CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Thursday, October 31, 2019

आधी रात से बंट गया एक राज्य

आधी रात से बंट गया एक राज्य 

कुछ साल पहले एक बहुत मशहूर किताब आई थी "फ्रीडम एट मिडनाइट।" उस किताब में भारत की आजादी की व्याख्या थी। उसके कुछ साल पहले सचमुच आधी रात को भारत आजाद हुआ था तो जवाहरलाल नेहरू ने एक भाषण दिया था उसकी सबसे मशहूर पंक्ति है "ट्राईस्ट विद डेस्टिनी" आज हम उसी डेस्टिनी से मुकाबिल हैं। अब 30 अक्टूबर की रात धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर 2 राज्यों में बंट गया। अब से कोई  कोई 72 वर्ष पहले कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ कश्मीर के विलय की संधि  जिसके बाद यह रियासत भारत का अभिन्न हिस्सा बन गई । बंटवारे का यह समां इतिहास में दर्ज हो गया। 5 अगस्त को जम्मू और कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद उसे दो हिस्से में बांटने का फैसला भी किया गया था। एक हिस्सा था लद्दाख और दूसरा जम्मू कश्मीर। साथ ही दोनों को केंद्र शासित राज्य भी घोषित कर दिया गया था। जम्मू कश्मीर को मिला राज्य का दर्जा गुरुवार को खत्म हो गया और उसके साथ ही उसे 2 केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया। इसके साथ ही  राज्यों के उपराज्यपाल भी अपना पदभार संभाल लेंगे। जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल होंगे गिरीश चंद्र मुर्मू और लद्दाख का भार आरके माथुर को सौंपा गया है।
      भारत के इतिहास की यह पहली घटना है जब दो केंद्र शासित राज्य एक ही राज्य से निकले हैं। इसके साथ ही देश में राज्यों की संख्या 28 और केंद्र शासित प्रदेशों की संख्या नौ हो गई । दोनों केंद्र शासित प्रदेश देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती के दिन अस्तित्व में आ गए । सरदार पटेल को देश की 560 से ज्यादा रियासतों के भारत में विलय का श्रेय है । हमारे  देश में  31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस मनाया जाता है। कानूनन केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में पुडुचेरी की तरह ही विधानसभा होगी जबकि लद्दाख  चंडीगढ़ की तर्ज पर बगैर विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेशों होगा।
      हालांकि आगे क्या होगा इस बारे में कुछ भी कहना बहुत जल्दी बाजी होगी। किंतु केंद्र को उम्मीद है कि अब वार्ता आरंभ हो जाएगी और कश्मीर के सभी मशहूर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद जो राजनीतिक शून्य कायम हो गया है, वह भरना शुरू होगा। केंद्र सरकार एक नया राजनीतिक उत्प्रेरण शुरू कर रही है जो वहां के लोगों और नई दिल्ली के बीच बातचीत का आधार बनेगा। जम्मू और कश्मीर एक बहुत बड़े बदलाव से गुजर रहा है और यह बदलाव वे लोग ज्यादा महसूस कर रहे हैं जो कभी सत्ता में हुआ करते थे और इसलिए उनकी बेचैनी को समझा जा सकता है। कश्मीर में एक सबसे बड़ा तत्व है पाकिस्तान के बरअक्स वहां की सुरक्षा की स्थिति। क्योंकि पाकिस्तान  कश्मीर के राष्ट्र विरोधी तत्वों को लगातार और अबाध मदद करता है। अब कश्मीर में जो राजनीतिक मैदान बचा है उसमें नए खिलाड़ी प्रवेश कर रहे हैं लेकिन पुराने खिलाड़ियों को पछाड़ना आसान नहीं होगा। नए लोगों के कश्मीर में पैर जमाने की बहुत कम घटनाएं सामने हैं। पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन ने एक व्यवहारिक राजनीतिक विकल्प तैयार करने की कोशिश की लेकिन कुछ नहीं कर पाए। थोड़ी सी सफलता उन्हें कुपवाड़ा में मिली । फिलहाल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के आधार डगमगा रहे हैं और उसके कई कारण हैं। पहला कि वे खुलकर पंचायत चुनाव लड़े और राज्य भर के पंचायतों के पंच और सरपंच दूसरी पार्टियों के हैं। दूसरी बात यह है कि शासन में  उनकी पकड़ नहीं है और कश्मीरी इसे अच्छी तरह समझते हैं। वहां की अवाम किसी विकल्प की तलाश में है। तीसरी बात है कि वहां का सरकारी तंत्र केंद्र की बात सुनता है। राज्य का उस तंत्र पर या अफसरशाही पर कोई पकड़ नहीं है । पुरानी अफसरशाही का पुराने राजनीतिज्ञों से जो भी तालमेल है उससे नए तंत्र का उभार जरूरी है ताकि नए लोगों के समर्थक बढ़ सकें। अब इन नए खिलाड़ियों से क्या उम्मीद हो सकती है यह आने वाला वक्त ही बताएगा । इसमें सबसे महत्वपूर्ण है पाकिस्तान की गुप्त दखलंदाजी। पाकिस्तान को किसी भी तरह से रोका नहीं गया तो वह यहां गड़बड़ी पैदा करेगा । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी को रोकने की योजना में जुटे हुए हैं।


Wednesday, October 30, 2019

लोकतंत्र संकट में

लोकतंत्र संकट में 

पिछले कुछ महीनों से शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो जब दुनिया के किसी न किसी देश में  प्रदर्शन ना होते हों और उसके दौरान हिंसा या तोड़फोड़ नहीं होते हों।  यह सब उन देशों में होता है जहां स्थापित लोकतंत्र  है। 2018 की अक्टूबर में फ्रांस में पीले जैकेट पहनकर प्रदर्शन शुरू हुए। वहां पीले जैकेट एक तरह से इस बात के बिंब थे कि उस देश में जीवन यापन महंगा होता जा रहा है और तेल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। कुछ प्रदर्शनों के दौरान सड़कें अवरुद्ध कर दी जाती थीं। जो इस बात का संकेत था कि निम्न वर्ग और मध्यवर्ग सरकार के  सुधार का विरोध कर रहा है । हर रविवार को प्रदर्शन होता था। जिसमें  मांग की जाती थी कि राष्ट्रपति मैक्रों और उनकी सरकार इस्तीफा दें। यह कई महीने चला । हाल में लेबनान  की सड़कों पर भी  प्रदर्शन हुए। यहां भी कई जगह तोड़फोड़ हुए और प्रदर्शन करने वाले सरकार के इस्तीफे की मांग कर रहे थे । वहां के लोग   खाद्यान्न  की बढ़ती कीमतों और महंगाई, भ्रष्टाचार और  बुनियादी वस्तुओं की आपूर्ति में कमी से नाराज थे। इन्हीं मसलों के कारण  इराक में भी प्रदर्शन हुए और कई जगहों पर हिंसा हुई। जिसमें कई लोग मारे गए। इसी तरह के प्रदर्शन अर्जेंटीना से चिली तक फैल  रहे हैं।  बेशक कैटेलोनिया का मामला अलग है । यहां स्पेन से आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। बर्सिलोना में प्रदर्शन के कारण कई बार जीवन ठप हो गया था। इक्वाडोर में और बोलीविया में भी कई बार प्रदर्शन और हिंसक घटनाओं के कारण जीवन ठप हो गया। बोलीविया में तो प्रदर्शन केवल इसलिए हुए कि वहां राष्ट्रपति इवो मोराल्स पर चुनाव धांधली करने  का आरोप था। सभी देशों में एक बात समान थी वह कि सब जगह स्थापित लोकतंत्र व्यावस्था थी।
  ऐसे में विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों तथा राजनीतिज्ञों का यह  फर्ज बनता है कि दुनिया के विभिन्न देशों में लोकतंत्र में जो कमियां उत्पन्न हो गईं हैं उनके प्रति आम जनता को बताएं ।  लगभग सभी देशों में परिलक्षित हो रहा है कि नेताओं  और जनता की अपेक्षाओं में संबंध विघटित हो रहे हैं। बुद्मजीवी वर्ग भी वक्त की ज़रूरतों तथा लोगों की अपेक्षाओं को पूरा के लिए राजनीति के स्वरूप क्या हो इस तथ्य को समझने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। दुख तो इस बात को लेकर भी है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में जनकल्याण को लेकर  दूरियां बढ़ती जा रहीं हैं। यहां तक कि नीतियों और निर्णयों को  निर्देशित करने वाले  द्विपक्षीय सम्बन्ध भी  खत्म हो गए से प्रतीत हो रहे हैं। जो लोग सत्ता में हैं वह विपक्ष का दमन करने में लगे हैं। विपक्ष भी समझता है कि बस उसकी जिम्मेदारी केवल सत्ता पक्ष के हर फैसले का विरोध करना है। अब इस प्रवृत्ति से ऐसा महसूस हो रहा है कि निर्वाचित प्रतिनिधि सBVव्व   जिस पक्ष के भी हो जनता से दूर है उनसे उनका कोई संबंध नहीं है इसके फलस्वरूप जनता में क्रोध और कुंठा बढ़ती जा रही है और यह क्रोध और कुंठा तरह तरह के प्रदर्शनों आंदोलनों और हिंसक घटनाओं में बिम्बित हो रही है जनता को यह भी महसूस हो रहा है कि उनके अधिकार छीने जा रहे हैं घोर पूंजीवाद का विकास और उसमें सत्ता पक्ष की गुटबाजी के कारण जनता के लिए आवंटित संसाधनों का दूसरी तरफ  चला जाना आम जनता में अपने हक को मारे जाने जैसा महसूस होता है ।  इससे गुस्सा और बढ़ता है। हाल में मौसम परिवर्तन को लेकर ग्रेटर थुन बर्ग द्वारा किए गए आंदोलन ने सब जगह प्रशंसा पाई। खनिज तेल उसके आंदोलन के चार्टर में था  लेकिन  अभी भी खनिज तेल ही सबसे सुलभ इंधन है।  इसे रोके जाने की कोई व्यवस्था सरकारों की तरफ से नहीं दिखाई पड़ रही है। विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक इस खनिज तेल पर 2017  में जितनी सब्सिडी दी गई है वह दुनिया भर के जीडीपी के 6.5% है जबकि यह राशि 2015 में 6.3% थी। यानी खनिज तेल पर सरकारी सब्सिडी क्रमानुसार बढ़ती जा रही है और यह सब्सिडी की रकम आम जनता के कल्याण की योजनाओं के लिए संग्रहित रकम में कटौती करके एकत्र की गई है। यही नहीं खनिज तेल से हवा में होने वाले प्रदूषण के कारण मरने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण होने वाली गड़बड़ियों के प्रति पिछले कई वर्षों से लोगों को बताया जा रहा है लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हो रहा है। क्योंकि, आम जनता को यह जब तक मालूम पड़ता है तब वह पिछली  बात भूल जाते हैं इससे  स्वार्थी तत्वों को लाभ मिलता है वह आय और संपत्ति के अनुपात को असंतुलित कर देता है।
         वर्तमान समस्या यह है कि नेता चाहे वो जिस भी दल के हों  वह खुद को विकल्प के रूप में देख रहे हैं और यह चिंतन खतरनाक हो सकता है तथा नई समस्याओं को जन्म दे सकता है ।  गांधीजी का मानना था कि पूंजी खुद में कोई गलत चीज नहीं है लेकिन पूंजी का गलत कामों के लिए प्रयोग किया जाना ही सबसे बड़ी समस्या है । जो लोग साम्यवाद या अति समाजवाद की शिक्षा देते हैं उन्हें यह समझना चाहिए अतीत में यह असफल हो चुका है ,अब दुबारा इससे चालू करने आवश्यकता क्या है ? दुनिया भर में मंदी फैल रही है और हो सकता आने वाले दिनों में आंदोलन और बढ़े जिससे हमारी संस्थाओं और लोकतंत्र को हानि पहुंचे।  सरकार और राजनीतिक दलों को इसके प्रति न केवल सावधान रहना चाहिए बल्कि इस स्थिति को सुधारने का प्रयास करना चाहिए।


Tuesday, October 29, 2019

अयोध्या मामले को लेकर मोदी और शाह की नींद हराम

अयोध्या मामले को लेकर मोदी और शाह की नींद हराम 

अयोध्या मामले के फैसले में महज एक पखवाड़े कुछ ही ज्यादा समय बचा  है। देश की आधुनिक राजनीति पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालने वाला यह मसला किस करवट बैठेगा इसे लेकर मोदी ,अमित शाह और भाजपा की नींद हराम है। अयोध्या मामले से उम्मीद है इसलिए भी हैं कि अभी  हफ्ते भर  पहले जो चुनाव हुए उसमें भाजपा बैकफुट पर चली गई और अब अगर अयोध्या मामला उसके पक्ष में आता है तो उसके हर पहलू का वह उपयोग कर सकती है। एक तरफ तो गिरती अर्थव्यवस्था और दूसरी तरफ राजनीतिक लोकप्रियता में धीरे-धीरे होता ह्रास मोदी के अजेय होने पर सवाल उठाने लगा है। यही कारण है, अयोध्या फैसले पर अब मोदी अमित शाह और भाजपा की निगाहें टिकी हुई है। आशा है यह फैसला 17 नवंबर के पहले होगा। मोदी और शाह इस इसलिए भी बेचैन हैं कि कहीं इससे सियासत की धारा ना बदल जाए। फैसला चाहे जो हो इसका असर भाजपा को मदद ही पहुंचाएगा। क्योंकि अभी जो सत्ता है वह किसी भी स्थिति को अपने पक्ष में कर लेने में माहिर है। अमित शाह खुद इतने व्यवस्थित हैं कि वह किसी भी प्रतिफल को अपने पक्ष में करने की रणनीति बना लेते हैं। राम जन्मभूमि आंदोलन ने ही 1990 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा उभरने के लिए एक मंच दिया और पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित हो गई । अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला लड़खड़ाती की अर्थव्यवस्था , बेरोजगारी  और  ग्रामीण   असंतोष का मुकाबला कर रही  सरकार  और पार्टी  को हिंदुत्व का एक नया मसाला दे सकता है। अगर पक्ष में फैसला जाता है तो इसका मतलब होगा की सरकार इसका श्रेय लेगी और बिगुल बजाएगी।  अगर बहुत ज्यादा पक्ष में बात नहीं हुई तो हो सकता है सांप्रदायिक भावनाओं को दुबारा हवा देने का मौका मिल जाए । चाहे जो हो सियासत ही जीतेगी।
            अगर यह सत्तारूढ़ दल के पक्ष में जाता है तो अयोध्या और राम मंदिर का मसला विपक्षी दलों को किनारा कर देगी और उसकी आवाज बंद हो जाएगी। सत्ता  के पक्ष में यदि फैसला होता है तो हिंदू पक्ष वही करेगा जो  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और समस्त हिंदुत्व समूह करने के लिए कहेंगे।  इसे अभूतपूर्व विजय की संज्ञा दी जाएगी तथा उम्मीद की जाएगी इस लहर के बल पर अगला चुनाव जीत जाएं। भाजपा बहुलता वादी सियासत को बढ़ावा देगी और सब कुछ राष्ट्रवाद के आधार पर होगा। इसमें एनआरसी ,नागरिकता संशोधन विधेयक, धारा 370 ,कल्याणकारी योजनाएं वगैरह इसके आधार को मजबूत बना देगी। बस जरा पीछे गौर करें जब 23 मई को भाजपा सत्ता में आई थी चुनाव के दौरान ऐसे संकेत मिल रहे थे भाजपा एनआरसी पर थोड़ी मुलायम होगी वरना  चुनाव में उसकी स्थिति  बिगड़ेगी। लेकिन इसने उसे और भी तीव्र किया। यहां तक कहा गया कि इसे पूरे देश में लागू किया जाएगा।  साथ ही पार्टी में हिंदू रिफ्यूजी और मुस्लिम रिफ्यूजी में एक विभाजन रेखा खींच दी और चुनाव में उसे ज्यादा मत मिले। मोदी जी ने तीन तलाक का मामला संसद में पेश किया और उसे भी पारित करा दिया। कश्मीर को मिला विशेष दर्जा वापस ले लिया गया ।
        अब सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई वह कैसी हुई? विशेषज्ञों का मानना है कि फैसला रामलला विराजमान के पक्ष में जाएगा और ऐसा होता है तो भाजपा चारों तरफ बिगुल बजाती चलेगी तथा लोगों से कहेगी कि बहुत दिन पुराना वादा पूरा कर दिया। अगर फैसला कुछ ऐसा होता है जिसमें  अयोध्या की विवादास्पद  पूरी जमीन राम को नहीं मिलती है तो कुछ लोग कहेंगे कि भाजपा को झटका लगा लेकिन मोदी और शाह हिंदू मोर्चा खोलकर सांप्रदायिक उन्माद को हवा दे सकते हैं जिससे बहुलवादी समाज की भावनाएं सभी मसलों से हट जाएं। यह भाजपा को अयोध्या मामले को जिलाए रखने का एक मौका दे सकता है। अयोध्या का फैसला चाहे जिस तरफ जाए यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए 'तुम्हारी भी जय जय और हमारी भी जय जय' की तरह होगी। यह विपक्ष के लिए गंभीर परीक्षा का समय होगा।


