोई घटना जंग को बीच में ही रोक देने के लिए बाध्य नहीं कर देगी। हमारे बिजलीघर परमाणु संस्थान और बड़े उद्योग जिन्हें वर्षो की मेहनत और कारीगरी से बनाया गया वह समाप्त होने लगेंगे तो  सरकार जंग रोक देने के लिए मजबूर नहीं हो जाएगी ? यह सवाल उठता है कि क्या एक व्यापक युद्ध आराम कुर्सी पर बैठकर युद्ध की मांग करने वाले लोगों को सबक सिखा सकता है? शायद नहीं । क्योंकि जो जंग का जश्न मनाते हैं वे युद्ध में शरीक नहीं होते और जो शरीक होते हैं वे जश्न नहीं मनाते।
जो आप तो लड़ता नहीं ,
कटवा किशोरों को मगर ,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन गई बच,
लाज सारे देश की

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