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Wednesday, August 14, 2019

आजादी का जश्न क्यों मनाते हैं 

आजादी का जश्न क्यों मनाते हैं 
आज हमारे देश का स्वाधीनता दिवस है। 1947 को इसी दिन हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र हुआ था और हमें अपना मुकद्दर खुद लिखने का हक हासिल हुआ था। उस दिन से यह एक परंपरा बन गई है कि इस दिन को हम जश्न के साथ मनाएं। आजादी मनुष्य का बुनियादी हक है जिससे वह स्वतंत्र माहौल में चिंतन कर सके और इंसानियत के लिए कुछ भला कर सके। हमारे पूर्वजों ने इसी हक को हासिल करने के लिए अनगिनत कुर्बानियां दीं। इस हक को हासिल करने की जंग किसी खास आदमी का सपना नहीं बल्कि उस  पीढ़ी का उद्देश्य था जिसने अंग्रेजों को खुल्लम खुल्ला चुनौती दी थी कि " देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।" 
       पिछले पांच सात वर्षों से हमारे देश में देश भक्ति या  देश प्रेम का ज्वार आया हुआ है। ऐसे में एक प्रश्न प्रासंगिक है कि देश क्या है? भारत से आप क्या समझते हैं और देश प्रेम क्या है? स्वाधीनता का यह पर्व क्यों मनाते हैं? अलग-अलग लोग अलग-अलग व्याख्या करेंगे। अगर पूछें कि वह कौन सी अमूर्त भावना है जो दिखती नहीं है लेकिन हमें बांधे रखती है? बकौल नादीन गाडीमर "भावनाएं आत्मा की घटनाएं हैं।" हावड़ा पुल को पार करते समय हममें से बहुतों ने देखा होगा कि पुल से गुजरते हुए लोग नदी को प्रणाम करते हैं।  अगर नदी पर गौर करें तो वह एक मटमैली सी धारा होती है। मनोवैज्ञानिक तौर पर देखें तो प्रणाम करने की घटना किसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नहीं है बल्कि भीतर से उत्पन्न स्वउच्छवासित घटना है। आप कहीं उंगली रखकर नहीं कर सकते यही देश है। यानी इसका कोई मूर्त रूप नहीं देख सकता। यही भावना देश प्रेम है। दरअसल यह भावना एक स्मृति है जीवन से अधिक विराट और समय की सीमा से परे। देश प्रेम एक चिरंतन घटना है जो हर पीढ़ी के भीतर है, उसकी आत्मा में है। यह एक शक्ति है जो अचेतन में अन्तरगुम्फित होती है इसी अन्तरगुम्फन के कारण पत्थर का एक टुकड़ा शिव बन जाता है ,पर्वत कैलाश और गंगा मां बन जाती है।
        "श्मशान में साधते शंकर जीवन स्रोत
मरण रास के तमस में जैसे अभिनव ज्योत"
   जो लोग आज देश प्रेम या राष्ट्रभक्त पर सवाल उठाते हैं उन्हें यह स्पष्ट समझना चाहिए कि यह व्यक्ति जीवंत पवित्रता का गौरव है जो एक प्रकार की धार्मिक संवेदना ग्रहण कर लेता है। यही आत्मीय उपकरण राष्ट्रभक्ति की भावना को उत्पन्न करता है। कभी आपने राम पर गौर किया है। जी हां उस अयोध्या के राम पर। राम को अगर दर्शन के नजरिए से अलग कर दें तो वह एक पौराणिक कथा के रूपक हैं। एक रूपक का ऐसा जीवंत स्वरूप वहीं संभव है जहां भूगोल की देह पर संस्कृति की रचना हुई है। यही संस्कृति रचना एक झुंड में चलते हुए लोगों की यात्रा को तीर्थ यात्रा बना देती है। कुछ लोगों को वंदे मातरम में सांप्रदायिकता नजर आती है। वे यह नहीं समझ पाते की प्रेम की भावना को स्मृतियों और इतिहास में सनी पीड़ा से पृथक कर देने से भावना की पवित्रता नष्ट हो जाती है। उसकी गरिमा समाप्त हो जाती है। ऐसा इसलिए कि हम इतिहास की व्यथा को उस स्मृति के साथ देख सकें और महसूस कर सकें। इतिहास अध्ययन करते वक्त उसके हर पायदान पर समाजशास्त्र और दर्शन का एहसास होता है। ऐसा इसलिए होता है कि इतिहास की घटना समाज और उसकी सोच के दबावों के फलस्वरूप घटती है। इतिहास की घटनाएं  संगीत की लयबद्धता  की तरह हुआ करती हैं  जिसमें छोटे-छोटे वाद्य अनुशासित ढंग से सम्मिलित होकर एक नए सुर का जन्म देते हैं।
         आज कश्मीर सुर्ख़ियों में है। सुर्ख़ियों में इस लिए नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां से धारा 370 हटा दिया या इशारा किया कि अगला निशाना अधिकृत कश्मीर पर है। पूरे देश में सनसनी मच गई है ऐसा इसलिए हुआ है कश्मीर केवल भारत का अंग ही नहीं है बल्कि अलबरूनी के शब्दों में "कश्मीर हिंदू दर्शन और आध्यात्मिक शोध का काशी के बाद सबसे बड़ा केंद्र है।" जरा ग़ौर करें कि क्या हम राज तरंगिणी जैसी एतिहासिक रचनाओं को अपनी  पारंपरिक चिंता धारा से अलग कर सकते हैं? कश्मीर की चर्चा इसलिए है कि इस की सीमाएं समय के साथ साथ संस्कृति के नक्शे में बदल गई। हमारे स्वतंत्रता संघर्ष की अंधेरी रातों को इसी संस्कृति की ज्योत ने आलोकित किया। बेशक कई दबाओं और तूफानी झोंकों के कारण वह लौ थोड़ी डगमगा रही है लेकिन लोगों के भीतर राष्ट्रप्रेम  कायम  है तो इसका कारण यह आश्वासन है कि यह वह ज्योति जल रही है।  यही कारण है कि "आज तेरी हिम्मत की चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।"

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