Monday, October 28, 2019

बगदादी का मारा जाना

बगदादी का मारा जाना 

इस्लामिक स्टेट के मुखिया अबू बकर अल बगदादी का मारा जाना इस आतंकी गिरोह के लिए एक नया मोड़ साबित होगा । क्योंकि यह समूह अपनी खिलाफत के सिकुड़ने के बाद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। अब से कोई 6 महीने पहले अमेरिकी फौज ने घोषणा की थी कि बगदादी इस्लामिक स्टेट या खलीफा का इलाका अब भंग हो गया ह और इस तरह की कोई चीज नहीं रह गई। इस तरह से इस्लामिक स्टेट की ओर आकर्षित होने वाले लड़ाके अब नहीं रहेंगे । रविवार को बगदादी के मरने की खबर आई थी किसी को भरोसा नहीं हो रहा था । अंत में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अधिकृत घोषणा की तो लोगों को भरोसा हुआ।
बगदादी के मारे जाने के बाद दुनिया भर के नेताओं ने गंभीर प्रतिक्रिया व्यक्त की । संयुक्त राष्ट्र में पूर्व राजदूत निक्की हेली ने कहा कि अमेरिका के लिए महान दिन था। उन्होंने ट्वीट किया कि हमारे बौद्धिक समुदाय और दुनिया में सबसे अधिक वांछित आतंकवादी को खत्म करने के लिए अमेरिका का बधाई । रिपब्लिकन सीनेटरों ने  कहा कि राष्ट्रपति को इसके लिए बधाई।
बगदादी ने जो खिलाफत तैयार की थी उसके खत्म होने की उम्मीद बहुत कम थी । बगदादी के खिलाफत का आकार लगभग ग्रेट ब्रिटेन के बराबर था। किसी को उम्मीद नहीं थी की यह साम्राज्य  नेस्तनाबूद हो जाएगा । बेशक अल बगदादी की मौत दुनिया में आतंकवाद विरोधियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन इसका मतलब नहीं है की आईएसआईएस  की मौत हो गई। इसके लड़ाके दुनिया भर में अनगिनत लोगों पर अपना प्रभाव रखते हैं और आतंक को फैलाने के इरादे से कायम हैं। दुनिया के नेताओं ने इसे आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में महत्वपूर्ण बताया है।
        व्हाइट हाउस के आतंकवाद विरोधी पूर्व निदेशक जावेद अली ने बगदादी की मौत पर कहा की आधुनिक आतंकवाद के अब तक के इतिहास में इस तरह के रणनीतिक विखंडन किसी आतंकवादी संगठन के सांगठनिक पराजय  की मिसाल नहीं है । रविवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आधिकारिक घोषणा के अनुसार अमेरिकी फौज से घिर जाने के बाद बगदादी से खुद को उड़ा लिया । लेकिन जहां तक अनुमान है कि इस्लामिक स्टेट अपने को फिर से  गठित कर लेगा और इराक तथा सिरिया में नए नेता की तलाश कर लेगा। इसके हजारों लड़ाके इराक और सीरिया में कैद हैं तथा हजारों समर्थक विभिन्न कैंप में पड़े हुए हैं । उस क्षेत्र में  रहने वाले ऐसे सुन्नी फिरके  के लोग हैं जिनका इसके यानी इस्लामिक स्टेट के चाल ढाल से उनके प्रति मोहभंग हो गया है और हुए उनकी तरफ रुख करना छोड़ चुके है। इस्लामिक स्टेट का संगठन कमजोर होता जा रहा है ।ऐसे में बगदादी का मारा जाना उसे और कमजोर कर देगा । यद्यपि उन्होंने इस पल के लिए तैयारी कर रखी होगी। लेकिन उनके लिए संगठन को अपनी तैयारी से मुतमईन करना बड़ा कठिन होगा।  आतंकवाद विशेषज्ञों को यह शक है की शायद ही आई एस आई एस अब खड़ा हो सकेगा। नाइजीरिया, फिलिपिंस और भारत में विभिन्न स्थानों पर सहयोगी संगठनों को एक वैश्विक नेटवर्क से जोड़ना बगदादी की स्थाई सफलता थी इन संगठनों को संचालित करने वाले स्थानीय नेता संभवतः बगदादी के मूल नेटवर्क आईएसआईएस से अलग भी हो सकते हैं। यह बगदादी की पूर्ववर्ती अपीलों पर विश्वास करने पर ही कायम रह सकता है। वरना विखंडन में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। यही नहीं ,बगदादी के मारे जाने के बाद इराक और सीरिया में काम करने के तरीकों पर भी तत्काल प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि, बगदादी इन लड़ाकों को संचालित करने में सीधे तौर पर शामिल रहा करता था।
     बगदादी के मारे जाने के बाद एक नाम चारों तरफ फैला हुआ है वह है अलहज अब्दुल्ला। वह तुर्की मूल का  है और इराक के तल अफार का निवासी है। यह बगदादी के नजदीकी लोगों में से था। लेकिन सब कुछ के बावजूद इस घटना के बाद यह संगठन एक बार जरूर तितर-बितर हो जाएगा और उसे फिर से जमीन से शुरू करना पड़ेगा। कुछ लोग इसे छोड़ेंगे तो कुछ लोग इसमें शामिल होंगे। अभी कुछ भी कहना संभव नहीं है लेकिन यह है कि बगदादी का मारा जाना आईएसआईएस के लिए शुभ नहीं होगा। आतंकवाद का खात्मा करना इस लड़ाई में शामिल दुनिया के नेताओं के भौतिक विनाश की तुलना में ज्यादा कठिन काम है ,लेकिन यह भी अंजाम दिया गया। इसके लिए हर शांतिप्रिय आदमी को खुशी होगी।


Sunday, October 27, 2019

पुलिस और हमारा समाज

पुलिस और हमारा समाज 

अभी हाल में राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो कि रपट आई थी जिसमें तरह-तरह के अपराध आंकड़े और उनकी कोटियां संग्रहित हैं। समाजशास्त्र से लेकर अपराध शास्त्र  तक आंकड़ों की मदद से समाज व्यवस्था और शासन के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हैं। विख्यात अपराध शास्त्री एडविन सदरलैंड ने अपराध की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपराध और अपराधी को समझने के लिए पुलिस की व्यवस्था के मनोविज्ञान  और  उनके अंदर  पलट रही  भावनाओं को समझना सबसे ज्यादा जरूरी है।  अगर पुलिस और अपराध शास्त्री मिलकर काम करें तो समाज में अपराध पर प्रभावी रोकथाम हो सकती है।
       शोध इत्यादि के लिए जो नमूने तथा पृष्ठभूमि दी जाती है उसमें सबसे ज्यादा जोर पुलिस के चरित्र पर होता है। लेकिन सरकार और जनता के बीच सबसे पहली कड़ी पुलिस व्यवस्था को अगर निकट से देखें तो समझ में आएगा कि पुलिस की मजबूरियां क्या है और अपराध के समग्र नियंत्रण के लिए क्या-क्या जरूरी है। कोलकाता पुलिस के पूर्व पुलिस आयुक्त निरुपम सोम ने एक बार एक मुलाकात में कहा था कि छोटे-छोटे अपराध हमारे शहर में संपूर्ण अपराध रोकथाम के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करते हैं।  नौजवान आईपीएस अफसरों और  छोटे स्तर  के अफसरों से अक्सर मुलाकात होती है। पुलिस में आने का मुख्य कारण वे वर्दी पहनने की दीवानगी बताते हैं। अभी हाल में एक फिल्म आई थी सिंघम। उसने पुलिस की जो भूमिका दिखाई गई थी और पुलिस फोर्स को जिस तरह काम करते दिखाया गया था वैसा हकीकत में कुछ नहीं होता। दरअसल, पुलिस को बहुत ज्यादा काम करना होता है और वो अक्सर तनाव में रहते हैं। इसके अलावा उसे कई तरह के बाहरी दबावों को झेलना पड़ता है। यही नहीं पुलिस व्यवस्था के भीतर की खामियों को भी उन्हें उजागर करने की अनुमति नहीं है। लंबे काम के घंटे और कम छुट्टियां उनसे जिंदगी का हिस्सा  है। स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 में साफ कहा गया है इस देश के लगभग एक चौथाई पुलिस गर्मी 16 घंटे से ज्यादा काम करते हैं 44% से ज्यादा पुलिसकर्मी 12 घंटे से अधिक काम करते हैं। औसतन उन्हें एक दिन में 14 घंटे काम करने होते हैं।
        कुछ दिनों पहले दिल्ली की संस्था कॉमन कॉज और लोक नीति सेंटर फॉर द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने एक अध्ययन में पाया है कि  73% पुलिसकर्मी काम के बोझ से दबे रहते हैं और उनके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गंभीर असर पड़ता है। वे अपने बच्चों को पुलिस में भर्ती नहीं होने देना चाहते। बेशक बड़े पुलिस अफसरों को सुविधाएं ज्यादा मिलती हैं लेकिन किसी को भी ओवर टाइम नहीं मिलता। यही नहीं, छुट्टियां भी बेहद कम मिलती हैं। अपराध नियंत्रण जिस देश में एक प्रमुख समस्या है उस देश के ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक रिपोर्ट में  कहा गया है कि जनवरी 2017 में कम से कम 22 प्रतिशत पुलिस के पद खाली थे। यह रिक्ति 2016 के बाद भरे गए पदों के पश्चात हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 2011 से 2016 के बीच हमारे देश में पुलिस फोर्स में खाली पदों की संख्या लगभग 25.4% थी और पुलिस तथा जनसंख्या का अनुपात प्रति एक लाख लोगों में 148 का था। जबकि राष्ट्र संघ की सिफारिश के मुताबिक आदर्श संख्या 222 है । 7 अक्टूबर 2019 को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 29.7% पुलिस अफसरों के   पास आधिकारिक आवास नहीं है। ऐसी दयनीय अवस्था में हम पुलिस वालों से सहयोग तथा ईमानदारी की कल्पना करते हैं तो यह कल्पना बेहद अव्यवहारिक है।
हमारे समाज में बढ़ते तरह-तरह के अपराध का एक अंधियारा पक्ष यह भी है कि हमारी पुलिस उन अपराधों के  रोकथाम में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाती और नए नए तरह के अपराध बढ़ते जा रहे हैं अपराध के रोकथाम के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि नियंत्रण व्यवस्था सुदृढ़ एवं सक्षम हो तथा उनके भीतर अपराध रोकने की भावना हो।


Friday, October 25, 2019

मोदी है तब भी हर बार मुमकिन नहीं

मोदी है तब भी हर बार मुमकिन नहीं 

अगर किसी फिल्म में डायलॉग की तरह चुनाव के परिणामों की स्क्रिप्ट लिखी जाए देश में सबसे महत्वपूर्ण होगा कि विपक्ष कहेगा मेरे पास देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी किसानों की दुरावस्था जैसे मुद्दे हैं। तो सत्तापक्ष ताल ठोक कर कहेगा मेरे पास मोदी है । अभी हाल में एक नारा आया था "मोदी है तो मुमकिन है ",लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम खासकर हरियाणा और  महाराष्ट्र के चुनाव के परिणाम तो यही  बता रहे हैं हर बार मोदी है तब भी मुमकिन नहीं है । चुनाव परिणाम के बाद मोदी जी ने टेलीविजन पर जो कहा और उससे साफ जाहिर होता है कि उन्हें पराजय खल गई। महाराष्ट्र में भाजपा  और शिवसेना  का पिछला टारगेट पार करने का टारगेट लिया  था । उसी तरह हरियाणा में  भी 75 के पार का टारगेट था लेकिन दोनों लक्ष्य हासिल नहीं हो सके। पिछली बार महाराष्ट्र में भाजपा को 122 सीटें मिली थी जो इस बार  हासिल नहीं हो सका और शिवसेना का भी नंबर  पहले से कम रहा। यहां सरकार बनाने के लिए 146 सीटों की जरूरत है पिछली बार सरकार 185 सीटों के साथ बने थे। इस बार का जादुई आंकड़ा पिछली बार से कुछ सीट ज्यादा है। महाराष्ट्र और हरियाणा में संभवत भाजपा की सरकार बनेगी और वही मुख्यमंत्री होंगे जो पहले थे क्योंकि मोदी और शाह दोनों ने इनके कार्यकाल की प्रशंसा की है और आगे के लिए बधाई दी है । इससे साफ जाहिर होता है कि उन्होंने इन्हीं दोनों नेताओं को मुख्यमंत्री बनाने की विचार किया है। इस चुनाव में सबसे दिलचस्प बात है कि इस बार जनता ने विपक्ष को भी मजबूत किया है। बेशक उसे सत्ता नहीं दी। क्योंकि वहां लड़ाई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और जननायक जनता पार्टी के बीच ही थी। कांग्रेस के उम्मीदवार तो बस लड़ रहे थे। लेकिन पार्टी कहीं नहीं दिख रही थी। महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिवाजी के मेकअप में चुनाव प्रचार किया। कुछ ऐसा आईकॉनिक प्रचार था लगता है जादू हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कुछ खास नहीं हुआ । आईकॉनिक जादू नहीं चल सका। अब प्रश्न उठता है यहां शिवसेना की भूमिका क्या होगी ?उद्धव ठाकरे तो आधी आधी की बात कर रहे हैं यानी एक बार यह  उत्तर प्रदेश में हुआ था। ढाई साल भाजपा और ढाई साल से शिवसेना का मुख्यमंत्री का फॉर्मूला । लेकिन यह ना यूपी में चला और ना ही कश्मीर में। इस बार शिवसेना को 63 सीट नहीं मिली। मजे की बात है यह कांग्रेस ने अच्छा किया है।

       हरियाणा में भाजपा पिछली बार 47 पर थी इस बार सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसके सारे मंत्री हार गए । ऐसी जीत का होगा भी क्या? किसी तरह से इज्जत बची लेकिन इज्जत का बचना बेइज्जती के साथ निकल जाने के अलावा कुछ नहीं था। दोनों राज्यों में कांग्रेस को थोड़ी ज्यादा सीट हासिल हुई और एनसीपी  की टैली भी आगे बढ़ी।
          देशभर में 51 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से 20 सीटों पर भाजपा पहले से काबिज थी और अब जो परिणाम आए हैं उसे पता चलता है कि उसे केवल 17 सीटों पर विजय मिली है। यानी 3 सीटें घट गईं। अब चूंकि यह सारी सीटें देश भर में फैली हैं इसलिए सिर्फ महाराष्ट्र और हरियाणा नहीं बल्कि पूरा देश यह इशारा कर रहा है कि बीजेपी से आशाएं पूरी नहीं हुई । दिल्ली और झारखंड में चुनाव होने वाले हैं दिल्ली में अवैध कॉलोनियों का मरहम तो थोड़ा राहत पहुंचा दे लेकिन झारखंड का क्या होगा?
       समग्र रूप से चुनाव परिणाम को देखें तो एक बात सामने आती है कि भाजपा को  अपने भीतर झांकना होगा तथा उन कारकों को समझना होगा जिनके चलते वह इन चुनावों में सफलता हासिल नहीं कर सकी। अगर ऐसा नहीं करती है तो धीरे धीरे राष्ट्रीय स्तर पर भी घटने लगेगी जो आगे चलकर खतरनाक हो सकता है।
          
         


