बारिश से कोलकाता बेहाल
गुरुवार से लगातार बारिश के कारण महानगर कोलकाता का जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया है। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार केवल शनिवार को 24 घंटों में 181 मिली मीटर से ज्यादा वर्षा हुई है और रविवार को भी बारिश जारी है। इससे आवागमन ठप हो गया है और कई लोगों का जीवन बेहद प्रभावित हुआ है। ऐसा लगभग हर वर्ष होता है इसलिए इसे संजोग नहीं कह सकते या कोई आकस्मिक मौसमी घटना नहीं कह सकते। कोलकाता में बारिश विपदा का पर्यायवाची बन गई है। एक प्रश्न उठता है कि क्या मौसम का यह डायनामिक्स हमारी समझ से परे है? हर साल बारिश के दौरान कोलकाता महानगर क्षेत्र में कुछ लोग मरते हैं ,कुछ संपत्ति बर्बाद होती है और उसके बाद सब कुछ सामान्य सा होने लगता है। सरकार से लेकर आम आदमी तक किसी को इसकी फिक्र नहीं कि हम अपनी जमीन, अपने जल स्रोतों और जल निकासी व्यवस्था का इतना क्रूर उपयोग करते हैं? एक दूसरे पर आरोप लगाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। आरोप लगाना आसान है। यह सोचना जरूरी है कि किसी दूसरे के अलावा हम इसके लिए कितने दोषी हैं? यहां हम का अर्थ है इस शहर का आम आदमी जो शहर की सुविधाओं का उपभोग करना चाहता है ,शहर के लिए जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता। अखबारों की सुर्ख़ियों में बारिश की खबर के साथ विनाश की खबरें आती हैं, मुश्किलों की खबरें आती हैं लेकिन हम जरा रुक कर यह नहीं सोचते की एयर कंडीशनर चालू करने के पहले जरा यह सोच लें कि इसकी जरूरत है या नहीं । हम यह नहीं सोचते कि जो पानी हमारे सामने नालियों से बह रहा है वह कितना उचित है ,हम में से कितने लोग सार्वजनिक बसों के उपयोग के हामी हैं? हमारी कल्पनाओं में हमारी अपनी सुविधाएं हैं लेकिन इन सुविधाओं से होने वाली मुश्किलों के बारे में हम नहीं सोचते। हम कभी नहीं सोचते कि हमारे जीवन में एक मामूली सा बदलाव मौसम को कितना ज्यादा प्रभावित करेगा। बेशक हम पर्यावरण पर कभी-कभी बात कर लेते हैं क्योंकि यह अक्सर चर्चा में रहता है लेकिन हमने मौसम पर कभी नहीं सोचा या बहुत कम सोचते हैं। हम तो बस यही मानते हैं कि यह दुनिया भर के नेताओं की जिम्मेदारी है। हाल की कुछ घटनाओं को जरा रुक कर देखें। अगर हम इस शहर में आए हैं तो इसके प्रति हमारी कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। हमारा फैलता (विकसित होता ) शहर पूर्वी भाग के खालों और भेरियों समाप्त करता जा रहा है। कुछ लोग जल निकासी व्यवस्था और सफाई को इस विपदा के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन यही केवल समस्या नहीं है यह तो देश के अन्य बड़े शहरों में भी है। जरा गौर करें, हम जिस महानगर में रहते हैं उसकी भौगोलिक स्थिति क्या है? क्योंकि किसी भी शहर की भौगोलिक स्थिति ही उसकी पहचान होती है । जैसे हम दशकों से से यह सुनते आए हो कि काशी दुनिया से अलग शिवजी के त्रिशूल पर है, यानी उसका कुछ भौगोलिक वैशिष्ट्य है ,उसी तरह जरा कोलकाता के बारे में सोचिए?
कोलकाता औसत समुद्र तल से केवल 20 फुट ऊपर है। इसलिए यहां जल निकासी की व्यवस्था बहुत कठिन है। यहां तक कि साधारण बारिश का पानी भी यहां निकलना कठिन हो जाता है। इसके अलावा समुद्र में समय-असमय आने वाला ज्वार इसे और भी कठिन बना देता है।
कोलकाता के वैज्ञानिकों के अनुसार शहर में डूब की स्थिति बड़ी विकट है। विगत दो दशकों में पच्चीस लाख लोग इससे प्रभावित हुए हैं। शहर 1930 के बाद पूरब की तरफ बढ़ने लगा और आजादी के बाद यह बढ़ना और तेज हो गया कोलकाता महानगर विकास प्राधिकरण तथा शहर के परिप्रेक्ष्य में 1990 में बनी विकास की योजनाओं में जल निकासी की कमी को को नजरअंदाज कर दिया गया। कोलकाता शहर के पुराने खाल या कहें नहर प्रणाली जो विगत तीन सदी से एक अच्छी जल निकासी व्यवस्था के रूप में काम कर रही थी वह मरम्मत के बिना समाप्तप्राय है। इसके अलावा शहर से बाहर निकलने वाले कई नाले, नालिया और खाल भर गए है । साथ ही रोज निकलने वाला कूड़ा बढ़ती आबादी के साथ बढ़ता गया और उसे निपटाना समस्या बनती गई।
कोलकाता की मूल जल निकासी व्यवस्था उसके सब बेसिन की जल निकासी क्षमता पर आधारित लेकिन धुआंधार विकास के कारण सब बेसिन नष्ट हो गए या उन पर बहुत ज्यादा दबाव बढ़ गया। कुल मिलाकर कह सकते हैं यह शहर अत्यंत प्राचीन है और यहां की जलजमाव की समस्या कई समस्याओं से जुड़ी है और इसके लिए किसी एक समस्या को खोज पाना बड़ा कठिन है। एक तरफ जमीन की बनावट ,उसकी भौगोलिक स्थिति, बारिश इत्यादि कारण है तो दूसरी तरफ जल निकासी व्यवस्था का अभाव शहरीकरण के कारण जनसंख्या में विस्तार शहर के उत्तर से दक्षिण भाग की ओर लोगों का पुनर्वास इत्यादि कारण है। यहां के शहर के लोबगों को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इसकी व्यवस्था को सुचारू बनाने के लिए उनका भी कुछ न कुछ कर्तव्य है और वह शहर के विकास के लिए सरकारी योजनाओं के अमल में सहयोग करें ना कि संसाधनों के दुरुपयोग से उनका गलत उपभोग करें।
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