अयोध्या मामला मध्यस्थता के लिए सौंपा गया
भारत की राजनीति और समाज में बुनियादी परिवर्तन लाने वाला अयोध्या का राम मंदिर- बाबरी मस्जिद विवाद को अब सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए सौंप दिया है। इसके लिए तीन सदस्य पैनल बनाया गया है। इस पैनल में सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश एफएम कलिफुल्ला, वरिष्ठ अधिवक्ता श्री राम पंचू और अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर शामिल किये गए हैं। न्यायमूर्ति कलिफुल्ला इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि एक हफ्ते के अंदर मध्यस्थता की प्रक्रिया आरंभ हो जानी चाहिए और पैनल चार हफ्तों में अपनी शुरुआती रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दे और 8 हफ्तों में पूरी रिपोर्ट सौंपनी होगी। पैनल की बैठक फैजाबाद में होगी और बंद कमरे में होगी। साथ ही इसकी खबर मीडिया में नहीं आएगी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला चल रहा था तो सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा कि यह मामला सिर्फ जमीन के विवाद का नहीं है यह दो समुदायों से जुड़ा है और इसके ऐसे समाधान की जरूरत है जो सभी पक्षों को स्वीकार्य हो।
जब से सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया है और मध्यस्थता करने वाले पैनल में श्री श्री रविशंकर का नाम आया है तब से कई स्तरों पर यह बात चल रही है कि क्या रविशंकर इसके लिए उपयुक्त हैं? दो वर्ष पहले श्री श्री रविशंकर ने कहा था कि " अगर अयोध्या विवाद को सुलझाना है तो जिस जगह पर विवादित ढांचा था वहां एक विशाल राम मंदिर बना दिया जाए। जिसके निर्माण में दोनों समुदायों के लोग शामिल हों।" श्री श्री रविशंकर ने यह बात 15 नवंबर 2017 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद कही थी। इसके बाद उन्होंने 18 नवंबर को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के साथ बंद कमरे में बातचीत की और तब यह अफवाह फैल गयी कि श्री श्री रविशंकर संघ के कहने पर काम कर रहे हैं।
विगत सत्तर वर्षों से चल रहे इस कानूनी विवाद में यह नया मोड़ है। यह विवाद 1992 के दिसंबर में बाबरी ढांचे को ढाह दिए जाने के बाद हिंसक मोड़ ले चुका है । सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह मसला मध्यस्था के लिए सौंप दिए जाने का स्पष्ट अर्थ है कि अदालत ने यह मान लिया है कि यह मामला सिर्फ 2.77 एकड़ जमीन के मालिकाना का नहीं है। यह मामला धार्मिक भावनाओं से भी जुड़ा है। पिछले हफ्ते न्यायमूर्ति एस ए बोबडे ने यह स्पष्ट कहा था कि " हम जनता की भावनाओं और समाज पर इसके असर को समझते हैं। हम लोगों के मन- मस्तिष्क पर लगे आघातों पर मरहम लगाने की कोशिश भी कर रहे हैं।" यद्यपि यह धार्मिक भावना ही है जो मध्यस्थता की प्रक्रिया में बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण बात है। जब यह कहा गया कि मध्यस्थता होगी तो जाहिर है इसमें दोनों पक्षों के बीच लेन-देन भी होगा। यह समझौता फिर आस्था के मुद्दे पर आकर अटक जाएगा। क्या मुस्लिम पक्ष बाबरी मस्जिद जिस भूमि पर खड़ी थी उसका एक हिस्सा हिंदू पक्ष को सौंपने को तैयार है या फिर क्या भगवान राम के जन्म स्थान की भूमि का कोई टुकड़ा हिंदू पक्ष मुसलमान पक्ष को सौंप सकता है? क्या मुस्लिम पक्ष जमीन पर से अपना दावा छोड़ सकता है या फिर हिंदू पक्ष राम जन्मभूमि पर से अपना दावा छोड़ने को सहमत हो सकता है? मध्यस्थता की प्रक्रिया अक्सर सिविल विवादों में एक सहमति पर आने की होती है। कानूनी रूप से समझौता कह सकते हैं। अभी यह प्रश्न उठता है कि क्या अत्यंत भावना प्रधान और आस्था आधारित ऐसे मसलों को मध्यस्थता से सुलझाया जा सकता है जिसमें बहुत ज्यादा राजनीति जुड़ी हो? साथ ही क्या मध्यस्थता के लिए बैठे लोग लाखों-करोड़ों लोगों के प्रतिनिधि हो सकते हैं? क्या उनके फैसले देश के करोड़ों लोगों द्वारा मान्य होंगे?
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