Thursday, October 24, 2019

अन्न की बर्बादी रोकिए सब का पेट भरेगा

अन्न की बर्बादी रोकिए सब का पेट भरेगा 

दो दिनों के बाद दिवाली आएगी चारों तरफ खुशियों का माहौल होगा। दिए जलेंगे और लाखों खर्च होगा। इसमें बहुत बड़ा हिस्सा खाने वाली चीजों की बर्बादी का भी होगा। इसके पहले शादी ब्याह के मौसम में भी खाने वाली चीजों की बर्बादी देखी गई है।  इसी बीच पसलियों से फूट कर बहते मवाद की तरह एक रिपोर्ट भी आई कि भारत भुखमरी के पैमाने पर बहुत ज्यादा गिर गया है यानि यहां बहुत ज्यादा लोग ठीक से खा नहीं पाते। पेट नहीं भर पाते हैं।  आंकड़े बताते हैं भारत बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है लेकिन इस भारत के बच्चे भूखे रहने की आदत डाल रहे हैं। यहां की नई  पीढ़ी में असमानता और मानव व्याधियों को सहने की ताकत बढ़ती जा रही है। भारत तकनीकी क्षेत्र में लंबी छलांग लगा रहा है और भूख से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा है। अगर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के मॉडल पर भारत की आबादी के भूख का समग्र विश्लेषण करें तो यहां एक साथ कुपोषण , जरूरत से ज्यादा पोषण तथा कुपोषण के कारण व्याप्त अक्षमता कायम है।  तीनों का अलग अलग समाधान संभव नहीं है। वैश्विक भूख सूची में भारत का स्थान 2019 में 102 हो गया  जबकि 2010 में यह पंचानवे था तथा सन 2000 में यह 83 वें स्थान पर था यानी 19 वर्षों में हमारा स्थान 19 सीढ़ियों के नीचे आ गया । जिस पाकिस्तान को लगातार भूखों और नंगों का देश कहा जा रहा है उसका स्थान 94 है । भारत में 10 बच्चों में से तीन अविकसित हैं और इसका मुख्य कारण है बढ़िया भोजन नहीं प्राप्त होना।  कुपोषण देश के विकास के लिए एक तरह से अभिशाप है। क्योंकि कुपोषण का सीधा असर शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है ।
अध्ययन से पता चला है कि कुपोषण और भूख बच्चों की सीखने की क्षमता को खत्म कर देते हैं। यहां तक कि वे बहुत बुनियादी चीजें भी ठीक से समझ नहीं पाते और इससे उनका विकास रुक जाता है।
      यद्यपि देश में भूख से मुकाबले के लिए कई योजनाएं हैं लेकिन सही रूप में उन्हें अमल में नहीं लाया जाता। सरकार प्रतिवर्ष लाखों टन अनाज किसानों से खरीदती  है ताकि कम कीमत पर लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध हो सके ।साथ ही आपात स्थिति में भी कमी ना हो । लेकिन क्रूर सत्य है कि जो अनाज सरकार खरीदती है उसका बहुत बड़ा हिस्सा सही भंडारण नहीं हो पाने के कारण बर्बाद जाता है ।जयही नहीं हमारे पास जो संसाधन हैं उसका भी सही उपयोग नहीं हो पाता या वह सही ढंग से बने नहीं होते हैं। राष्ट्र संघ के अध्ययन के मुताबिक भारत अनाज उपजाने के लिए प्रतिवर्ष 230 क्यूबिक किलोमीटर ताजे पानी का उपयोग करता है और अंततोगत्वा यह बर्बाद हो जाता है। इस पानी को 10 करोड़ लोगों को हर साल पीने के पानी के रूप में काम में लाया जा सकता है यही नहीं इस पानी के लिए जो 30 लाख बैरल तेल का उपयोग होता है वह भी बर्बाद हो जाता है । सरकार विकास के लिए रात दिन एक करती है लेकिन हमारे देश के नौजवानों को , किशोरों को, बच्चों को सही खाना नहीं मिल पाता और उनका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है ।सोचने की क्रिया प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
जिस देश के नौजवान ठीक से सोच नहीं सकेंगे और मजबूती से अपना काम नहीं कर पाएंगे वो देश कैसे विकसित होगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास का जो चिंतन है उसकी पृष्ठभूमि में इसी पोषण का दर्शन है। वह चाहते हैं देश की जनता राजनीतिक आंकड़े बाजी और जोर आजमाइश से अलग कुछ ऐसा करे जिससे कम से कम अच्छा खाना भरपेट मिल सके। मेक इन इंडिया तथा इस तरह की अन्य परियोजनाएं इसी प्रयास का अंग हैं। वह क्रियाशील है तो देश को एक दिशा में सोचने और उस पर काम करने के पायलट प्रोजेक्ट के रूप में प्रधानमंत्री ने सबसे पहले स्वच्छता सुविधाओं को उपलब्ध कराने की योजना बनाई। ताकि बच्चे अस्वच्छता के कारण होने वाली बीमारियों से मुक्त तो हो। सरकार ने इसके बाद वाला कदम  स्कूलों में मिड डे मील स्कीम , इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की कोशिश आरंभ की है जिसके तहत सबसे पहला कदम अफसरशाही में भ्रष्टाचार को खत्म करना है ताकि लालफीताशाही उसी ढंग से सोचे और क्रियाशील हो जिस ढंग से  प्रधानमंत्री सोचते हैं । क्योंकि दुनिया का कोई देश गरीबी को तब तक नहीं मिटा सकता है जब तक लोगों के लिए  सही अवसर नहीं उत्पन्न हो और उस अवसर में सरकारी अफसरशाही की ईमानदारी पूर्ण भूमिका ना हो।


Wednesday, October 23, 2019

अभिजीत मिले नरेंद्र मोदी से

अभिजीत मिले नरेंद्र मोदी से 

नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मंगलवार को मुलाकात हुई । इस मुलाकात से कई तरह के भ्रम दूर हो गए। खास तौर पर यह कि लोगों का कहना था अभिजीत बनर्जी मोदी की आर्थिक नीतियों की विरोधी हैं। मुलाकात के बाद पता चला ऐसा कुछ नहीं है। कुछ नकारात्मक सोच वाले लोगों ने कुछ बातों का तोड़ मरोड़ कर अर्थ निकाला था।
     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुलाकात के बाद ट्वीट किया , "अभिजीत बनर्जी से मिलना बड़ा अच्छा लगा। यह बेहतरीन मुलाकात थी खास करके अभिजीत बनर्जी में मनुष्य के सशक्तिकरण के लिए जो भावनाएं हैं उसे देख कर बहुत भला लगा। अभिजीत बनर्जी से कई विषयों पर बहुत ही अच्छी बातचीत हुई। " इस मुलाकात के बाद अभिजीत बनर्जी ने एक बयान में कहा कि "प्रधानमंत्री से मुलाकात और भारत के बारे में उनके चिंतन पर लंबी बातचीत हुई। अभिजीत बनर्जी ने कहा लोग केवल राजनीति के बारे में सोचते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इस राजनीति के पीछे के चिंतन के बारे में बातें करते हों। अभिजीत बनर्जी ने कहा  कि प्रधान मंत्री शासन के बारे में सोचते हैं, यह बात समझ में नहीं आती कि लोग रंगो के आधार पर शासन की आलोचना क्यों करते हैं। वे इस माध्यम से शासन पर या कहें शासन प्रक्रिया पर बड़े लोगों का कब्जा चाहते हैं। वे नहीं चाहते यह ऐसी सरकार हो जो जनता के सुख दुख में साथ है।" अभिजीत बनर्जी ने कहा कि "प्रधानमंत्री अफसरशाही को सुधारने में लगे हैं।" अभिजीत बनर्जी ने अपने बयान में कहा नरेंद्र मोदी जो देश के बारे में सोचते हैं वह बिल्कुल अलग है। प्रधानमंत्री ने उनसे अपनी नीतियों को लेकर बात की और बताया कि वह चीजों को कैसे लागू कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि जमीनी प्रशासन में उच्च वर्ग का नियंत्रण था। प्रधानमंत्री की नीतियों की प्रशंसा करते हुए अभिजीत बनर्जी ने अपने बयान में कहा कि "वह जो कर रहे हैं वह भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सबसे महत्वपूर्ण है कि अफसर जिम्मेदार बने।" अभिजीत बनर्जी ने कहा कि मुलाकात की शुरुआत में मोदी जी ने मजाकिया लहजे में मीडिया की ओर से एंटी मोदी बयानों के लिए उठाए जाने को लेकर सावधान किया।
          हैरत तो तब होती है जब भारत के लोग अभिजीत बनर्जी को मोदी विरोधी बिंब के रूप में गढ़ने में लगे हैं और इसका मुख्य कारण है कि वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं और उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। कुछ लोग तो यह समझते हैं कि बनर्जी धर्मनिरपेक्ष हैं और उनकी नीतियां भारत के गरीबों के लिए बेहतर है। अब जबकि मोदी और अभिजीत बनर्जी में मुलाकात हुई है और उस मुलाकात के बारे में लोगों को जानकारी मिली तो वैसे नकारात्मक सोच के लोगों पर क्या गुजरती होगी? सबसे ज्यादा हैरत तो तब होती है जब खुद को निष्पक्ष कहे जाने वाले अखबारों में लिखा जाता है कि नोबेल प्राइज पाने का मतलब होता है व्यवस्था विरोधी स्वतंत्र चिंतन। अभिजीत बनर्जी को नोबेल प्राइज विकास मूलक अर्थव्यवस्था में प्रयोगी विधि को अपनाने के लिए मिला है उदाहरण के लिए अभिजीत बनर्जी के प्रयोग में गरीबी को खंडित कर अलग अलग परीक्षण करना प्रमुख है ,मसलन समाज के कुछ हिस्से के लोगों का खराब स्वास्थ्य अब इसके कई कारण हो सकते हैं ,जैसे स्वास्थ्य कर्मियों का काम पर नहीं आना ,अच्छी दवाएं उपलब्ध न होना, बचाव के लिए टीकाकरण नहीं होना इत्यादि। अब हर टुकड़े का प्रयोगी तौर पर परीक्षण जैसे कार्य अभिजीत बनर्जी के कामों में शामिल है।
          प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अभिजीत बनर्जी की मुलाकात देश के एक बड़े वर्ग को अचंभित कर देने वाली है इस वर्ग को यह महसूस हो रहा था कि अभिजीत वामपंथी है और मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना करेंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उल्टे प्रधानमंत्री ने उनसे मुलाकात की गर्मजोशी दिखाई  और अभिजीत प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते सुने गए। अनोखा था एक दूसरे के प्रति आदर भाव।  कई वर्ष पहले मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूरी भूरी प्रशंसा की थी। यहां प्रश्न उठता है कि एक दक्षिणपंथी विचारधारा वाली पार्टी के सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी ने आखिर एक घोषित वामपंथी अर्थशास्त्री को अपने साथ कैसे जोड़ लिया या यह कहें कि उन्होंने जोड़ना कबूल किया।  नरेंद्र मोदी की एक खासियत है ही है वे अपने आलोचकों के साथ मिलकर भी काम कर लेते हैं या कहिए वे अपने आलोचकों को भी निभा ले जाते हैं।
      जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो उन्होंने दो परियोजनाओं को जोड़ा था। दोनों परियोजनाएं पर्यावरण और प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए थी। पूरे देश में गुजरात ऐसा पहला राज्य था जिसने दशक भर पहले जलवायु परिवर्तन को लेकर अलग विभाग बनाया था। जलवायु परिवर्तन पर्यावरण से जुड़ा है और प्रदूषण जलवायु परिवर्तन की मुख्य समस्या है। मोदी ने इसी समस्या का हल ढूंढते -ढूंढते अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी  से मदद मांगी थी। इन दोनों ने "अब्दुल लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब" की स्थापना 2003 में की थी। उसी संस्था को मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने एनवायरमेंटल ऑडिट को मजबूत करने के लिए एमिशन ट्रेंडिंग स्कीम को लॉन्च करने के लिए छोड़ा था नोबेल पुरस्कार पाने के बाद हमारे देश के लोगों ने अभिजीत को जाना लेकिन नरेंद्र मोदी  उनकी प्रतिभा को बहुत पहले से जानने लगे थे और उन्हें उचित सम्मान देने लगे थे। इन दोनों की मुलाकात से यह साबित हुआ प्रतिभा के आगे विचारधारा के रोड़े नहीं आते हैं।


Tuesday, October 22, 2019

भारत में अपराध

भारत में अपराध 

2 दिन पहले हिंदू नेता कमलेश तिवारी की उनके घर में ही हत्या कर दी गई अभी खबर आई है कि मुजफ्फरनगर जिले के पुरकाजी शहर के  समीप एक गांव में  एक दलित महिला की हत्या कर दी गई। इसी पृष्ठभूमि में सोमवार को भारत सरकार ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े  "क्राईम इन इंडिया 2017" जारी किया। लेकिन इस आंकड़े में कहीं भी लिंचिंग का जिक्र नहीं है जबकि हमारे समाज में  इस पर सबसे ज्यादा बहस होती है  और  इसे लेकर  सियासत गर्म हो जाती है। लेकिन अलग खंड है जिसमें राष्ट्र विरोधियों द्वारा किए गए अपराधों का ब्यौरा है। इस बात का कहीं भी विश्लेषण नहीं है राष्ट्र विरोध क्या है उनकी परिभाषा क्या है। किन लोगों या समुदायों को उस संवर्ग में रखा जाएगा  अफवाह  रखा गया है। एक तरफ देशद्रोह कानून को कमजोर करने या उसे समाप्त करने पर बहस चल रही है दूसरी तरफ अपराध  रिकॉर्ड्स में यह एक अलग कालम बनता जा रहा है।
    यह रिपोर्ट इस वर्ष के शुरू में आनी चाहिए थी जिसमें लिंचिंग इत्यादि का भी  ब्योरा प्रस्तुत किया जाना चाहिए था इसमें पत्रकारों की हत्या का भी जिक्र होना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है । इस बीच एक नया खंड जोड़ा गया है। वह है हत्या का कारण जिसमें सांप्रदायिक या धार्मिक लिखा गया है । ऐसा महसूस होता है  कालांतर में  सांप्रदायिक कारणों को  धार्मिक कारणों से जोड़ दिया जाएगा और फिर उसकी व्याख्या  राष्ट्र विरोध या राष्ट्र द्रोह के संदर्भ में किया जाने लगेगा। यह 2017 की रिपोर्ट है। इस वर्ष लगभग पचास लाख संज्ञेय अपराध रिकॉर्ड किए गए थे जो पिछले वर्ष यानी 2016 से 3.6 प्रतिशत ज्यादा थे। एनसीआरबी के आंकड़े ही बताते हैं के 2016 में 48 लाख एफ आई आर दर्ज किए गए थे। एनसीआरबी का यह कथित तौर पर ताजा आंकड़ा लगभग 1 वर्ष विलंब से जारी किया गया है। आंकड़े बताते हैं कि 2017 में महिलाओं के खिलाफ 3 लाख 59 हजार 849 मामले देशभर में दर्ज किए गए। यह प्रवृत्ति लगातार तीन वर्षों से बढ़ती देखी जा रही है । महिलाओं के खिलाफ जो अपराध हैं उनमें हत्या, बलात्कार, दहेज हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाया जाना, हमले, महिलाओं के प्रति क्रूरता और अपहरण जैसे अपराध शामिल हैं। 2017 के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के प्रति सबसे ज्यादा अपराध उत्तर प्रदेश में हुए। देश के सबसे अधिक जन संकुल इस राज्य में महिलाओं के प्रति अपराध की संख्या 56011 है। इसके बाद 31979 अपराधों के साथ महाराष्ट्र का नंबर आता है। पश्चिम बंगाल थोड़ा ही पीछे है। यहां आलोच्य वर्ष में 30,992 ,मध्यप्रदेश में 29,778, राजस्थान में 25,993 और असम में 23,082 मामले दर्ज किए गए । दिल्ली में महिलाओं के प्रति अपराध की संख्या लगातार तीसरे वर्ष भी घटी है।  जबकि अरुणाचल, गोवा , हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम ,नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा इत्यादि राज्यों में महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या तीन अंकों में है जो राष्ट्रीय आंकड़ों की तुलना में 1% भी नहीं है ।
बच्चों के प्रति अपराध की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। 2017 में 63,349 बच्चे लापता हुए। जिनमें 20,555 बच्चे लड़के थे, 22,691 लड़कियां तथा 103 ट्रांसजेंडर थे।
अगर आंकड़ों का विश्लेषण करें तो एक अजीब निष्कर्ष सामने आता है। इसके अनुसार आलोच्य  वर्ष में हत्या के मामले 5.9 प्रतिशत घटे हैं । 2017 में हत्या के 28,653 मामले दर्ज हुए जबकि 2016 में यह आंकड़ा 30450 था। हत्या के मामले में  झगड़े सबसे प्रमुख कारण थे। आंकड़े के मुताबिक झगड़ों के कारण हत्या के 7898 मामले दर्ज हुए, जबकि व्यक्तिगत कारणों से या व्यक्तिगत दुश्मनी से 4660 और लाभ के चलते हत्या के 2103 मामले दर्ज हुए। दूसरी तरफ अपहरण की घटनाओं में 9% की वृद्धि हुई । 2016 में जहां 88008 अपहरण की घटनाएं हुई थी वही 2017 में यह बढ़कर 95893 हो गई हैं।
        अगर इन इन आंकड़ों के आधार पर विक्टिमोलॉजी के सिद्धांत पर क्राइम प्रोफाइलिंग की जाए तो उस खास इलाके के आचरण संबंधी पैटर्न को समझा जा सकता है और उसकी व्याख्या की जा सकती है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं उत्तर प्रदेश में महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाएं बढ़  रही हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि वहां महिलाओं के प्रति  कोमल भाव या उनका सम्मान नहीं है। यह एक बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है जो आगे चलकर महिला दमन का रूप ले सकती है । एक समाज का यह स्वरूप बहुत ही खतरनाक हो सकता है। जिसमें सुधार के लिए सख्त कानून का नहीं कानून का सख्ती से पालन जरूरी है। शुरू में ही चर्चा की गई उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक शहर के किनारे एक किशोरी का अपहरण के बाद हत्या कर दी गई इस पर भी कोई चर्चा नहीं हुई। जबकि एक हिंदूवादी नेता की हत्या में पूरे देश को सन्न कर दिया यह एक मनोभाव है और इस मनोभाव को बदलना जरूरी है। आंकड़े केवल संख्या बताते हैं संख्या के पीछे के मनोभाव को समझना और उसे आवश्यकतानुसार बदलना हमारे समाज और हमारे नेताओं का काम है।


