चुप रहने में ही पाकिस्तान की भलाई
कश्मीर मामले पर पाकिस्तान की सारी उम्मीदें किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता पर निर्भर थीं पर फ्रांस में जी 7 की बैठक के हाशिए पर मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात से यह स्पष्ट हो गया के पश्चिमी देश इस मामले में कोई मध्यस्थता नहीं करने वाले और इसी के साथ पाकिस्तान की उम्मीद खत्म हो गई के 1948 के संकल्प के मुताबिक वह कश्मीर में जनमत संग्रह के अपने मंसूबे को कामयाब कर लेगा। पश्चिमी देश और भारत की जिहाद के प्रति असहिष्णुता से यह भी साफ हो गया कि अगर वह अपना रवैया नहीं बदलता है तो उसका बचा रहना दूभर हो जाएगा। जहां तक कश्मीर का मामला है सभी पक्षों को खुश करने के लिए शुरू से ही कई लोगों ने अथक परिश्रम किए लेकिन ऐसा नहीं हुआ जो दिखाई पड़े । आज कश्मीर में शांति का पथ प्रशस्त करने में उन सभी आत्माओं का योगदान कहा जाएगा। इनमें अलेक्सेई कोसिगिन , लाल बहादुर शास्त्री, भुट्टो, इंदिरा गांधी , जियाउल हक, राजीव गांधी, मुशर्रफ, अटल बिहारी वाजपेई तथा मनमोहन सिंह सब ने प्रयास किए पर असफल हो गए । किसी युद्ध के बाद शांति का प्रयास सरल है क्योंकि ऐसे में मामूली ही सही विनाश एक उदाहरण रहता है । लेकिन राजनीतिक मतभेद से जुड़े किसी विद्रोह के बाद ऐसा करना जरा कठिन है । यही कारण है कि कश्मीर में शांति के अतीत के सभी प्रयास असफल हो गए। क्योंकि यहां शक्ति और विनाश के तत्व गैरहाजिर थे। इन सभी प्रयासों में क्रमिक रूप से अमरीकी प्रशासन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अमरीकी प्रशासन के प्रमुखों में खासकर बुश सीनियर से लेकर ट्रंप तक की भूमिका सराहनीय रही। अमरीका ने 1987 से गंभीरता से कश्मीर में शांति का प्रयास आरंभ किया। यह वह वक्त था जब अमरीका अफगानिस्तान में अपना कारोबार बंद करके लौटना चाहता था और साथ ही जिहाद जैसे कार्यों के लिए पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आई एस आई को भी मदद बंद कर देना चाहता था। अमरीका जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान में सोवियत संघ से लड़ाई के लिए धन और हथियार भेजा करता था वह धन और हथियार कश्मीर पहुंच जाता था। इसके बाद जब पाकिस्तान ने जब परमाणु बम बना लिया तो उसकी हेकड़ी और बढ़ गई। यह अमरीका के लिए भी रणनीतिक सिर दर्द बनने लगा ,हालांकि अमरीका पाकिस्तान की आईएसआई और मुजाहिदीन से पल्ला झाड़ कर धीरे धीरे अफगानिस्तान से निकलने का प्रयास कर रहा था । यहीं एक गलती हो गई। यदि उसने जिहाद परियोजनाओं को पूरी तरह बंद करवा दिया होता तो शायद वह 11 सितंबर या 9/11 की घटना नहीं हुई होती और ना ही कश्मीर में आतंकवाद होता। यह अफगानिस्तान में जिहाद खत्म होने के बाद आरंभ हुआ। जब आतंकवाद आरंभ हो ही गया तो वही पुराना खेल भी चालू हो गया। फिर किसी न किसी मोड़ पर पैसा और हथियार लेकर उसे कश्मीर भेज दिए अमरीका एक तरह से ऊबने लगा था। इसी बीच 1998 का परमाणु परीक्षण हुआ और पूरे मामले में एक नया अध्याय जुड़ गया । पाकिस्तान ने अपने परमाणु भंडार जिहादियों को सौंपना आरंभ कर दिया। अब इसमें चारों तरफ खतरे की घंटी बजानी और जरूरी हो गया कि जिहाद के उन कार्यक्रमों को बंद किया जाए कारगिल युद्ध के बाद यह तो एक तरह से इमरजेंसी की तरह हो गया। अमरीका भारत और पाकिस्तान के बीच अमन चाहता था क्योंकि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र हैं और कभी भी एक मामूली सी गलत भी बहुत बड़ा विनाश का कारण बन सकती है। यही नहीं जियोपोलिटिकल नजरिए से देखें तो अमरीका बीजिंग और तेहरान के बरअक्स इस मामले को देख रहा था। चीन पाकिस्तान से पश्चिमी प्रभाव हटाने के लिए उसकी मदद कर रहा था । उधर तेहरान गल्फ क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करने में लगा था। इस नई स्थिति में शांति और जरूरी हो गई।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा में तब्दील करने और घाटी से फौज की तैनाती खत्म करने के लिए तैयार हो गए थे लेकिन 2008 के मुंबई हमले को अंजाम देकर आईएसआई ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया। पाकिस्तानी सेना धीरे-धीरे रेडिकल होती गयी और उसके एक बड़े हिस्से को भारत से शांति पसंद नहीं थी । वह हिस्सा मुशर्रफ के खिलाफ होता गया मुंबई हमले में यह साबित कर दिया कि अमरीका को जिसका डर था वही हुआ। इससे उसने एक सबक सीखा कि आई एस आई पर भरोसा करना व्यर्थ है।
अब सवाल है कि 2008 के बाद क्या बदला कि मोदी जी के भीतर आत्मविश्वास जगा और उन्होंने इतना बड़ा कदम उठाया । खास करके पाकिस्तानी जिहाद अभी भी परमाणु छतरी के नीचे ऐंठा है ।
इसके लिए तीन तत्व या कहें तीन कारण दिख रहे हैं। पहला कि पाकिस्तान भयंकर कंगाली से गुजर रहा है और अमरीका ने हाथ खींच लिया है । इससे उसका सुरक्षा खर्च कम हो गया। अब ऐसी स्थिति में साल दर साल यह सब जारी रखना नामुमकिन हो गया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक और वित्तीय कार्यबल ने साफ चेतावनी दे दी कि अगर आतंकवाद कायम रहेगा तो भविष्य के लिए पैसा नहीं मिल सकता है । दूसरा कारण था रेडिकलाइजेशन के बाद पाकिस्तानी सेना और वहां की जनता पेशेवर नहीं बन सकी। देेेश के भीतर तरह-तरह की चुनौतियां उभरने लगीं। तीसरा कारण था पाक से ऊब चुके थे। पाकिस्तान ने यह समझ लिया था और यही कारण था कि उसने चीन और सऊदी अरब का पल्ला पकड़ लिया । लेकिन उधर चीन की भविष्य की चुनौतियां पाकिस्तान से ज्यादा जरूरी थी।
अब भविष्य में क्या होगा यह इस बात पर निर्भर है कि पाकिस्तान कितनी जल्दी एक सामान्य और स्वीकार्य देश बन जाता है।
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