Monday, October 21, 2019

पाकिस्तान को करारा जवाब

पाकिस्तान को करारा जवाब 

जब से कश्मीर में धारा 370 खत्म की गई है तब से पाकिस्तान में छटपटाहट है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से देखकर इस्लामाबाद के वार रूम तक पाकिस्तान की छटपटाहट देखी जा सकती है। कभी वहां के रक्षा मंत्री 200 - 250 ग्राम के परमाणु बम दिखाते हैं तो कभी वहां की सेना नियंत्रण रेखा पर कवर फायर देकर आतंकवादियों को भारत में घुसाने का प्रयास करती है। अभी रविवार को समाप्त हुए सप्ताह की ही बात है कि पाकिस्तानी सेना ने कई बार नियंत्रण रेखा पर भयंकर फायरिंग की उसका इरादा था इस फायरिंग के पर्दे में आतंकवादियों को कश्मीर में घुसा दिया जाए। परंतु ऐसा नहीं हुआ भारतीय सेना सतर्क थी।  उसने पाकिस्तानी कार्रवाई का करारा जवाब दिया। रविवार को भारतीय फौज ने लगभग 10 पाकिस्तानी फौजियों को मार गिराया और तीन आतंकी शिविरों को नेस्तनाबूद कर दिया। सेना के अनुसार प्रत्येक शिविर में 15 से 20 आतंकवादी भारत में घुसने के लिए तैयार थे। भारत की इस कार्रवाई से पाकिस्तान के आतंकी संगठनों ढांचे को भारी बर्बादी झेलनी पड़ी है। पाकिस्तान की कार्रवाई से दो भारतीय सैनिक तथा उत्तरी कश्मीर में एक असैनिक मारा गया। नियंत्रण रेखा पर बेतुकी हरकतें करने और युद्ध विराम का उल्लंघन करने की पाकिस्तान की पुरानी आदत है। अब से कोई 16 वर्ष पहले भारत और पाकिस्तान में युद्ध विराम संधि हुई थी और तब से अब तक वह इस संधि का उल्लंघन करता रहा है । आंकड़े बताते हैं कि इसी वर्ष जुलाई में पाकिस्तान ने युद्ध विराम के 296 बार उल्लंघन किए, अगस्त में 307 बार ,सितंबर में 293 बार उसने ऐसा किया। 2018 में पाकिस्तान ने  13 लाख 44 हजार 102 बार ऐसा किया है।
     भारतीय सेना अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने बताया है कि पाकिस्तान ने गुरेज ,तंगधार, उरी और मैक हिल क्षेत्रों में हाल में आतंकवादियों को प्रवेश कराने की कोशिश की है पाकिस्तान की इस हरकत से परेशान होकर भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की। इस कार्रवाई में 155 मिलीमीटर की तोपों का इस्तेमाल किया गया।
       पाकिस्तानियों द्वारा जब लगातार फायरिंग की जाने लगी तो भारतीय सेना ने उसके इरादे को भांप लिया और फायरिंग का करारा जवाब दिया। पाकिस्तान की  एक-एक गोली का एक-एक गोले से जवाब दिया गया। उधर पाकिस्तान ने भारतीय सेना के बयान का जवाब देते हुए कहा है कि भारत ने बिना किसी उकसावे के पाकिस्तान की जनता पर गोलियां बरसाई है। पाकिस्तान से आई एस आई के जनसंपर्क अधिकारी ने ट्वीट किया है कि भारत ने बिना किसी उकसावे के जोरा शाहकोट और नोशेरी क्षेत्रों पर हमले किए और उन हमलों से सिविलियंस की जानमाल की क्षति हुई।
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा है कि पाकिस्तान के महानिदेशक ने भारतीय उच्चायुक्त को बुलाकर  आधिकारिक विरोध दर्ज किया है। जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान स्पष्ट रूप से किसी भी आतंकी शिविर की मौजूदगी से इनकार करता है भारत का यह कथन बिल्कुल गलत है। पाकिस्तान ने कहा है कि भारत उस कथित आतंकी शिविर के बारे में सबूत प्रस्तुत करे। साथ ही पाकिस्तान ने कहा है कि वह भारतीय मिथ्या का पर्दाफाश करने के लिए विदेशी राजनयिकों को उस क्षेत्र का दौरा करने के लिए आमंत्रित करेगा। यही नहीं पाकिस्तान विदेश मंत्रालय द्वारा जारी एक अन्य बयान में  कहा गया है कि "महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसीलिए भाजपा पाकिस्तान पर यह झूठे आरोप थोप कर इलेक्शन जीतना चाहती है।"

भारतीय सेना प्रमुख जनरल रावत ने कहा ,इस कार्रवाई के बाद पाकिस्तान यकीनन बौखला जाएगा और वह बदला लेने फिराक में रहेगा। भारत को इसके लिए सतर्क रहना होगा। उन्होंने एक तरह से पाकिस्तानी हुकूमत को सलाह दी कि किसी भी तरह ही कार्रवाई भारत के खिलाफ यदि होती है तो उसका कठोर जवाब दिया जाएगा। भारत किसी भी मुकाबले में उससे 20 पड़ता है। पाकिस्तान को अब तक की घटनाओं से यह समझ में तो आ ही गया होगा।
       पाकिस्तान को एफ ए टी एफ फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी आतंकी शिविर को आर्थिक मदद नहीं दी जाएगी और ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जिससे नियंत्रण रेखा पर या नियंत्रण रेखा के आर-पार के क्षेत्रों में हालात बिगड़े। पिछले कुछ दिनों में कई बार पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर लागू युद्ध विराम संधि को भंग किया है। लेकिन इस बार वह फंस गया । भारत सरकार ने और भारत की सेना ने उसकी इस कार्रवाई को लेकर  स्पष्ट चेतावनी दी है की वह इस तरह की हरकतों से बाज आ जाए वरना मिटा दिया जाएगा।


Sunday, October 20, 2019

सोनिया राहुल की कांग्रेस दुविधा में है

सोनिया राहुल की कांग्रेस दुविधा में है

वीर सावरकर को लेकर कांग्रेस भ्रमित है और उसकी इस दुविधा से एक बार फिर कांग्रेस के मन में राष्ट्रवाद के प्रति आस्था पर संदेह प्रकट हो रहा है। उसे इंदिरा जी से राजनीति की सीख लेनी चाहिए सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की भाजपा की कोशिशों के प्रति जो विवाद पैदा हुआ है उसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि इसने कैसे कांग्रेस को बदहवास कर दिया है। कांग्रेस खेमे से वीर सावरकर पर कई आरोप लगाए गए हैं । जिनमें यह भी है कि वह महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र कारी थे। कांग्रेस ने वीर सावरकर को पूर्णतः खारिज कर दिया है। कांग्रेस खेमे से इस मामले में सबसे संयमित टिप्पणी मनमोहन सिंह की है। जिसमें उन्होंने कहा है कि हम सावरकर जी का सम्मान करते हैं लेकिन उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं। यानी कुल मिलाकर कांग्रेस का इस मामले में कोई औपचारिक रूप स्पष्ट नहीं है । जबकि आज महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हो रहा है। सत्ता के संदर्भ में भी सोचें तो कांग्रेस के खेमे से सबसे समझदारी भरा बयान मनमोहन सिंह का है और जब उसे मनमोहन सिंह ने यह कहा है तब से कांग्रेस बयान से दूरी बनाने लगी है।इस काम के लिए कांग्रेस ने अपने प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला को नियुक्त किया है। मनमोहन सिंह के बयान को अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखे तो उसमें हताशा और दयनीयता साफ दिखाई पड़ेगी। उस बयान में कोई कुतर्क नहीं था और ना ही कोई अस्पष्टता।  खास करके ऐसे मौकों में जब सावरकर के प्रशंसकों ने इंदिरा गांधी द्वारा 1970 में जारी की गई डाक टिकट और उनके बारे में बोले गए कुछ शब्दों की प्रतियां निकालनी शुरू की तो यह भी कहा जा रहा था कि इंदिरा जी ने वीर सावरकर पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म लो अनुमति दी थी साथ ही सावरकर निधि में उस समय ₹11000 दिए थे जो आज के मूल्य में 5 लाख के बराबर हैं। ऐसे में कांग्रेसी अपने मौजूदा रुख का उन के रुख से तालमेल कैसे बिठाते? इंदिरा गांधी की नीतियों से कांग्रेस को किनारा करना मुश्किल है। इसलिए कांग्रेस पार्टी में पुरानी शैली की धर्मनिरपेक्षता वापस लाने की मांग उठ रही है। इंदिरा गांधी किसी बात पर नरम नहीं थी और इस बात के सबूत इतिहास और भूगोल में बिखरे पड़े हैं। भूगोल में कहें तो पूर्वी पाकिस्तान को दो टुकड़े कर देना है और यदि इतिहास में कहें तो आपातकाल। सबके सामने है इंदिरा जी का यह रुख वर्तमान संदर्भ में कांग्रेस द्वारा दोहराए जाने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है इंदिरा जी सारी स्थितियों से ऊपर राजनीति को अधिक महत्व देती थीं। इस बात को पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि आर एस एस और तत्कालीन जनसंघ से बुरी तरह चिढ़ने वाली इंदिरा जी ने सावरकर के बारे में ऐसा क्यों कहा या किया ?अगर इंदिरा जी के मनोविज्ञान को जो भी कोई थोड़ा समझता है तो यह समझने में देर नहीं लगेगी इंदिरा जी किसी भी ऐसे व्यक्ति को दूसरी जगह या दूसरी पार्टी के पाले में नहीं जाने देना चाहती थीं जो किसी भी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हो। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर को सदा आरोप लगाती थी यह संगठन अंग्रेजों से मिला हुआ था।
         सावरकर के बारे में कोई भी चाहे जो कहे लेकिन यह तो माना ही जा सकता था पीआरएसएस की जमात में सावरकर। ही ऐसे प्रगल्भ नेता थे जिन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों की कतार में खड़ा किया जा सकता था और संभवत इंदिरा जी ऐसा होने नहीं देना चाहती थीं।  आज ठीक वही रवैया मोदी और शाह की सरकार में अपनाया जा रहा है । वह किसी भी तरह से कांग्रेस पार्टी के ऐतिहासिक विभूतियों को राष्ट्रहित में काम करते हुए नहीं दिखाना चाहते ।आज संघ और भाजपा एक बड़ी समस्या का मुकाबला कर रहे हैं। भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसी गैर कांग्रेसी विभूतियां भी उनकी विचारधारा से दूर थी। यही कारण है कि संघ और भाजपा अपने मॉडल में कांग्रेस के विभूतियों का आयात करने क्यों उतावले में है । गांधी नेहरू खानदान के अलावा वे किसी को भी अपनाने के लिए तैयार हैं। पटेल पहले  से ही उनके साथ हैं और वे पटेल को नेहरू से भी बड़े भारतीय गणतंत्र के संस्थापक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं । वे इस बात को ऐतिहासिक संदर्भों से मिटा देना चाहते हैं कि पटेल आर एस एस के प्रशंसकों में से नहीं थे और गांधी की हत्या के बाद उन्होंने ही संघ पर पाबंदियां लगाई थी। पटेल के संघ विरोधी रुख के पक्ष में कई दस्तावेज उपलब्ध है लेकिन इसलिए कि  नेहरू से उनके गंभीर मतभेद थे। इसलिए सबसे पहले भाजपा  पटेल को अपने खेमे में ले आई । लेकिन अब जमाना बदल चुका है सोनिया राहुल की कांग्रेस  बदले हुए वक्त का कैसे मुकाबला करती है यह किसी को मालूम नहीं है । क्योंकि उन्हें खुद इस युद्ध का ओर छोर का पता नहीं । उन्हें नहीं मालूम है कि अयोध्या पर क्या करें, सबरीमाला पर क्या करें या तीन तलाक पर क्या प्रतिक्रिया दें। यही कारण है वे दुविधा में दिखाई पड़ रहे हैं। मनमोहन सिंह जैसे गैर पेशेवर राजनीतिज्ञ इस बारीकी को समझते हैं लेकिन सावन की अंधी कांग्रेस पार्टी में मनमोहन सिंह की पूछ क्या है?


Friday, October 18, 2019

इतिहास का पुनर्लेखन

इतिहास का पुनर्लेखन

इतिहास सदा से समय सापेक्ष रहा है यह कभी निरपेक्ष नहीं रह सकता और वैचारिक दृष्टिकोण से इसमें  लेखन काल के  विचारों का आधार होता है चाहे वह गीता  या मानस की व्याख्या हो अथवा भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष हो । भारत का आधुनिक इतिहास लेखन जब आरंभ हुआ तो उस समय वैचारिक दृष्टि से सारे लेखक कम्युनिज्म से प्रभावित थे या फिर शासन के विचारों से आबद्ध थे। गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह ने सावरकर का संदर्भ उठाते हुए कहा  कि आधुनिक दृष्टिकोण से और विचारों से इतिहास का पुनर्लेखन हो। यह कोई नई बात नहीं है। शासन अपने आदर्शों के अनुरूप इतिहास की दिशा तय करता है। अमित शाह ने कहा कि सावरकर हिंदू राष्ट्र के तरफदार थे और आधुनिक शासन के नजरिए से सावरकर के विचारों की व्याख्या की जानी आवश्यक है। देसी इतिहासकारों को सामने आना चाहिए तथा इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए।
   शाह  के इस कथन में स्पष्ट रूप में यह दिखता है कि हमारे इतिहासकारों में इतिहास की दुबारा व्याख्या करने में हिचकिचाहट है। वर्तमान शासन का मानना है कि अगर सावरकर नहीं होते तो 1857 का इतिहास कुछ दूसरा होता लेकिन उन्हें पृष्ठभूमि में रखा गया है । अमित शाह ने इसी को मसला बनाकर कहा कि आधुनिक इतिहासकारों को सिपाही विद्रोह में सावरकर के विचारों की भूमिका और उनकी हैसियत के बारे में शोध करना चाहिए। यही नहीं ,शोध की वह प्रक्रिया आधुनिक विचारों तथा आदर्शों पर आधारित होनी चाहिए । सावरकर ने 18 57 पर लिखी अपनी पुस्तक में उसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ बताया है। सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र के आरोप में 1948 में गिरफ्तार किया गया था , लेकिन सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया। भाजपा ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने की कोशिश आरंभ कर दी है। जहां तक इतिहास को दोबारा लिखे जाने का प्रश्न है तो कई मामलों में यह उचित भी लग रहा है। क्योंकि भारतीय इतिहास दिल्ली या बहुत ज्यादा हुआ तो उत्तरी भारत को सामने रखकर लिखा गया है। मानो अन्य प्रांत हैं ही नहीं । हमारे देश में, उदाहरण के लिए ,भारतीय छात्रों को सातवाहन, विजयनगर और चोल साम्राज्य के बारे में या तो मालूम नहीं होगा या मालूम भी होगा तो बहुत कम मालूम होगा। यही नहीं औसत उत्तर भारतीय छात्र अहोम राजाओं के बारे में या तो बिल्कुल शून्य होगा अथवा बहुत मामूली जानकारी होगी। जबकि इन राजाओ ने 600 वर्षों तक शासन किया। यहां तक कि मुगलों को भी पराजित कर दिया था। इस असंतुलन को ठीक किया जाना जरूरी है। इतिहास केवल राज्यों के उठने गिरने की कहानी नहीं है। इसमें समाज की तत्कालीन धारा को बदलने के विभिन्न कारक तत्वों का विश्लेषण भी आवश्यक है । उदाहरण के लिए भारतीय इतिहास का छात्र कभी भी भारत के सामुद्रिक व्यापार के बारे में नहीं पढ़ता होगा।    चोल साम्राज्य के दुश्मनों ने दक्षिण पूर्व एशिया से उन पर हमला किया था। हमारे   भारतीय रोमन व्यापार के बारे में या प्राचीन उड़िया व्यापारियों के शोषण के बारे में बहुत कम पढ़ा होगा । दक्षिण पूर्वी एशिया पर भारतीय सभ्यता के प्रभाव के बारे में भी उन्हें कम जानकारी होगी। भारतीय विज्ञान का असाधारण इतिहास भी उसी तरह नजरअंदाज किया गया है। इस बात के कई सबूत हैं कि प्राचीन भारत मैं औषधि विज्ञान ,गणित और धातु विज्ञान के बारे में बहुत जानकारी थी लेकिन हमारे इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में इसका जिक्र नहीं हुआ है । कई बार यह जानकर आश्चर्य होता है कि भारतीय  इतिहास की बहुत मशहूर घटनाएं या चरित्र की समीक्षा बहुत ही मामूली तथ्य के आलोक में की गई है। उदाहरण के लिए अशोक कलिंग युद्ध के बाद शांति के पुजारी हो गए थे लेकिन अशोक वंदना में जैन धर्म के अनुयायियों व्यापक हत्या का जिक्र है। अशोक के महान बनने के बाद भी उनका साम्राज्य क्षय होने लगा था। यहां तक कि कलिंग युद्ध पर उनका अफसोस जाहिर करना कुछ इस तरह वर्णित है कि  लगता है कुछ प्रचारित किया जा रहा है।
       दरअसल सदियों से हमारे यहां विदेशी मूल के विचारों और आदर्शों को स्थापित किया गया। इसमें उनके खानपान रहन-सहन और अभियांत्रिकी भी शामिल है। मसलन पुर्तगाली नहीं आए होते तो मिर्च और और टमाटर के बगैर हमारी जिंदगी कैसी होती या क्रिकेट और रेल अंग्रेजों ने हमें दिया, ताजमहल को एक तुर्क मंगोल राजा ने बनवाया  हालांकि यह भी सही है इन्हीं आक्रांताओं ने हमले और अकाल में हजारों लोगों को मारा। भारतीय छात्रों को अच्छा और बुरा दोनों के बारे में बताया जाना चाहिए।
              बेशक भारतीय इतिहास को दोबारा देखे जाने की जरूरत है। हो सकता है, विपक्षी दल कह सकता है कि  दक्षिणपंथी विचारों को इसमें जगह देने के लिए सरकार यह सब कर रही है। लेकिन, यह कोई बहाना नहीं है। औपनिवेशिक तथा मार्क्सवादी इतिहासकारों के पक्षपात पूर्ण विचारों से बेहतर है हमारा अपना एक इतिहास हो जिसने हमारी अपनी सोच हो। यह भी कहा जाता है कि भारतीय इतिहासकार वास्तविकता में अपने विचारों को मिला देते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा सब जगह होता है। दुनिया के हर भाग में इतिहास लेखन में यह दोष दिखाई पड़ता है, क्योंकि इतिहास का लेखन एक उद्देश्य के साथ होता है।
           


आखिर यह आलोचना क्यों ?

आखिर यह आलोचना क्यों ?

अभिजीत बनर्जी को  अर्थशास्त्र में इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार दिया गया। लेकिन उनकी विधि की तीव्र आलोचना हो रही है। आखिर क्यों? इसका क्या कारण है? बनर्जी की विधि के बारे में पहला सवाल  है कि क्या विकास मूलक अर्थशास्त्र और औषधि के संबंध में इंसानी आचरण समान होता है? नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ,एस्टर डुफ्लो तथा माइकल क्रैमर की विधि के मूल में यह प्रश्न शामिल है और यही कारण है कि अर्थशास्त्र में उनकी विधि की आलोचना हो रही है। वैसे अगर शास्त्रीय रूप से देखें तो महज 2 वर्षों में इनकी  विकास मूलक अर्थव्यवस्था ने रूप बदल दिया है। खास करके शोध के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने अपनी प्रशस्ति में कहा है कि "इनकी विधि  विकास मूलक अर्थशास्त्र पर हावी हो रही है।" कमेटी ने पॉपुलर साइंस बैकग्राउंड के उदाहरणों को भी अपनी बात में शामिल किया है।
          इस विधि में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है "रेंडमाइज कंट्रोल्ड ट्रायल्स" अथवा आरसीटी। औषधि के क्षेत्र में नई दवा  के असर को  जानने के लिए इस तरह की विधि स्वीकृत है। इस तरह की विधि में दो तरह के लोगों के समूह को उपयोग में लाया जाता है। एक समूह जो दवा का इस्तेमाल कर रहा है और दूसरा जो नहीं कर रहा है। अब दवा के  इस्तेमाल के बाद दोनों में क्या अंतर आया इसका अध्ययन किया जाता है अभिजीत बनर्जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इसी विधि को अपनाया है। कई क्षेत्रों में इसकी प्रशंसा की गई है। लेकिन प्रश्न उठता है यदि यह आदर्श है तो इसकी आलोचना क्यों हो रही है? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि अभिजीत बनर्जी की विधि में गरीबी को बातचीत के स्तर पर लाया गया है और जिसे समाप्त करने के लिए खास व्यक्ति या समूह के आचरण में परिवर्तन को आधार बनाया गया है। पहली दृष्टि में यह विचार तर्कसंगत लग सकता है। लेकिन इस विचार में जो कमी है वह है कि यह व्यापक माइक्रो इकोनॉमिक्स राजनीतिक और इंस्टीट्यूशनल उत्प्रेरण  को नजरअंदाज करता है। क्योंकि  मनुष्य  एक अत्यंत जटिल आचरण की इकाई होता है। यही कारण है कुछ विद्वानों ने इस विधि को सिरे से नकार दिया है । अर्थशास्त्री पारवा सियाल और कैरोलिना अल्वेस ने गार्जियन में अपने लेख में लिखा है की गरीबी मिटाना बहुत ही जटिल कार्य है।  क्योंकि इसका एक सिरा संस्थानों, स्वास्थ्य ,शासन से मिलता है तो दूसरा सिरा सामाजिक बनावट तथा बाजार के डायनामिक्स से मिलता है। इसके बीच में सामाजिक वर्ग के क्रियाकलाप, माइक्रो इकोनॉमिक्स पॉलिसी, वितरण तथा अन्य मामले भी जुड़े रहते हैं। इतनी विसंगतियों को किसी एक विधि से विकसित कर पाना संभव नहीं है । अब जैसे गरीबी की व्याख्या लें तो इसका विश्लेषण प्रक्रिया की परीक्षा और उस समूह में शामिल लोगों पर निर्भर है। अब इनको कैसे नियंत्रित किया जाए। आरसीटी में इसका कोई समाधान नहीं बताया गया है। यही नहीं , जिस आबादी का परीक्षण होता है वह अक्सर व्यापक तथा मशहूर होती है। एक अन्य नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अंगस डेटन का मानना है कि एक ही उपचार जो एक व्यवस्था में कारगर है वह दूसरे ने भी होगा ऐसा सोचना बिल्कुल सही नहीं है। एक की  विधि  को दूसरे समाज तक पहुंचाना बिल्कुल असंभव है।
         भारत में चुनाव के लगभग 3 महीने पहले अभिजीत बनर्जी ने भारतीय मतदाताओं के आचरण के बारे में लिखा था।  ऐसे मामले  आर्थिक हितों से नियंत्रित होते हैं और उसके बाद जाति और संस्कृति की प्राथमिकता आती है। उनके इस आलेख में स्पष्ट रूप से 1962 और 2014 के बीच मतदाताओं के आचरण में फर्क दिखाई पड़ता है। 2019 के चुनाव में यह स्पष्ट हो गया की मतदाताओं ने आर्थिक प्राथमिकताओं पर वोट नहीं डाले हैं बल्कि उन्होंने शौचालय तथा पक्का घर  या फिर बालाकोट जैसे मामले को दिमाग में रखकर वोट डाले हैं। उन्हें किसी प्रकार के आंकड़े की जरूरत नहीं है। यहीं आकर अभिजीत बनर्जी की विधि व्यवहारिक नहीं रह जाती है तथा आलोचना का विषय बन जाती है।


गरीबी को समझने के बाद अब भूख की बात

गरीबी को समझने के बाद अब भूख की बात

कोलकाता के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को गरीबी को समझने के उद्देश्य से नई विचार शैली विकसित करने के लिए नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के 48 घंटे भी नहीं गुजरे कि अखबारों में आया कि भारत भुखमरी के 102वें पायदान पर खड़ा है। कुल सीढ़ियां 117 हैं ।  हर क्षण  पाकिस्तान को नीचा दिखाने  की बात करने वालों को यह देखना चाहिए  कि   भारत    समस्त  दक्षिण भारतीय देशों में  सबसे नीचे है।  यहां तक कि पाकिस्तान  भी 94 वें पायदान पर पहुंच गया है। खुशहाली और विकास की राजनीतिक डुगडुगी बजाने वालों को यह समझ में नहीं आता कि भारत का आम आदमी कहां जा रहा है? बच्चे जवान होने से पहले बूढ़े हो जा रहे हैं और मौत के आगोश में समा जा रहे हैं । विश्व भुखमरी सूचकांक या कहें ग्लोबल हंगर इंडेक्स में बताया गया है कि भुखमरी का स्तर और गरीबी का स्तर धीरे धीरे ऊपर उठ रहा है और वह गंभीर से मध्यम होता जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा इसलिए हो रहा है कि दुनिया में गरीबी कम हो रही है और गरीबी तथा भूख का आपस में अभिन्न संबंध है। बच्चों के कुपोषित होने की दर दुनिया में कहीं भी 20.8% है और बच्चों के अविकसित होने की दर 37.9 प्रतिशत है। लेकिन भारत जिसे हम बहुत खुशहाल देश कह रहे हैं उसमें भुखमरी के आंकड़े 30.3 हैं। जिसका अर्थ है की यहां की भुखमरी गंभीर है। हां यह देखकर खुश हुआ जा सकता है यह पिछले कुछ सालों में हालात बदले हैं। सन 2000 में यह आंकड़े 38.8 थे सन 2005 में यह 38  हो गए और 2010 में थोड़ा विकास हुआ और आंकड़े 32 पर पहुंच गए और अब हम 30.3 पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की यह रिपोर्ट 2014 से 18 के बीच कुपोषित बच्चों की आबादी के आधार पर तैयार की गई है। आकार में विशाल होने के कारण भारत नए इस सूचकांक पर बहुत प्रभाव डाला है । भारत में बच्चों के कुपोषित होने की दर 20.8% है यह दुनिया में किसी भी देश से सबसे ज्यादा है। रिपोर्ट में बताया गया है की 6 से 23 महीनों के केवल 9.6% बच्चों को निम्नतम स्वीकार्य भोजन प्राप्त होता है। स्वास्थ्य मंत्रालय की हाल की रपट में तो यह आंकड़े और भी कम बताए हैं।  उस रिपोर्ट में न्यूनतम स्वीकार्य भोजन दिए जाने वाले बच्चों का अनुपात 6.4% बताया  है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में बांग्लादेश की प्रशंसा की गई है उसमें कहा गया है उसने काफी तरक्की की है।
         नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने अपनी पुस्तक "द पुअर इकोनॉमिक्स" में लिखा है कि गरीबी और भूख में अन्योन्याश्रय संबंध है लेकिन सरकार का गरीबी मिटाने का प्रयास  और ना भूख मिटाने का बहुत ज्यादा कामयाब होता नहीं दिखता है। लिहाजा दोनों में लगातार इजाफा हो रहा है। सरकार की तरफ से जो सब्सिडी दी जाती है वह उन लोगों को दी जाती है जो बहुत गरीब नहीं है तथा वे अन्य स्रोतों से भी धन का प्रबंध कर सकते हैं। जिन बहुत गरीबों को आर्थिक मदद दी जाती है उनके भीतर यह भाव रहता है यह खर्च करने के लिए है और कोई उसका उपयोग नहीं कर पाते। इसलिए गरीबी दूर होना मुश्किल लगता है और जब तक गरीबी रहेगी तो भुखमरी बढ़ती घटती रहेगी।  यद्यपि सरकार खुशहाली के लिए बहुत कुछ कर रही है ताकि, बच्चों में कुपोषण खत्म हो। नीति आयोग के अनुसार राष्ट्रीय पोषण रणनीति बनाई जा रही है जिसमें लक्ष्य स्पष्ट रूप से तय किए जाएंगे और उनकी निगरानी भी होगी। गर्भवती महिलाओं के लाभ के लिए प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद हालात सुधरने की खबरें मिल रही हैं। सरकार ने अगले 3 वर्षों में कुपोषण से मुकाबले के लिए 12 हजार करोड़ रुपयों का आवंटन किया है। जिस से उम्मीद है कि कुपोषण घटेगा और खुशहाली आएगी। दरअसल, भारत एक विशाल राष्ट्र है जहां तरह-तरह के विचार, रस्मो - रिवाज और आदतों से जुड़े लोगों की विशाल आबादी वास करती है। सरकार की तरफ से किए जाने वाले प्रयास सराहनीय है। लेकिन इतनी जल्दी उनका प्रभाव देखने को मिलना शायद संभव नहीं है।


Tuesday, October 15, 2019

अमर्त्य के बाद अभिजीत

अमर्त्य के बाद अभिजीत

अभिजीत मुखर्जी को 2019 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला। यह हमारे देश के लिए गौरव की बात है। साथ ही ,हमारे शहर कोलकाता के लिए भी। कोलकाता से जुड़े अभिजीत छठे व्यक्ति हैं जिन्हें यह  गौरवशाली पुरस्कार प्राप्त हुआ है। अभिजीत के पहले रोलैण्ड रॉस को औषधि विज्ञान में , 1913 में रविंद्र नाथ टैगोर ,1930 में सर सी वी रमन को भौतिक शास्त्र में, 1979 में मदर टेरेसा को और 1998 में प्रोफेसर अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र का ही नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
           देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कोलकाता की गरीबी को रेखांकित करते हुए लिखा था:
     कोलकाता के फुटपाथों  पर जो आंधी-पानी सहते हैं
   उनसे पूछो 15 अगस्त के बारे में क्या कहते हैं
       अभिजीत बनर्जी के मन में  कुछ ऐसा ही सवाल उठता रहा। उनका मानना है कि जिस स्थिति में आप रहते हैं और बड़े होते हैं वही तय करता है या आपकी दिलचस्पी क्या होगी। अगर आप 1980 के दशक में लैटिन अमेरिका में पैदा हुए होते तो आप  अर्थ शास्त्री हो गए रहते। क्योंकि, आपकी दिलचस्पी होती है। अर्थव्यवस्था कैसे संकट में पड़ती है और अगर आप कोलकाता में पैदा लिए हैं तो आप  जान लेंगे क्या होती है यह गरीबी और गरीब लोग क्या हैं तथा गरीबी कैसे मिटाई जा सकती है।
अभिजीत कोलकाता में जहां रहते थे वहां पास में ही है स्लम था । वहां के बच्चे गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाते थे और अभिजीत उन बच्चों के साथ खेलते थे। उनके मन में यह बात थी  कि वे गरीब क्यों है और उनके स्कूल नहीं जाने की वजह क्या है। क्यों पूरे दिन खेलते रहते हैं। यही सवाल था कि  वे गरीब क्यों है इसका उत्तर ढूंढते -ढूंढते अभिजीत नोबेल तक पहुंच गए। अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाने वाला यह अभिजीत विनायक बनर्जी बचपन में फिजिक्स पढ़ना चाहता था। बाद में उन्होंने स्टैटिक्स चुना। लेकिन इसमें भी नहीं टिक पाए और प्रेसिडेंसी में अर्थशास्त्र में एडमिशन ले लिया।
यहां एक प्रमुख तथ्य है कि जब कोई यह कहता है फलां आदमी गरीब है तो गरीबी के बारे में अर्थशास्त्र कैसे सोचता है। यकीनन वह पैसे के  बारे में सोचता है भोजन के बारे में नहीं। ऐसा मानना अथवा इस तरह का उत्तर विश्लेषणात्मक नहीं है । लेकिन अर्थशास्त्र के मुताबिक जब कोई गरीब होता है तो उसका व्यवहार कैसा होता है इसकी व्याख्या की जाती है।   यह समझना  महत्वपूर्ण होगा कि एक ही तरह के गरीब लोग अलग-अलग आचरण क्यों करते हैं? उनमें एक ही तरह का व्यवहार क्यों नहीं होता ? यानी  गरीबों और गरीबी को समझना ही अर्थशास्त्र के लिए आवश्यक है। अभिजीत बनर्जी और उनके दो साथियों ने जो कुछ भी किया वह इसी मुद्दे पर  किया। उन्होंने इस गरीबी को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों के प्रभाव का अध्ययन किया। एक बड़ा दिलचस्प वाकया इस सिलसिले में हमें अक्सर देखने को मिलता है। जैसे हमारे देश में टीकाकरण मुफ्त है लेकिन महिलाएं  अपने बच्चों को लेकर टीकाकरण के अंदर तक नहीं जाती। बीच में किसी संस्था ने पल्स पोलियो की टीका के साथ एक एक बैग देना आरंभ किया तो टीकाकरण केंद्र पर बच्चों को टीका लगवाने वाली महिलाओं की भीड़ लग गई । अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी डिफ्लो ने भी कुछ ऐसा ही प्रयोग मुंबई और बड़ोदरा में किया। वहां स्लम्स के कुछ इलाकों में पाठ्य पुस्तकें मुफ्त मिलती थीं। लेकिन ना कोई लेने जाता था ना कोई पढ़ने जाता था।  जैसे ही यह घोषणा की गई कि पाठ्य पुस्तकों के सेट के साथ कुछ और दिया जाएगा बच्चे स्कूलों में जाने लगे। संभवत ऐसा ही प्रयोग पश्चिम बंगाल में कन्या शिक्षा  को बढ़ावा देने के उद्देश्य कन्याश्री  के नाम से किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि विद्यालयों में छात्र पढ़ने की अपनी जरूरतों के लिए  नहीं जाते बल्कि अगर उसके "साथ और सहयोग" मिले तब वे विद्यालय जाएंगे । यही कारण है कि   भारत सहित सारी दुनिया की सरकारें सामाजिक योजनाओं पर ज्यादा खर्च कर रही हैं।
   मुखर्जी और डिफ्लो के इस शोध से नीति निर्माताओं को लोगों की पसंद को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए जो प्रेरक तत्व आवश्यक हैं उनको समझने में मदद मिलेगी। क्योंकि नीति का प्रकल्प सफलता और असफलता के अंतर को बताता है। इसीलिए इसे विकास का अर्थशास्त्र कहा जा रहा है।
       भारत के बारे में अभिजीत बनर्जी का मानना है यहां के लोग गरीबी के कारण उपभोग में कटौती कर रहे हैं और इसके कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है तथा यह गिरावट जिस तरह से जारी है उससे लगता है इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा भारत में एक बहस चल रही है कौन सा आंकड़ा सही है । पर सरकार का विशेष तौर पर यह मानना है कि वे सभी आंकड़े गलत हैं जो असुविधाजनक हैं।  लेकिन अब  सरकार यह मानने लगी है की कुछ समस्या तो है और अर्थव्यवस्था बहुत तीव्रता से धीमी हो रही है।  अभिजीत बनर्जी का मानना है यह बहुत तेजी से गिर रही है। उनका मानना है कि फिलहाल मौद्रिक स्थिरता के बारे में न सोच कर मांग के बारे में थोड़ा सोचना जरूरी है। अर्थव्यवस्था में मांग एक बहुत बड़ी समस्या है। अभिजीत बनर्जी उन खास अर्थशास्त्रियों में शामिल थे जिन्होंने नोटबंदी के फैसले का विरोध किया था । नोटबंदी से प्रारंभ में जितने नुकसान का अंदाजा लगाया गया था वह उससे भी कहीं ज्यादा था अभिजीत बनर्जी ने भारत की अर्थव्यवस्था की जमीनी स्तर पड़ताल कर उन्हें लोगों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।  साथ में ही उन्होंने उस संदर्भ में विभिन्न समाज और देशों की गरीबी की भी शिनाख्त करने का एक नया नजरिया पेश किया है।


वायु प्रदूषण में डूबता कोलकाता

वायु प्रदूषण में डूबता कोलकाता

दशहरा  और बंगाल की लक्ष्मी पूजा बीत गई और अभी से वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। दीपावली अभी बाकी है। विशेषज्ञों के अनुसार कोलकाता के वायु प्रदूषण की सीमा एक सौ को पार कर चुकी है और आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ने वाले हैं । कोलकाता में प्रातः भ्रमण की जितनी जगह है जैसे  विक्टोरिया मेमोरियल और मैदान का क्षेत्र वहां सबसे ज्यादा प्रदूषण है। विशेषज्ञों के अनुसार यहां 118 से 128 पॉइंट्स प्रदूषण मापा गया है। यह फेफड़े के लिए उतना ही हानिकारक है जितना 27 सिगरेट पीने से होता है। इसके खतरे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक सिगरेट से 22 माइक्रोन पीएम 2.5  का ज़हर निकलता है तो 27 सिगरेट पीने से क्या हो सकता है? वैसे वायु प्रदूषण दुनिया के लगभग सभी बड़े शहरों की समस्या है। पिछले हफ्ते शनिवार को लंदन में वैज्ञानिकों ने लंदन साइंस म्यूजियम के समक्ष प्रदूषण सुधारने के लिए सरकार पर जोर देने उद्देश्य से लेबरेटरी कोट पहनकर प्रदर्शन किया था। लेकिन कोलकाता में ऐसा कुछ नहीं हुआ है  जागरूकता की कोई कोशिश  होती दिख नहीं रही है। यह दिनोंदिन खतरनाक होता जा रहा है। सी एन सीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक महानगर में प्रति एक लाख लोगों पर 19 लोगों को फेफड़े का कैंसर हो रहा है। इसके लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है और इन 19 लोगों में अधिकांश वही है जो प्रात: भ्रमण के लिए विक्टोरिया या उसके आसपास के इलाकों में लगातार जाते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट कोलकाता के एक अध्ययन के मुताबिक यहां के लोग सबसे ज्यादा प्रदूषित वायु का सेवन करते हैं। यहां के वायु में विगत 6 वर्षों में नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा 2.7 गुनी बढ़ गई है। विशेषज्ञ इसके दिए मोटर कारों की बढ़ती संख्या और एक खास समय में उनका कोलकाता में प्रवेश करना तथा कोलकाता से बाहर जाना बताते हैं।   अब से कुछ साल पहले तक कोलकाता निवासी बसों में सफर करते थे या फिर छोटी मोटी दूरी के लिए पैदल जाते थे इससे वायु प्रदूषण कम होता था। अब  वह बातें खत्म हो गयीं और एक आध किलोमीटर  जाने के लिए भी लोग अपनी गाड़ी का सहारा लेते हैं। इंस्टीट्यूट  फॉर  हेल्थ मैट्रिक्स एंड  इवेलुएशन  द्वारा  संचालित ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज के आंकड़ों के मुताबिक बारीक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 की भूमिका का दुनिया में ह्रदय रोगों से मरने वाली बीमारियों में पांचवां स्थान है। इसके चलते सांस की तकलीफ बढ़ती रहती है। वस्तुतः डनलप, श्याम बाजार, मौलाली, एस्प्लेनेड और टॉलीगंज जहां 24 घंटे गाड़ियां  चलती हैं, उन क्षेत्रों की हवा में बारीक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 की मात्रा अन्य इलाकों से ज्यादा रहती है।  यहां के निवासियों में हृदय रोग ज्यादा शिकायतें आती हैं।
       लेकिन कोलकाता में प्रदूषण का मुख्य कारण केवल यहां चलने वाले वाहन ही नहीं हैं बल्कि इसका अपना एक भूगोल भी है जो प्रदूषण में काफी सहयोग करता है। कोलकाता भारत के पूर्वी क्षेत्र में 22 डिग्री 82 मिनट  अक्षांश एवं 88 डिग्री 20 मिनट देशांतर पर अवस्थित है। यह हुगली के समानांतर बसा हुआ  शहर है । दरअसल कोलकाता बहुत बड़ी निम्न तलीय भूमि है जहां एक बहुत बड़ी आबादी बसी हुई है। 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक कोलकाता की जनसंख्या का घनत्व 24,760 व्यक्ति प्रति किलोमीटर है। यह मुंबई के बाद सबसे ज्यादा जनसंख्या है। 2001 के आंकड़े बताते हैं कोलकाता का क्षेत्रफल 1,480 वर्ग किलोमीटर है और यहां से सुंदरबन का डेल्टा महज 154 किलोमीटर दक्षिण में है जो शहर को बंगाल की खाड़ी से अलग करता है। विख्यात भूगोलवेत्ता डॉक्टर पी नाग के मुताबिक कोलकाता शहर कई टोपोग्राफी क्षेत्रों से मिलकर बना है। कोलकाता में 5 भौगोलिक की टोपोलॉजी है । पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण और मध्य कोलकाता। जिसमें 2001 की जनगणना के मुताबिक हावड़ा, हुगली ,उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना और नदिया शामिल है । कोलकाता एक समशीतोष्ण क्षेत्र है। गर्मियों में यहां बहुत ज्यादा गर्मी पड़ती है और वातावरण में आर्द्रता बहुत ज्यादा होती है। यहां का वार्षिक औसत तापमान 26.8 डिग्री सेंटीग्रेड मापा गया है।यहां का अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेंटीग्रेड और न्यूनतम तापमान 5 डिग्री सेंटीग्रेड मापा गया है। यहां की हवा में सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा सबसे ज्यादा पाई जाती है और उसका कारण यहां  की भौगोलिक स्थिति है।
       इसे नियंत्रित करने के लिए सबसे जरूरी है यहां की ट्रांसपोर्ट व्यवस्था को सुधारा जाए और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर पाबंदी लगाई जाए। कोलकाता शहर के आसपास चारों तरफ स्लम्स हैं और वहां बड़ी संख्या में लोग कोयले तथा लकड़ियां जलाकर खाना बनाते हैं। इसके अलावा कोलकाता महानगर के फुटपाथ पर रहने वाले लोग भी कोयले और लकड़ी जलाकर खाना बनाते हैं। इस पर रोक लगाना बेहद आवश्यक है। वर्ना, शहर की हवा की गुणवत्ता दिनोंदिन खराब होती जाएगी और यह यहां के बाशिंदों को हानि पहुंचाएगी।

Monday, October 14, 2019

अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयाम

अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयाम

देश की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा रही है। हालात चिंतित करने वाले हैं। लेकिन, सरकार और उसके नेता इसे मानने को तैयार नहीं हैं। इसके बारे में अलग अलग लोगों के अलग-अलग बयान आ रहे हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि  विकास धीमा पड़ गया है, मौद्रिक घाटा हो रहा है तथा इसके पीछे और भी बहुत कुछ है । ब्राउन यूनिवर्सिटी में ओपी जिंदल लेक्चर के दौरान रघुराम राजन ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गंभीर  अस्वस्थता के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं। रघुराम राजन ने आर्थिक मंदी के कारणों का जिक्र करते हुए कहा कि पहले से चली आ रही समस्याओं में इसकी खोज की जा सकती है। उन्होंने सरकार पर तंज किया कि भारत को अभी पता नहीं है कि विकास के नए स्रोत कहां है।
    उधर हमारे नेता हैं कि देश में आर्थिक मंदी को मानने को तैयार नहीं हैं।  वे इससे जुड़े सवालों के अजीब उत्तर दे रहे हैं। अभी शनिवार को  एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि तीन फिल्मों ने 1 दिन में 120 करोड़ की कमाई की। 120 करोड़ रुपए ऐसे ही देश में आते हैं जिनके अर्थव्यवस्था मजबूत होती है। उनका मानना है कि देश में कोई आर्थिक मंदी नहीं है। लेकिन, सवाल है कि सच को जाना जाए कि क्या सचमुच आर्थिक मंदी है अथवा नहीं। इस साल जून में समाप्त तिमाही में भारत की जीडीपी पिछले 6 साल में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी। उसका स्तर 5 प्रतिशत पर आ गया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में देश में व्याप्त आर्थिक मंदी से निपटने  के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में उद्योग और आम आदमी को राहत देने की कई घोषणाएं कीं। उन्होंने कहा कि सरकार आर्थिक मंदी से लड़ने के लिए विशेष उपाय कर रही है। वहीं दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद के बयान कोई दूसरी बात कह रहे हैं। इन  बयानों को सुनकर आम आदमी बुरी तरह कन्फ्यूज्ड है और किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा है।
        हर स्तर पर अलग-अलग बातें सुनने को मिलती हैं। अभी दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आर्थिक संकट है मगर इसे बहुत महत्त्व देने की जरूरत नहीं है। शैतान को ज्यादा तवज्जो क्यों दें। अकेले जीडीपी ही आर्थिक वृद्धि का पैमाना नहीं है। भ्रष्टाचार पर हमला बोलिए, बेकसुरों को परेशान मत कीजिए और स्वदेशी पर विश्वास करें। इससे आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। उधर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आये। इसके पहले 2014 में अहमदाबाद आए  थे।  गौर करने की बात है के 2014 से 2019 के बीच आर्थिक संबंधों में कितना बदलाव आया है। अब भक्त मंडली में कोई भी सवाल उठा सकता है की जिन पिंग के दौरे में और कुछ नहीं था जिस पर बात की जाए ? अर्थव्यवस्था की बात  क्यों होती है? यहां सवाल है कि आज कूटनीति का हर पैमाना अर्थव्यवस्था पर आधारित है इसलिए जरूरी है कि इसका ठोस मूल्यांकन हो। आंकड़े बताते हैं कि 2014 से अब तक भारत और चीन के बीच का व्यापार घाटा बढ़ता रहा है। भारत का चीन को निर्यात घटता जा रहा है। चीन में लगातार नौकरियां पैदा हो रही हैं भारत में नौकरियां घटती जा रहीं हैं। इस बीच खबर आई है कि जुलाई 2019 में औद्योगिक उत्पादन 1.1 प्रतिशत रहा। जो विगत 81 महीनों में  सबसे कम था। यह सरकार ने खुद बताया है । यही नहीं इस सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी विगत 45 सालों में सबसे ज्यादा हो गई है । प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने जीडीपी के आंकड़ों पर उंगली उठा कर आर्थिक हालात को और बहस के केंद्र में ला दिया है। अब भाजपा को महसूस हो रहा है कि सचमुच आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था एक चुनौती है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए प्रधानमंत्री ने रिजर्व बैंक पर दवाब डाला। ब्याज दरों में कटौती की। लेकिन, उससे कोई अंतर नहीं आया। समस्या है कि प्रधानमंत्री जी के आर्थिक सलाहकार वही है जिन की सलाह पर 5 साल से नीतियां बनती रही हैं। जिन नीतियों की वजह से हालात यह हुए हैं। उसे ही सरकार लागू करने पर अमादा है। किसी हकीकत को स्वीकार करना और परिस्थितियों का सही आकलन करके सही कदम उठाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। सरकार को समझना होगा की मूल समस्या क्या है ? जीएसटी के लागू होने से छोटे और लघु उद्योगों पर कागजी कार्रवाई का इतना बोझ पड़  गया कि  वह उसी के नीचे दब गईं। सरकार ने यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो यकीनन आगे चलकर आर्थिक परेशानियों में डूब जाएगा देश।

Friday, October 11, 2019

पाकिस्तान अपने किरदार से परेशान है

पाकिस्तान अपने किरदार से परेशान है 

अभी हाल में आई एक रपट के मुताबिक पाकिस्तान के 66% लोगों का मानना है कि भारत के साथ कभी भी जंग हो सकती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वे करने वाली संस्था गैलप के अनुसार अधिकांश पाकिस्तानियों का मानना है कि भारत से कभी भी जंग हो सकती है और उस जंग में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे जा सकते हैं। गैलप के सर्वे में पाकिस्तान की उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया था। हालांकि इस सर्वे में यह नहीं बताया गया है कि कितने लोगों को इसमें  शामिल किया गया था। यहां ध्यान देने की बात है कि  कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को भारत द्वारा वापस लिए जाने के बाद पाकिस्तान में बेचैनी बढ़ गई है।  यही कारण है क्यों वहां के नेताओं की तरफ से युद्ध की आशंका बार-बार प्रगट की जा रही है। आशंका प्रगट करने वालों में खुद प्रधानमंत्री इमरान खान और रेल मंत्री शेख राशिद भी शामिल हैं। शेख राशिद ने तो यहां तक कह दिया था अक्टूबर-नवंबर जंग हो जाएगी । युद्ध पिपासु पाकिस्तान की जनता  का यह विचार केवल इस लिए है कि वहां आम जनता में बेचैनी है ,भारी परेशानी है। पाकिस्तानी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वहां अवसाद और परेशानी की समस्या दुनिया के किसी भी देश से चार या पांच  गुना ज्यादा है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार पाकिस्तान में 30 साल से कम आयु के अविवाहित युवाओं में और 30 साल से ज्यादा उम्र की विवाहित महिलाओं में आत्महत्या की प्रवृति  लगातार बढ़ती जा रही है ।  अखबारों में प्रकाशित इस रपट के अनुसार देश में जितनी आत्महत्या के सरकारी आंकड़े हैं उससे कहीं ज्यादा ऐसे भी मामले हैं जिनका सरकार के पास कोई डाटा नहीं है। जिन्ना पोस्टग्रेजुएट मेडिकल सेंटर के मनो चिकित्सकों के अनुसार पाकिस्तान में करीब 33% लोग अवसाद और बेचैनी से ग्रस्त हैं। कुछ इलाकों में तो हालात और खराब हैं। इनमें पाकिस्तान का उत्तरी क्षेत्र शामिल है । इन लोगों के पास न करने लिए कुछ है और ना सोचने के लिए तथा डिप्रेशन के जुनून में ये सिर्फ भारत से जंग चाहते हैं। मनो चिकित्सकों के अनुसार डिप्रेशन खुदकुशी या इस तरह के विचारों का मुख्य कारण है। पाकिस्तान की सबसे बड़ी ट्रेजेडी  है वहां विकास के नाम पर न आर्थिक विकास हुआ और ना ही सामाजिक विकास।  सेना तथा सियासत के बीच गठबंधन के कारण लगातार समाज  की उपेक्षा होती रही है। यही उपेक्षा अवसाद में परिवर्तित हो गई। जिन समाजों में उद्देश्य हीनता और जीवन मूल्यों के प्रति अनिश्चय की स्थिति ज्यादा होती है वहां व्यक्तिगत स्तर पर अवसाद बढ़ता है इसलिए सामाजिक संबंधों को सुधारने के साथ-साथ समाज और विशेषकर नौजवानों में सार्थक उद्देश्य और नैतिक मूल्यों की व्यापक सहमति होनी चाहिए। पाकिस्तान में सार्थक उद्देश्य और नैतिक मूल्यों की व्यापक सहमति का भारी अभाव है इसलिए वहां कुछ कर गुजरने और यूफोरिया में जीने के लिए नौजवानों में एक तरफ नशा और दूसरी तरफ आतंकवाद को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । यह  प्रवृत्ति  ना केवल पड़ोसी देशों के लिए  खतरनाक है  बल्कि आत्मघाती भी है। यही कारण है के रावलपिंडी से लेकर राष्ट्र संघ तक पाकिस्तानी हुक्मरान बम और जंग की बात करते नजर आते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान पर परमाणु बम गिराया गया था तो विख्यात दार्शनिक बट्रेंड रसैल ने अपने स्मरणीय भाषण में कहा था कि "जापान पर बम गिराया जाना रणनीतिक नहीं है बल्कि डिप्रेशन का प्रभाव है और आने वाले दिनों में ऐसा कई जगह देखने को मिल सकता है। क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अर्थव्यवस्था लगभग चरमरा गई है और विकास के रास्ते नजर नहीं आ रहे थे । ऐसे में आम जनता के पास खुश होने के लिए बदला लेने और दुश्मन को मार डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । " जहां तक पाकिस्तान का प्रश्न है तो वहां की आबादी ने कुछ ऐसे लोगों की बहुलता है जिनमें जंग ,हिंसा तथा दमन की प्रवृत्ति जेनेटिक है । ऐसे लोग मोह ,माया, नफासत और विकास की बात कम तथा हिंसा की बात ज्यादा सोचते हैं। यही कारण था कि बंटवारे के समय लाखों लोगों की लाशें उस पार से आई थी। आज ऐसे ही एहसास से पाकिस्तान के वजूद को खतरा पैदा हो रहा है । अगर वहां के नेता तथा समाज के अगुआ लोग अभी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी।

Thursday, October 10, 2019

घुसपैठिए और एनआरसी आखिर यह सब क्या है?

घुसपैठिए और एनआरसी आखिर यह सब क्या है?

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को कहा कि लोकसभा चुनाव के पहले सभी घुसपैठियों को देश से बाहर निकाल दिया जाएगा। उन्होंने इस भाषण में एनआरसी का भी जिक्र किया। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने पिछले हफ्ते बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद को आश्वस्त किया कि एनआरसी की चिंता ना करें यह भारत का आंतरिक मामला है। ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने एनआरसी को द्विअर्थी बना लिया है। अभी हाल में असम में संशोधित एनआरसी में 19 लाख लोगों के नाम है  अगर यह फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के समक्ष खुद को भारतीय नहीं प्रमाणित कर सके तो उन्हें विदेशी मान लिया जाएगा। अधिकांश लोग बांग्ला भाषी हैं और यह माना जाता है यह बांग्लादेशी हैं तथा गैर कानूनी ढंग से भारत में घुस आए हैं। गृहमंत्री  इन्हें बाहर निकालने की बात कर रहे हैं। असम के बाद बंगाल का भी नंबर है और गृहमंत्री बंगाल  पर अक्सर इसकी चर्चा भी करते हैं। लेकिन, अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं है जिससे, समझा जा सके कि इस मामले को लेकर बांग्लादेश सरकार से कोई बातचीत हुई है। प्रश्न उठता है कि जिन्हें विदेशी या घुसपैठिया घोषित कर दिया जाएगा उनका क्या होगा?  गृहमंत्री उन्हें कहां खदेड़ देंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री बताया है कि यह भारत का आंतरिक मामला है विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कुछ ऐसा ही कहा है। यह बड़ा अजीब लगता है 1 वर्ष से गृह मंत्री लगातार कह रहे हैं कि एनआरसी के माध्यम से देशभर में घुसपैठियों का पता लगाया जाएगा यह घुन हैं और इन्हें खदेड़ दिया जाएगा । लेकिन कहां खदेड़ा जाएगा? कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में एक चुनाव रैली में गृह मंत्री ने कहा कि एनआरसी के माध्यम से घुसपैठियों का पता लगाकर इन्हें राज्य से निकाला जाएगा। उन्होंने सभी गैर मुस्लिम शरणार्थियों को आश्वस्त किया कि  राज्य छोड़ने के लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जाएगा । गृहमंत्री और प्रधानमंत्री की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि मोदी सरकार दो अलग अलग भावनाओं से नियंत्रित हो रही है । प्रधानमंत्री विदेश नीति के जादूगर माने जाते हैं और उन्हें विभिन्न देशों में इसका का गौरव हासिल है तथा पश्चिमी देशों में उनका बहुत सम्मान होता है। विश्व मंच पर पड़ोसी देशों के मुकाबले उन्हें ज्यादा प्रमुखता हासिल है। यह एक ऐसी भूमिका है जिसमें मृदु भाषा और लोकतांत्रिक सिद्धांतों का व्यापक क्षितिज जरूरी है, लेकिन साथ ही यह चौकीदार की सरकार है जो सीमा की निगरानी करता है तथा देश के भीतर के दुश्मनों को चेतावनी देता है कि वह अपनी हरकतों से बाज आएं ।परिणाम स्वरूप पड़ोसी देशों में भारत को लेकर एक खास किस्म का तनाव पैदा हो गया है । यह तनाव गत 5 अक्टूबर को बांग्लादेश विदेश मंत्री शहीदुल इस्लाम के बयान में दिखता है जिसमें उन्होंने कहा है कि "हमारे संबंध अच्छे से भी अच्छे हैं लेकिन फिर भी हमें अपनी आंखें खुली रखनी होंगी। "
            अब यहां दो बातें होती हैं या तो हसीना वाजिद को दिया गया आश्वासन सही नहीं है या फिर गृहमंत्री की बात सही नहीं है। क्योंकि अभी तक एनआरसी की जो भी कसरत हुई है वह बांग्लादेश को दिमाग में रखकर ही हुई है। इसे विभाजन का दर्द भी कहा जा रहा है। क्योंकि विभाजन और आजादी के बाद भारी दंगे के फलस्वरूप यहां पूर्वी सीमा से बहुत बड़ी संख्या में घुसपैठिए आ गए असम के बाद एनआरसी के लिए बंगाल दूसरा परीक्षण स्थल है अब बात आती है कि जिनको घुसपैठिया मान लिया गया या जिन्हें घुसपैठिया घोषित कर दिया गया और उन्हें  बांग्लादेश नहीं  भेजा गया  तो उनका क्या होगा? सरकार की योजना क्या है। असम और कर्नाटक में नए डिटेंशन सेंटर खोले जाएंगे कथित तौर पर महाराष्ट्र सरकार ने नवी मुंबई में इसके लिए जगह भी देख ली है। लेकिन असम में वहां क्या होगा लगभग 20 लाख लोग देश विहीन हैं। यह संख्या कुल भारतीय जेलों की क्षमता से कई गुना ज्यादा है। भारत की सभी जेलों की क्षमता चार लाख 33हजार 33 है और वो पहले से ही भरी हुई है। अगर देशभर में एनआरसी लागू हो कई लाख और लोग इन कैदियों में शामिल हो जाएंगे। सरकार के पास कथित रूप से दूसरा विकल्प है कि इन्हें वर्क परमिट दे दिया जाए। वे भारत में रहें और भारत के लिए काम करें लेकिन उनका राजनीति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। आश्चर्य नहीं है कि किसी स्पष्ट नीति के अभाव में गृहमंत्री फिलहाल इस पर कुछ ना बोलें लेकिन वे लगातार इस पर बोल रहे हैं ।घुसपैठियों को बंगाल की खाड़ी में फेंक देने की बात करते हैं। अब इसे क्या कहा जाए।
        

Wednesday, October 9, 2019

नई पीढ़ी ,पर्यावरण और शिक्षा के बीच गहरा रिश्ता

नई पीढ़ी ,पर्यावरण और शिक्षा के बीच गहरा रिश्ता

बिगड़ता पर्यावरण  किसी एक देश की जिम्मेदारी नहीं है  और ना ही  ऐसे विचार से  उद्देश्य हासिल हो पाएगा। यह एक  संयुक्त प्रयास है  और संयुक्त प्रयास से ही इसमें सुधार आ सकता है। राष्ट्र संघ के आंकड़े के मुताबिक आज दुनिया भर में लगभग 180 करोड़ लोग 10 वर्ष से 24 वर्ष उम्र के हैं बिगड़ते पर्यावरण के खिलाफ जंग में अगर इन 180 करोड़ नौजवानों की ताकत का उपयोग किया जाए तो बहुत कुछ लक्ष्य हासिल हो सकता है। यह नौजवान बढ़ते तापमान, संसाधनों के अभाव और भयानक मौसम की चुनौतियां से मुकाबले के लिए की जा रही कोशिशों के बड़े भागीदार हो सकते हैं। हाल ही में स्वीडन की ग्रेटा थुनबर्ग की अगुवाई में हुई स्कूलों की हड़ताल यही बताती है। नौजवान इन मुद्दों से खुद को जज्बाती तौर पर जोड़ने में सक्षम हैं। वे ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन, अभी युवाओं को इन मसलों से जुड़ाव विरोध प्रदर्शन तक सीमित है। इस  मामले में अभी युवा संस्थागत प्रयासों से नहीं जुड़ पाए हैं । आखिर ऐसा  क्यों है? इन दिनों स्थाई विकास पर सबसे ज्यादा चर्चा होती है। स्थाई विकास विकास का एजेंडा बहुत ही व्यापक है । इसमें गरीबी हटाओ से लेकर सबको शिक्षा और बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था देने का लक्ष्य शामिल है। इसके तहत 17 लक्ष्य और 169 प्रयोजन तय किए गए हैं। इनमें कुछ मसले ऐसे भी हैं जो किसी आम नौजवान की सोच के दायरे से बाहर हैं। हालांकि ऐसे मामलों पर जागरूकता का विकास अच्छी बात और उससे भी अच्छी बात है उसे फैलाने का प्रयास। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज का एक नौजवान मलेरिया या दिमागी बुखार के खिलाफ जंग में कैसे शामिल हो सकता है, या फिर एक दूर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने में कैसे योगदान दे सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि आम लोगों की व्यक्तिगत पसंद के हिसाब से उन्हें उन लक्ष्यों को पाने के लिए प्रेरित किया जाए। उदाहरण के लिए स्थाई विकास के जो 17 लक्ष्य तय किए गए उनमें शामिल एक लक्ष्य टिकाऊ विकास और खपत भी है। यह संभवतः युवाओं की पसंद का लक्ष्य है। दुनिया में एक बहुत बड़ी आबादी 1995 के बाद पैदा हुई है।  यह पीढ़ी 2020 तक दुनिया के कुल ग्राहकों का 40 प्रतिशत हो जाएगी। इसका मतलब है बहुत जल्द हमारे युवाओं की खपत और खरीदारी में बदलाव की जरूरत है।
         अपनी रोजाना की जीवन शैली में हम कार्बन उत्सर्जन में  बहुत बड़ा योगदान करते हैं। दुनिया भर में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका लगभग 29% भाग घरेलू उपयोग के काम में आता है और खानपान के क्षेत्र में 30%  का उपयोग होता है। यानी लगभग दो तिहाई ऊर्जा ऐसे कामों में खर्च हो जाती है जो अनुत्पादक हैं। इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड का जो उत्सर्जन होता है वह अलग है । आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका और चीन सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं । 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका ने 904. 74 टर्न कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया जबकि चीन ने उसी वर्ष 499.75 टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ा। यही नहीं अमेरिका और चीन दुनिया के सबसे ज्यादा खपत वाले बाजार भी हैं। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की एक  रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग ट्रांसपोर्ट सेक्टर है। इसके बावजूद एक मिथक है कि जलवायु परिवर्तन में मानवीय गतिविधियों का हाथ है। इस मिथक को भंग करना होगा और हमारी नौजवान पीढ़ी ही इस मिथक को भंग कर सकती है।
         मनुष्य पैदाइशी खरीदार नहीं होता। मीडिया और असरदार मार्केटिंग की मदद से ग्राहकों का एक बहुत बड़ा बाजार तैयार किया जाता है। प्रचार और असरदार मार्केटिंग के कारण ही हमारे भीतर मोटर कार खरीदने और घूमने जाने इच्छा पैदा होती है। 1 वर्ष के भीतर दुनिया के कुल ग्राहकों में 40% भाग हमारे उन नौजवानों का होगा जिनकी पैदाइश 1995 के बाद हुई।  इसलिए जरूरी है कि हम इन नौजवानों की खरीदारी और खपत की आदतों को बदलें और तभी हम जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्यों को हासिल कर सकेंगे। भारत में 2030 तक लगभग 10 से 25 वर्ष वाली उम्र के 37 करोड़ लोग हो जाएंगे और इससे घरेलू खपत पर भारी असर पड़ने को है। इस अवधि तक एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा से ऊपर चली जाएगी और उनके खर्च करने की क्षमता बढ़ जाएगी। आज भारत में नौजवान लगभग डेढ़ अरब डॉलर खर्च करते हैं 11 वर्ष के बाद यानी 2030 में यही नौजवानों समुदाय 6 अरब डॉलर खर्च करने लगेगा। 15 वर्ष की उम्र के लगभग 90% किशोर ऑनलाइन दुनिया तक पहुंच जाएंगे। यानी ,सोशल मीडिया का दायरा युवाओं को जुड़ने का नया माध्यम उपलब्ध होगा और वैश्विक खपत में भारत बड़ा हिस्सेदार बन जाएगा । आज के नौजवानों को अगर हम समय के अनुसार ढालेंगे तो इसका असर आगे चलकर काफी अच्छा होगा । खासकर उनकी आदतें वैसी नहीं होंगी जैसी पश्चिम के युवाओं की है और वह ज्यादा सृजनशील हो सकेंगे । जब तक हम इसे नहीं ठीक से समझेंगे तब तक जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकेंगे।

Friday, October 4, 2019

पाकिस्तानी युद्धक तत्वों को मिटाना जरूरी

पाकिस्तानी युद्धक तत्वों को मिटाना जरूरी

भारत में दुर्गा पूजा या नवरात्र की शंख ध्वनि से गरबा के उत्साह के बीच जैसे आतंकवादियों के प्रवेश की खबर ने एक विशेष सनसनी पैदा कर दी है। साथ ही पाकिस्तान से संभावित युद्ध की चर्चा फिजा में तैर रही है । कुछ जानकार पाकिस्तान से युद्ध की सूरत में मरने वालों के आंकड़े बताने में जुटे हैं।  बताया जाता है कि अगर युद्ध हुआ और उसमें परमाणु हथियारों का उपयोग किया गया तो 1 सप्ताह से कम समय में पचास  से साढे 12 करोड़ लोग मारे जाएंगे। एक अध्ययन में यह बात कही गई है जिसमें यह भी कहा गया है कि भारत-पाकिस्तान परमाणु युद्ध में जितने लोग मारे जाएंगे उससे कहीं कम लोग दूसरे विश्व युद्ध में मारे गए थे। कोलोराडो बोल्डर विश्वविद्यालय और रुतगर्स विश्वविद्यालय के विश्लेषकों के अध्ययन में पाया गया है। अगर भविष्य में ऐसा हुआ तो उसकी विभीषिका और कुप्रभाव कैसा होगा ? सच क्या होगा? यह अध्ययन साइंस एडवांस पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। जिसमें कहा गया है कि दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर कई बार जंग हो चुकी है लेकिन इस बार हालात कुछ दूसरे होंगे। दोनों देशों के पास लगभग 500 परमाणु हथियार होंगे अगर ऐसा होता है तो धरती पर पहुंचने वाली सूरज की रोशनी मैं 20 से 35% तक कमी हो जाएगी। तापमान दो से 5 डिग्री सेल्सियस कम हो जाएगा। यही नहीं दुनिया में भुखमरी बढ़ जाएगी। जल की 30% कमी होगी जिसका व्यापक क्षेत्रीय प्रभाव होगा।
कुछ तो पाकिस्तान से युद्ध में होने वाली संभावित विजय की चर्चा में मशगूल हैं। यानी जितने मुंह उतनी बातें । लेकिन कोई इस पर नहीं निगाह कर रहा है कि अगर पाकिस्तान भारत के खिलाफ जंग की घोषणा करता है तो भारत के लिए यह एक अवसर भी बन सकता है । अपनी बीवी की जादूगरी और रावलपिंडी के फौजी मुख्यालय के हुकुम के बीच युद्ध पिपासु पाकिस्तान के प्रधानमंत्री  इमरान खान  ने राष्ट्र संघ में जो कहा और जून के देश में कहां सुना जा रहा है उसमें बहुत बड़ा फर्क है इमरान खान ने जो कुछ भी कहा वह कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने की प्रतिक्रिया के रूप में कहा भीतर से बौखलाए  इमरान खान जिन्होंने बारंबार भारत के खिलाफ जिहाद का औचित्य बताया है । उसे उसी रूप में भारत के खिलाफ जंग की घोषणा के रूप में देखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान में सेना का एक विंग जेहादी भी हैं और वह अन्य युद्धों में जिहादियों का उपयोग कर चुका है ,इसलिए भारत को कुछ ऐसा सोचना होगा ताकि वह इन जिहादियों को दंडित कर सके। ऐसी हालत में यह युद्ध केवल जम्मू कश्मीर तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि पूरे भारत में फैल जाएगा। यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका है कि पाकिस्तान युद्ध करता है तो परमाणु युद्ध होगा या नहीं। अभी तक दुनिया में कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित हुआ है जो किसी आतंकी हमले को पूरी तरह खत्म करने में सक्षम हो सके। इसलिए पूरी संभावना है कि पाकिस्तान भारत को उत्तेजित करने के लिए आतंकियों की लगाम ढीली कर देगा । जिससे युद्ध आरंभ करने का ठीकरा भारत के सिर पर फूटेगा और विश्व शक्तियों की हमदर्दी पाकिस्तान के साथ रहे। पाकिस्तान की मामूली गलती  एक बड़े युद्ध में बदल सकती है । भारतीय नेता और अधिकारी आतंकवाद को मानवता के खिलाफ अपराध घोषित करते हैं लेकिन इसका चरित्र उससे ज्यादा खतरनाक है। पाकिस्तान भारत के खिलाफ मानवाधिकार का रोना रो रहा है और धर्मनिरपेक्षता के सद्गुणों का बखान करता फिर रहा है जबकि भारत की तरफ से इसे गलत बताने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। अब केवल युद्ध ही विकल्प रह गया है और अगर युद्ध होता है तो भारत को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और पाकिस्तान के भीतर तैयार हो रहे इन विनाशक तत्वों को सदा के लिए समाप्त कर देना चाहिए।

Thursday, October 3, 2019

शौचालय बने पर उपयोग करने वाले नहीं हैं

शौचालय बने पर उपयोग करने वाले नहीं हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि 2 अक्टूबर को खत्म होने वाले  साठ महीनों में 60 करोड़ से अधिक लोगों के लिए 11 करोड़ शौचालय निर्मित करा दिए गए हैं। दुनिया इसे देखकर सुनकर अचंभित है। बेशक यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। भारत जैसे विशाल देश और विभिन्न आदतों और रिवाजों वाले विशाल आबादी के लिए इतना बड़ा काम करना सचमुच विस्मयजनक है । लेकिन योजना के अभाव में और सहायता की कमी के कारण आंकड़े बताते हैं कि 41% लोगों के घरों में शौचालय नहीं है और वे अभी भी शौच के लिए बाहर जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण बिहार ,मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में 2014 से अभी भी लगभग 23% लोग बाहर शौच करते हैं। लाखों शौचालय बने लेकिन उसका उपयोग करने वाले लोग नहीं हैं और इसलिए कई तरह के खतरे उपस्थित होने वाले हैं। विभिन्न अध्ययनों से यह पता चला है कीटाणु और विषाणु बड़े लोकतांत्रिक होते हैं यह अमीर और गरीब ऊंची जाति और नीची जात में फर्क नहीं करते। खुले में शौच के कारण विषाणु पेयजल, खाद्य पदार्थ इत्यादि को प्रदूषित कर देते हैं और उसके कारण डायरिया, पेचिश और अन्य तरह की पेट की बीमारियां होती हैं।  फिर इनके माध्यम से कीटाणुओं का प्रसार होता है। सरकार का दावा है कि जब से  यह परियोजना आरंभ हुई तब से 2 अक्टूबर 2019 तक लगभग 11 करोड़ शौचालय निर्मित हो गये। यह सरकारी आंकड़ा है इसकी प्रशंसा बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाऊंडेशन ने भी हाल में की और प्रधानमंत्री को ग्लोबल गोलकीपर का पुरस्कार दिया। लेकिन इकोनॉमिक एंड पॉलीटिकल वीकली के अनुसार खुले में शौच कार्यक्रम के विकास पर राइस फाउंडेशन द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार खुले में शौच करने वालों की संख्या 70% से घटकर कर 44% हो गई। यानी ,ऐसे लोग जिनके घर में शौचालय हैं वे अभी भी बाहर जाते हैं। यह कोई नई समस्या नहीं है।   स्वच्छ भारत मिशन के लिए  मुहैया कराई गई  आर्थिक सहायता  और शौचालयों  के निर्माण के रेंडम  मूल्यांकन से पता चलता है की 2009 से 2011 के बीच मध्य प्रदेश के 2 गांव जिनकी आबादी एक ही है वहां एक ही संख्या में शौचालय निर्मित किए गए लेकिन एक में उपयोग करने वालों की संख्या दूसरे के मुकाबले 26% ज्यादा है। इस तरह से सैकड़ों क्षेत्रों में हजारों गांव का सर्वेक्षण किया गया और पाया गया कि जितने शौचालय निर्मित हुए हैं उनका उपयोग नहीं हो पा रहा है । 41% घर ऐसे हैं जहां इनकी सुविधा है लेकिन वे इसका उपयोग नहीं करते। यहां अब एक बहुत बड़ा प्रश्न उठता है की कैसे एक नीति तैयार की जाए जो लोगों को वस्तुतः शौचालय का उपयोग करने के लिए प्रेरित करे? एक शोध के अनुसार शौच से प्रसारित होने वाले कीटाणु जो खाद्य पदार्थों के माध्यम से भीतर जाते हैं उसके प्रति जागरूकता लोगों को शौचालयों के उपयोग के लिए प्रेरित नहीं करती है ।
        शोध से यह  प्रमाणित हुआ है की ऐसे क्षेत्र जहां शौचालयों की कमी है वहां  जागरुकता के साथ-साथ वित्तीय सहायता देने के कार्यक्रम ज्यादा प्रभावशाली हो सकते हैं, खास करके निम्न आय वर्ग के लोगों में। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश का शिवपुरी जिला खुले में शौच से मुक्त हो चुका है लेकिन 2 दिन पहले वहां दलित समुदाय के दो बच्चों को इसलिए पीट-पीटकर मार डाला गया कि वे खुले में शौच कर रहे थे। हमारी मीडिया प्रधानमंत्री को ग्लोबल गोलकीपर का पुरस्कार दिए जाने का जश्न मना रही थी और इधर ये बच्चे अंतिम सांस ले रहे थे। स्वच्छ भारत मिशन की सबसे बड़ी कमी थी कि उसमें शौचालय मुक्त बनाने पर ज्यादा जोर दिया गया देश की संपूर्ण स्वच्छता पर नहीं। विगत 5 वर्षों में मंत्रियों और अफसरों ने शौचालयों की संख्या और आर्थिक सहायता की राशि का ब्यौरा दिया लेकिन किसी ने लोगों में स्वच्छता की  अलख नहीं जगाई । डैन कॉफी और डीन स्पीयर्स ने अपनी किताब "व्हेयर इंडिया गोज: एबंडेंट टॉयलेट्स ,स्टंटेड डेवलपमेंट एंड द कॉस्ट ऑफ कास्ट" में लिखा है कि भारत के लोग बाहर शौच करना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि शौचालयों को बाद में साफ करने के लिए जो कुछ करना पड़ता है वह देश के उच्च जाति के लोगों को नहीं पसंद है। भारत में ऐतिहासिक रूप से शौचालय अछूत कार्य से जुड़ा था। सुनकर हैरत होगी कि शौचालय जितने ज्यादा बने अछूतों का दमन उतना ही बढ़ गया। इसके तीन उदाहरण तो सब जानते हैं पहला शौचालयों की संख्या बढ़ने के बावजूद स्वच्छता का ढांचा नहीं बदला। खास करके नाली, सेफ्टी टैंक ,स्वच्छता  कर्मी और अन्य उपस्कर। अभी भी शौचालयों की टंकी को आदमी ही साफ करते हैं । ऊंची जाति के हिंदू शौचालय का उपयोग करते हैं लेकिन इसकी सफाई नहीं करते। तीसरा कारण है जो लोग शौचालयों की सफाई से जुड़े हैं उन्हें दूसरा काम नहीं मिलता और आर्थिक रूप से वह काफी साधन हीन हैं। यही कारण है कि हिंदू समुदाय में भी इन दिनों जाति की समस्या बढ़ती जा रही है । प्रधानमंत्री ने बेशक घोषणा कर दी कि भारत  खुले में शौच से मुक्त हो गया लेकिन मध्य प्रदेश के दो बच्चों की लिंचिंग इस घटना की पृष्ठभूमि में अलग ही कहानी कह रही है।

Wednesday, October 2, 2019

मानव निर्मित आपदा है यह

मानव निर्मित आपदा है यह

राजस्थान से लेकर बिहार तक भारी जल जमाव और तालाबों, झीलों में भरे पानी के कारण होने वाली जान-माल की हानि कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। हालांकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं । वह असली तस्वीर को छिपा रहे हैं। हो सकता है इसका कोई राजनीतिक कारण हो। लेकिन सही तो यह है कि  पर्यावरण परिवर्तन , कुछ साजिशों और कुछ मानवीय गलतियों का खामियाजा भुगत रही है पूरी जनता।
      अगर अगर इसके वैज्ञानिक पहलुओं को देखें तो पता चलेगा कि औद्योगिकरण के कारण वातावरण में एकत्र एयरोसोल के फलस्वरूप मानसून की अवधि में गड़बड़ हो जाती है और जब उत्तर भारत में फसलों की कटाई के बाद तेज हवा चलती है तो वह एयरोसोल फैल जाता है और उत्तरी पश्चिमी भारत पर कहर बनकर टूट पड़ता है। 2 वर्ष पहले भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु और लंदन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के संयुक्त प्रयास से एक शोध के बाद पता चला की एयरोसोल के प्रभाव से बादलों के वर्टिकल स्ट्रक्चर और उनके माइक्रो फिजिकल गुणों में भारी बदलाव आ जाता है और इसके कारण वातावरण में स्थिरता खत्म हो जाती है। इस वर्ष जो बारिश का कहर हम देख रहे हैं वह इसी खत्म हो गई स्थिरता के कारण हुआ है । जब तक मानसून था बादल बरसे नहीं और जब मानसून जाने लगा तो चारों तरफ से बादल जमा होकर टूट पड़े। एक बात तो यकीनन कही जा सकती है की इस शोध से यह पता चला कि हमारी गतिविधियां हमारे लोगों के जीवन और पर्यावरण को प्रभावित कर सकती हैं । शोध परियोजना में हिस्सेदार ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉक्टर  ए वोल्गारिकिस के मुताबिक वातावरण में जिओ इंजीनियरिंग स्कीम के तहत सल्फर डाइऑक्साइड का उपयोग भी इस प्रक्रिया को तेज करता है। वातावरण की नवीन स्थिति के तहत शहरों में निर्मित होती गगनचुंबी इमारतें ,फ्लाईओवर पार्क इत्यादि जो विकसित भारत की तस्वीर पेश करते हैं। यहां एक शेर याद आता है
कुछ हुस्न मुजस्सिम की अदा पाए हुए हैं
आईने इसी बात पर इतराए  हुए हैं
हम इसी विकास को देखकर इतराते हैं, उसकी चर्चा करते हैं लेकिन वही हमारी बातों की तलहटी में छिपे गाढ़े भूरे पानी के रूप में मौत की भी तस्वीर नहीं देख पाते।
आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं
गौर से देखें जलजमाव कैसे होता है? जलजमाव वर्षा  का वह पानी है जिसे जमीन सोख नहीं सकती और पहले से भरी नालियां बाहर नहीं निकाल सकती। इसे कोढ़ में खाज की तरह खतरनाक बनाती है शहरों की कूड़ा सफाई व्यवस्था। हर शहर की अपनी विशेष चुनौतियां हैं और यह चुनौतियां शहर के निवासियों द्वारा तैयार की जाती है। यह चुनौतियां जब पर्यावरणीय कारणों से जुड़ जाती हैं तो मौत की तरह घातक बन जाती हैं। जंगल कटते जा रहे हैं गांव सिकुड़ते जा रहे हैं।  शहर दानवाकार होते जा रहे हैं । उसमें आबादी अब क्षैतिज न होकर ऊपर की ओर बढ़ रही है और बहुत ही ज्यादा बढ़ रही है उस शहर से जुड़ी चुनौतियां। जयपुर से लेकर पटना तक जो बरसात जाते जाते कहर बरपा गई उसका कारण यही चुनौतियां हैं। इस बार की मौत और बर्बादी यह सबक दे गई है कि पर्यावरण को सुधारना होगा तथा कचरे को कम करना होगा, क्योंकि कचरा उठाने और उसे निपटाने की भी  सरकार की अपनी सीमा है। हर शहर की एक भौगोलिक व्यवस्था होती है और उस व्यवस्था की एक सीमा होती है। आज विकास के नाम पर हम उस सीमा को लांघते जा रहे हैं । यह सरकार का कर्तव्य है कि शहर वासियों को बताएं कि उस शहर की सीमा क्या है। उस शहर की चुनौतियां क्या हैं? दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एयरोसोल के निर्माण को रोकने की वैज्ञानिक कोशिशें करनी होंगी। बेशक इससे उद्योगीकरण को आघात पहुंचेगा लेकिन मानव समुदाय की मौत से लगने वाली चोट उस आघात से कहीं ज्यादा घातक है।

Tuesday, October 1, 2019

आज भी गांधी प्रासंगिक हैं

आज भी गांधी प्रासंगिक हैं

आज से बिल्कुल डेढ़ सौ साल पहले आज की ही तारीख को महात्मा गांधी का जन्म हुआ था। गांधी भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में अब तक के सबसे विवादास्पद व्यक्ति रहे। अलग-अलग विचारधाराओं के लोग उनके स्वभाव और चरित्र की अलग-अलग व्याख्या करते रहे हैं। हर काल में समसामयिक परिस्थितियों  और उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर गांधी के चरित्र की व्याख्या की जाती रही है। कोई भी गांधी के काल तक जाकर उनकी व्याख्या नहीं करता। यह गांधी के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी  रही है। एक बार कोलकाता में साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मन लेखक गुंटर ग्रास ने बातचीत के दौरान कहा था "मानव सभ्यता में अरस्तु और बुद्ध के बाद मार्क्स और गांधी ही ऐसी शख्सियतें  पैदा हुईं थी जिनके  विचारों से कोई भी मतभेद रख सकता है लेकिन उनके वजूद को अपने अचेतन से नहीं निकाल सकता।"
    विगत पांच सात वर्षों से गांधी को तरह-तरह से खारिज करने का एक अभियान चला हुआ है। कभी उनके बिंबो को अलग कर उसका अन्य संदर्भ में उपयोग होता है तो कभी उनके व्यक्तित्व को एक दूसरे नजरिए से देखा जाता है । लेकिन यहां भी गांधी हैं।
          आज मॉब लिंचिंग का दौर चल पड़ा है। इतिहास की वीथियों में थोड़ी दूर जाकर अगर देखें तो कुछ ऐसी ही घटना का ब्यौरा मिल जाएगा। बात 13 जनवरी 1897 की है।  बात दक्षिण अफ्रीकी शहर डरबन की है।  अंग्रेजों की 6000 से ज्यादा की भीड़ ने महात्मा गांधी पर हमला कर दिया और उन्हें पीट-पीटकर मार डालने की कोशिश की । वह भी अपने नेता द्वारा उकसाई गई थी। पहले तो भीड़ ने गांधी पर पत्थर और सड़े हुए अंडे बरसाए और इसके बाद लोगों ने उन की पिटाई शुरू कर दी। तभी  एक महिला ने बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई । गांधीजी अपने मित्र पारसी रुस्तम जी के घर पहुंचे। तब हजारों की भीड़ गांधीजी को मांग रही थी। वे लोग घर में आग लगा देना चाहते थे। उस घर में करीब 20 लोगों की जान जान दांव पर थी। पुलिस ने उन्हें पुलिस की वर्दी पहना कर थाने पहुंचाया। पुलिस ने ही फिर  एक हिंसक गाना गवाना शुरू कर दिया। बाद में जब उग्र भीड़ को इसकी जानकारी मिली कि गांधी तो निकल गए तो  थोड़े खीझ कर वे वहां से चले गए। इस घटना में दो बातें गौर करने वाली हैं कि गांधी को बचाने वाले भी अंग्रेज थे और अंग्रेज पुलिस ऑफिसर भी उन्मत्त भीड़ की हिंसक मानसिकता को भांप कर उससे वह गाना गाने को कहा जिससे हिंसा बाहर निकल जाए। घटना की खबर 22 वर्ष के बाद 10 अप्रैल 1919 को भारत मे पता चली, और इसके बाद गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। अहमदाबाद से गांधी को गिरफ्तार किया जाने लगा तो  शहर में दंगे हो गए। कई अंग्रेज घायल हुए। अगर इस घटना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हिंसा और अहिंसा का संबंध किसी समुदाय विशेष से नहीं होता। गांधी ने 8 सितंबर 1920 को यंग इंडिया में एक  लिखा था - "लोकशाही बनाम भीड़शाही।" उसमें जो लिखा था, आज  भारत में लगभग यही स्थिति है। इन हालात से हमें छुटकारा नहीं मिल रहा है ना ही बदलाव हो रहा है। यही कारण है   कि सरकार लोगों का ध्यान बांटने के लिए इस डेढ़ सौ वर्ष पर कई कार्यक्रम कर रही है। भीड़ को प्रशिक्षित   करना सबसे आसान काम है। क्योंकि, भीड़ कभी विचारशील नहीं होती। वह आवेश के अतिरेक में कुछ भी कर गुजरने पर आमादा रहती है ।
       आज वक्त की सबसे बड़ी दिक्कत है की हमारे समाज में सामाजिक और राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया शिथिल हो गई है। राजनीतिक वर्ग में वह सामर्थ्य ही क्षीण हो गया है और इसीलिए वह अपनी बात मनवाने के उद्देश्य से भीड़ का उपयोग करता है। आज हम एक विचित्र  असंवाद की स्थिति से गुजर रहे हैं। इस  विसंवाद में हमने असभ्यता के औचित्य के लिए बहाने और उस की कहानियां रखी हैं। हमारा सामाजिक ,राजनीतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व यह भूल चुका है कि भीड़ को नियंत्रित करना केवल पुलिस का काम नहीं है। भीड़ की स्थिति उत्पन्न ना होने देना सामाजिक और राजनीतिक प्रबोधन का एक सामाजिक उपक्रम है। हम सब उस उपक्रम के पुर्जे हैं, लेकिन लगता है हम इसे भूल चुके हैं। यही कारण है कि हम किसी भीड़ सामने अपना सारा आत्मविश्वास दबाकर  या तो मूकदर्शक बने रहते हैं या फिर उसका हिस्सा बन जाते हैं। यदि आज हम भीड़ की हिंसा की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो संभवत यही निष्कर्ष निकलेगा तो इस हिंसा में शामिल हर आदमी अपने जीवन में अलग-अलग  प्रकार की व्यक्तिगत पारिवारिक आर्थिक और सामाजिक समस्याओं जैसी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त है।उसकी यह प्रवृत्ति एक दिन में नहीं बनी है उसका विकास एक लंबी अवधि में हुआ है। जिसमें हमारे मौजूदा राजनीतिक ,आर्थिक और सामाजिक वातावरण के साथ-साथ कई और कारक शामिल होते हैं।
           पीडाबोध से ग्रसित लोगों  की जमात अपनी तमाम समस्याओं के लिए किसी अन्य को जिम्मेदार मानने की प्रवृत्ति से ग्रस्त लोगों की भी हो सकती है और वह भी अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालने के लिए एक तत्कालिक बहाना ढूंढती है। उनकी दबी हुई हिंसा वृत्ति को अनायास किसी  व्यक्ति की तलाश होती है।  मौका देखते ही वह उसकी पूर्ति कर बैठती है। भीड़ को मालूम है कि उसका चेहरा नहीं होता और किसी कायरता पूर्ण हिंसा को छिपाने के लिए इससे बेहतर कोई मौका नहीं होता। आज मानव समाज के तौर पर हम मनुष्यों में क्रोध बढ़ रहा है हालांकि इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन दार्शनिकों ने पाया है कि हिंसा चाहे भीड़ की हो या किसी चरमपंथी संगठन की या फिर सेना की कहीं ना कहीं एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समस्या भी है और इसके निदान के लिए हमें गांधी और टैगोर जैसों की बात  गौर से सुने और समझने की जरूरत है। भीड़ को देखने और समझने के लिए हमें मानवीय  और वास्तविक वैज्ञानिक नजरिया अपनाना होगा और उस नजरिए को विकसित करना होगा तभी हम उसके दूरगामी समाधान के उपाय का सक्रिय हिस्सा बन पाएंगे। इसीलिए आज के दौर में भी गांधी प्रासंगिक हैं।  गांधी केवल संज्ञा न रहकर विशेषण बन चुके हैं और उस विशेषण की भी हमें आवश्यकता है।